सम्पादकीय

उद्धव सरकार-सस्पेंस बरकरार

Subhi
29 Jun 2022 2:58 AM GMT
उद्धव सरकार-सस्पेंस बरकरार
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महाराष्ट्र की लड़ाई बहुत ही गंभीर ​ स्थिति में पहुंच गई है। पल-प्रतिपल सीएम उद्धव ठाकरे और बागी नेता एकनाथ शिंदे के नए कदम नई परिस्थितियों को जन्म दे रहे हैं।

आदित्य चोपड़ा; महाराष्ट्र की लड़ाई बहुत ही गंभीर ​ स्थिति में पहुंच गई है। पल-प्रतिपल सीएम उद्धव ठाकरे और बागी नेता एकनाथ शिंदे के नए कदम नई परिस्थितियों को जन्म दे रहे हैं। महाराष्ट्र में सत्ता के लिए जो लड़ाई मुंबई से चलकर सूरत और गुवाहाटी पहुंची वो अब दिल्ली से होती हुई राजभवन तक पहुंच गई है। भाजपा खुलकर सामने आ गई है। पूर्व सीएम देवेंद्र फडणवीस ने राज्यपाल महोदय से अनुरोध किया है कि फ्लोर टैस्ट कराया जाए। विश्लेषक कह रहे हैं कि राज्यपाल महोदय को अल्पमत में आई सरकार का संज्ञान लेकर फ्लोर टैस्ट करवा लेना चाहिए था लेकिन फडणवीस के राज्यपाल से भेंट करने के बाद सीएम ठाकरे ने चेतावनी भरे लहजे में कहा है कि अगर फ्लोर टैस्ट कराया तो हम सुप्रीम कोर्ट जाएंगे। लोकतंत्र को कैसे-कैसे दिन देखने पड़ रहे हैं ? संस्पेंस कायम है, पर्दा नहीं उठ रहा, अब क्लाइमेक्स कब सामने आएगा इसी का इंतजार है।

राजनीति का पेच अब इस तरह फंस गया है कि मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे से अपनी ही बनाई गई इमारत की भूलभुलैया से निकलना बाहर मुश्किल हो रहा है। यह सत्य है कि यदि श्री ठाकरे को अपनी शिवसेना के विधायकों पर विश्वास होता तो वह श्री एकनाथ शिंदे की बगावत के समय ही विधानसभा का सत्र बुलाकर अपना बहुमत सिद्ध कर देते परंतु उन्हें यह विश्वास नहीं था कि श्री शिंदे के साथ पहले सूरत और बाद में असम की राजधानी गुवाहाटी में गए तीस विधायक उनके प्रति वफादार रहेंगे। बाद में इन विधायकों की संख्या बढ़ती गई और दो-तिहाई से अधिक की सीमा तक हो गई परंतु श्री ठाकरे सरकार में अपने बहुमत का यकीन दिलाने की हिम्मत नहीं जुटा सके जिसका परिणाम यह हुआ की श्री शिंदे ने अपने गुट के 40 सदस्यों के साथ स्वयं को शिवसेना के संस्थापक स्वर्गीय बाल ठाकरे का असली राजनीतिक वारिस कहना शुरू कर दिया। हालांकि श्री ठाकरे स्वर्गीय बाल ठाकरे के पुत्र हैं और उनके भी पुत्र आदित्य ठाकरे उनकी ही सरकार में मंत्री हैं मगर इसका अर्थ यह नहीं है कि स्वर्गीय बाल ठाकरे की राजनीतिक विरासत के केवल वही हकदार हो सकते हैं।

राजनीति में विरासत के अलग कारण होते हैं। जब नेता अपने शिष्यों का चयन करता है तो स्वाभाविक रूप से वह ऐसे राजनीतिक कार्यकर्ताओं को आगे लाने की कोशिश करता है जो उसकी विचारधारा को आगे बढ़ा सकें। एकनाथ शिंदे यही काम कर रहे हैं और स्वयं को बाला साहब ठाकरे का राजनीतिक वारिस बता रहे हैं। उनके इस दावे में इसलिए वजन है क्योंकि वह बाला साहब ठाकरे के हिंदुत्व के सिद्धांत को पकड़कर राजनीति करना चाहते हैं और इसी कारण उन्होंने राष्ट्रवादी कांग्रेस और शिवसेना की सरकार को निरस्त करते हुए भाजपा और शिवसेना की सरकार बनाने का मंतव्य रखा जिसे श्री उद्धव ठाकरे ने स्वीकार नहीं किया और इसे अपनी व्यक्तिगत लड़ाई बना लिया जबकि वास्तविकता यह है कि भाजपा और शिवसेना के हिंदुत्व के सिद्धांत पर यदि पूर्ण सहमति नहीं है तो असहमति के बहुत कम बिंदु हैं जिन्हें दोनों पार्टियां आपस में बैठकर सरलता पूर्वक सौहार्दपूर्ण वातावरण में सुलझा सकती हैं।

अब महाराष्ट्र की राजनीति और सरकार दोनों ही जिस तरह सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में आ गए हैं। इस स्थिति में यदि हम कानूनी दृष्टि से देखें तो शिवसेना का वह वर्ग जो श्री उद्धव ठाकरे का समर्थन कर रहा है वह निश्चित रूप से उस भंवर में फंस चुका है जिसमें से निकलने का रास्ता स्वयं उद्धव ठाकरे को भी नहीं मालूम। उनकी मदद राष्ट्रवादी कांग्रेस के विधानसभा उपाध्यक्ष श्री नरहरि जरूर कर रहे हैं परंतु वह भी अपने ही बुने हुए जाल में फंस चुके हैं। उन्होंने 40 विद्रोही विधायकों में से केवल 16 विधायकों को ही दलबदल अधिनियम के तहत नोटिस जारी किया। इसका राजनीतिक अर्थ यह है कि शिंदे गुट के जो 24 से विधायक हैं उन्हें श्री उद्धव ठाकरे अपने पक्ष में रखने के यत्न कर रहे हैं। परंतु उनका यह यत्न भी सफल होता दिखाई नहीं पड़ रहा है क्योंकि इन सभी 40 विधायकों ने अपने हस्ताक्षर करके स्वयं को असली संसदीय शिवसेना बताने का ज्ञापन राज्यपाल से लेकर उपाध्यक्ष तक को भेज दिया है। एक बार जब सदन में उपस्थित किसी राजनीतिक दल के विधायकों का बंटवारा होता है तो यह सदन के अध्यक्ष के नियंत्रण में आ जाता है परंतु दुर्भाग्य से महाराष्ट्र विधानसभा में कोई अध्यक्ष ही नहीं है और उपाध्यक्ष से ही काम चलाया जा रहा है। ऐसे में उपाध्यक्ष की निष्पक्ष और स्वतंत्र भूमिका की दरकार संसदीय नियमों के अनुसार की जानी चाहिए परंतु उपाध्यक्ष श्री नरहरि ने जिस जल्दबाजी में 16 शिवसैनिक विधायकों को सदस्यता से निलंबित करने हेतु नोटिस जारी किया वह कानूनी रूप से बेशक गलत ना हो मगर राजनीतिक नैतिकता के लिहाज से संदिग्ध कहा जा सकता है। इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है की राज्यपाल अपने राज्य की संवैधानिक स्थिति का जायजा लें। यह चुनाव राष्ट्रीय स्तर पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राज्य स्तर पर तत्कालीन मुख्यमंत्री देवेंद्र फडणवीस के नेतृत्व में लड़ा गया था बेशक शिवसेना के नेता उद्धव ठाकरे का नेतृत्व भी आगे रखकर लड़ा गया था। यदि राज्यपाल से सदन का कोई विधायक या पार्टी यह कहती है कि वह उद्धव ठाकरे सरकार के बहुमत की जांच करें तो वह ऐसा कर सकते हैं और उस स्थिति में उद्धव सरकार को सदन के भीतर अपना बहुमत सिद्ध करना होगा। जाहिर है कि सदन के भीतर जब उन्हीं की पार्टी के 40 विधायक सरकार के खिलाफ मतदान करेंगे तो वह गिर जाएगी और श्री उद्धव ठाकरे मुख्यमंत्री पद पर नहीं रहेंगे। वह अपना बहुमत ऐसी स्थिति में ही सिद्ध कर सकते हैं जबकि शिवसेना के बहुमत विधायकों का समर्थन उन्हें प्राप्त हो जोकि नहीं है तो राजनीतिक चातुर्य यही कहता है कि श्री उद्धव ठाकरे इस जंजाल से निकलें और अपने अधिसंख्य विधायकों की राय मानते हुए भाजपा से हाथ मिला कर नई सरकार के गठन का मार्ग प्रशस्त करें। परंतु वर्तमान राजनीतिक स्थितियों में ऐसा संभव होता नहीं दिखाई पड़ रहा है

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