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- संकट में उद्धव सरकार
नवभारत टाइम्स: उद्धव ठाकरे की अगुआई वाली महाराष्ट्र विकास आघाड़ी सरकार का संकट टलने के कोई आसार नहीं दिख रहे। विधानपरिषद चुनाव के लिए वोटिंग होने के बाद अपने समर्थक विधायकों के साथ सूरत में अड्डा जमाए बागी शिवसेना नेता एकनाथ शिंदे गुवाहाटी पहुंच चुके हैं। वह न केवल शिवसेना की पहुंच से और दूर हो गए हैं बल्कि उन्होंने अपना रुख भी कड़ा कर लिया है। शिवसेना विधायक दल के नेता पद पर अपना दावा जताते हुए जो पत्र उन्होंने राज्यपाल को भेजा है, उस पर 34 विधायकों के हस्ताक्षर हैं, जिनमें 30 शिवसेना के और चार निर्दलीय हैं। भले यह दलबदल कानून के तहत कार्रवाई से बचने के लिए आवश्यक संख्या (37) से कम हो, इतनी तो है ही कि मौजूदा आघाड़ी सरकार को अल्पमत में ला दे और शिवसेना में उद्धव ठाकरे के नेतृत्व पर सवालिया निशान लग जाए। शायद इसीलिए शाम पांच बजे शिवसेना विधायकों की बैठक बुलाने और उसमें शामिल न होने वालों को पार्टी विरोधी गतिविधियों में शामिल मानने का एलान करने वाले नेतृत्व ने शाम होते-होते तक वह बैठक ही रद्द कर दी। उसकी जगह उद्धव ठाकरे ने फेसबुक लाइव पर शिवसैनिकों को संबोधित करने का फैसला किया। इस संबोधन में भी उन्होंने अपने तेवर बिल्कुल नरम रखे और कहा कि अगर विधायक चाहते हैं कि वह मुख्यमंत्री पद छोड़ दें तो वह इस्तीफा देने को तैयार हैं बशर्ते ये विधायक खुद उनसे ऐसा कहें।
बहरहाल, सरकार पर जो संकट है, वह इस तरह के भावुकतापूर्ण बयानों से टलने वाला नहीं है। इसमें दो राय नहीं कि बतौर मुख्यमंत्री अपने ढाई साल के कार्यकाल में उद्धव ठाकरे ने अपनी बेहतर प्रशासनिक क्षमता का परिचय दिया है। लेकिन राजनीतिक कौशल दिखाने में वह नाकाम रहे। राज्यसभा चुनावों में क्रॉस वोटिंग के ठीक बाद विधानपरिषद चुनावों में भी क्रॉस वोटिंग हो जाना बताता है कि पार्टी प्रबंधन का काम ठीक नहीं था। यह भी अचरज की बात है कि मुख्यमंत्री की नाक के नीचे उनके मंत्रिमंडल के सदस्य इतनी बड़ी संख्या में विधायकों को साथ लेकर सूरत चले जाने की साजिश रचते रहे और उन्हें भनक तक नहीं लगी। ध्यान रहे, गृह मंत्रालय एनसीपी के पास है। एनसीपी चीफ शरद पवार ने बड़ी सफाई से इस पूरे घटनाक्रम का ठीकरा शिवसेना नेतृत्व पर फोड़ते हुए खुद को इससे अलग कर लिया। अब यह सवाल तो है ही कि आघाड़ी सरकार का क्या होगा, यह भी है कि सरकार गिरने के बाद इस गठबंधन का क्या होगा। बदले समीकरणों में एनसीपी, कांग्रेस और शिवसेना के रिश्ते कैसे होंगे। क्या शिवसेना और बीजेपी एक बार फिर एक-दूसरे का हाथ थाम लेगी? अगर शिवसेना नेतृत्व ऐसा फैसला करता है तो उसे प्रदेश राजनीति में बीजेपी के छोटे भाई की भूमिका हमेशा के लिए मंजूर करनी होगी। लेकिन उससे बड़ा सवाल यह है कि क्या इस संकट से गुजर कर निकलने वाली शिवसेना भी आज जैसी शिवसेना होगी?