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हम अक्सर ख़बरों को आज और कल के खांचे में देखते हैं और पलट कर आगे बढ़ जाते हैं
रवीश कुमार हम अक्सर ख़बरों को आज और कल के खांचे में देखते हैं और पलट कर आगे बढ़ जाते हैं. यही नहीं ख़बरों को हमेशा एक अकेली घटना के रूप में देखने लग जाते हैं. इससे निकलने का रास्ता आसान तो नहीं है लेकिन अगर आप कुछ ख़ास तरह की ख़बरों को निकाल कर उन्हें एक क्रम में रख कर देखेंगे तो वह लकीर दिख जाएगी जिससे आपके नागरिक होने के अधिकार का दायरा, छोटा किया जा रहा है. इसे शिकंजा कसना कहते हैं. गर्दन तक हाथ पहुंच गया है, दबाया भी जा रहा है, रहमत इतनी है कि मारा नहीं जा रहा है. UAPA के बारे में आप कितनी बार ख़बरें पढ़ते हैं, अदालत की टिप्पणियां पढ़ते हैं लेकिन इसके बाद भी आप देखते हैं कि वही कहानी दोहराई जाती है. राज्य की मशीनरी को लगता है और यह सही भी है कि आप भूल जाते हैं और बहुतों को फर्क नहीं पड़ता. एक नया आदेश आ जाता है.
जैसे आप इसी साल जून की इन तस्वीरों को भूल गए होंगे जब नताशा नरवाल देवांगना कालिता और आसिफ़ इक़बाल तन्हा को कई हफ्तों की जेल के बाद ज़मानत पर रिहा किया गया था। इन सभी पर UAPA की धाराएं ली हैं. दिल्ली दंगों के मामले में कई लोगों पर UAPA की धाराएं लगी हैं, केवल इन्हीं तीनों को मेरिट के आधार पर ज़मानत दी गई है. मेरिट का मतलब यह हुआ कि ज़मानत देते वक्त हाई कोर्ट ने कहा भड़काऊ भाषण देना, चक्का जाम करना आतंकी कार्रवाई नहीं है. कोर्ट ने कहा था, हमें यह कहना पड़ रहा है कि ऐसा लगता है कि असहमति को कुचलने की बेचैनी में राज्य की सोच में प्रदर्शन करने के संवैधानिक अधिकार और आतंकवादी गतिविधियों के बीच अंतर की रेखा धुंधली हो गई है. अगर इस तरह की सोच को और बढ़ावा मिला तो वह हमारे लोकतंत्र के लिए एक उदास दिन होगा. शांतिपूर्ण प्रदर्शन एक संवैधानिक अधिकार है और ग़ैरक़ानूनी नहीं है. इन्हें UAPA के तहत आतंकवादी गतिविधि क़रार नहीं दिया जा सकता है. इनकी किस्मत अच्छी थी कि मामले को हाई कोर्ट में सुनवाई मिल गई वर्ना ट्रायल कोर्ट में ही ज़मानत को लेकर सुनवाई में सालों निकल जाते हैं.
हाई कोर्ट को भाषण में कुछ भी भड़काऊ नहीं मिला बल्कि यहां तक अदालत ने कहा कि भड़काऊ भाषण देना आतंकी कार्रवाई नहीं है. असहमति को कुचलने के लिए UAPA का इस्तेमाल हो रहा है. इन सब बातों के पांच महीने भी नहीं हुए हैं, त्रिपुरा पुलिस पत्रकार श्याम मीरा सिंह को UAPA की धारा के तहत पूछताछ के लिए नोटिस भेजती है. क्योंकि श्याम मीरा सिंह ने ट्विटर पर लिखा था कि त्रिपुरा जल रहा है. अव्वल तो त्रिपुरा जल रहा है लिखना कहीं से भी भड़काऊ नहीं है लेकिन क्या पुलिस भड़काऊ भाषणों को लेकर दर्ज NSA, UAPA के मामलों में अदालतों की टिप्पणियां पढ़ती ही नहीं है? क्या अपना रिकार्ड भी नहीं देखती है?
इस साल अगस्त में गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने राज्यसभा में बताया है कि 2019 में Unlawful Activities Prevention Act (UAPA) के तहत 1948 लोग हिरासत में लिए गए हैं और सज़ा मिली केवल 34 लोगों को.
यह दिखाता है कि कमज़ोर आधार पर UAPA की धाराएं लगाई जा रही हैं और जांच भी कमज़ोर होती है. सारा ज़ोर इसी पर लगता है कि आरोपी को लंबे समय तक जेल में रखा जाए. अगर वह राजनीतिक विरोधी है या राज्य की सत्ता को उसका चेहरा पसंद नहीं है तो यह कानून सबक सिखाने का सबसे आसान ज़रिया बनता जा रहा है.
किस तरह किसी को जेल में रखने और ज़मानत पर बाहर आने से रोकने के लिए UAPA का इस्तमाल होने लगा है, इसकी मिसाल दिल्ली दंगों में दर्ज मामलों और अदालतों में उनकी सुनवाई से मिल जाएगी. पिछले साल दस अप्रैल 2020 को सफूरा ज़रगर को गिरफ्तार किया जाता है. 13 अप्रैल को बेल मिल जाती है लेकिन इससे पहले कि बाहर आ पाती स्पेशल सेल जेल पहुंच कर अरेस्ट कर लेती है. सफूरा गर्भवती थीं, जब इसे लेकर दुनिया भर में हंगामा मचा तो कोर्ट ने मेरिट की जगह सहानुभूति के तौर पर ज़मानत दे दी. यह पूरा केस बताता है कि कैसे दिल्ली दंगों के आरोपियों को जेल से बाहर आने के लिए नई नई धाराएं जोड़ी जाती हैं. आप इसे FIR नंबर 59 से समझ सकते हैं. शुरू में इसमें जो धाराएं लगाई गईं थी सब के सब ज़मानती थीं. जब मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट ने पूछा कि ज़मानती धाराएं होने के बाद भी गिरफ्तार क्यों हैं. सही से जवाब दायर करें तब 20 अप्रैल को दिल्ली पुलिस जो जवाब दायर करती है उसमें UAPA की धाराएं लगा दी जाती हैं. इसी मामले में उमर खालिद और अन्य की ज़मानत को लेकर अभी तक ट्रायल कोर्ट में बहस चल रही है. उमर खालिद की ज़मानत को लेकर कई बार बहस हो चुकी है. उमर खालिद को 13 महीने जेल में बीत गए हैं. आज तक उमर ख़ालिद, ख़ालिद सैफी, गुलफिशां फातिमा, शिफा-उर-रहमान, शादाब अहमद, अतहर ख़ान जेल में हैं और आए दिन ज़मानत को लेकर बहस होती रहती है. मीडिया रिपोर्ट पढ़ने से यही लगता है कि पुलिस की दलीलें खासी कमज़ोर हैं और ज़ोर केवल ज़मानत के विरोध पर है. जबकि इसी मामले में सफूरा, नताशा नरवाल, देवांगना कालिता और आसिफ इकबाल को ज़मानत मिल चुकी है लेकिन बाकी आरोपी जेल में हैं.
कुछ मामलों में ज़मानत का नहीं मिलना हो सकता है कि कानून की प्रक्रियाओं की ज़रूरत हो लेकिन क्या अदालत की टिप्पणियों और तमाम घटनाओं से यह नहीं लग रहा है कि जेल में लंबे समय तक डालने का यह तरीका बनता जा रहा है. इस तरह के इवेंट रचे जा रहे हैं कि टीवी पर तीन तीन महीने बहस चलती है और कोई नतीजा नहीं निकलता है. इन बहसों में अनाप शनाप सवालों को उठा कर जांच एजेंसियों की करतूत को पर्दे में रखा जाता है.
सिर्फ UAPA नहीं है, इसकी बिरादरी के कई और कानून हैं जिनमें ज़मानत को मुश्किल बनाया गया है. मिसाल के तौर पर NSA है, NDPS एक्ट है, PASA एक्ट है. क्या आप जानते हैं कि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने NSA के 120 मामलों में से 94 को रद्द किया है. इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट के अनुसार ये सारे मामले जनवरी 2018 से दिसंबर 2020 के बीच दायर हुए थे. क्या इस तरह से हमारे देश में NSA के मामले दर्ज होंगे? इसी साल बिहार में स्पेशल पुलिस एक्ट बनाकर ज़मानत को सख्त किया गया है. इसके तहत बिना वारंट के पुलिस किसी को गिरफ्तार कर सकती है. गुजरात के मुख्यमंत्री ने ही बताया है कि पिछले दो साल में 5400 से अधिक लोग Prevention of Anti-Social Activities (PASA) Act, के तहत गिरफ्तार हुए हैं. इसमें से 3,447 मामलों को हाईकोर्ट ने निरस्त कर दिया. हाल ही में गुजरात हाईकोर्ट ने एक डाक्टर मितेश ठक्कर को बरी करते हुए सख्त टिप्पणी की थी. ऐसा ही एक्ट लक्षद्वीप में भी बनाया गया है. लक्षद्वीप के संदर्भ में फिल्म मेकर आयशा सुल्ताना का केस याद होगा. उन्होंने लक्षद्वीप के प्रशासक प्रफुल्ल पटेल के खिलाफ टिप्पणी की थी और अपनी टिप्पणी में बायो-वेपन का इस्तमाल किया था. उन्हें अरेस्ट कर लिया गया. केंद्र और लक्षद्वीप प्रशासन ने ज़मानत का विरोध किया कि ऐसे शब्द का इस्तमाल किया है जिससे भारत की छवि खराब हुई है. केरल हाई कोर्ट ने ज़मानत दे दी.
UAPA, NSA, PASA इन कानूनों का इस्तमाल क्या इसलिए होता है कि ज़मानत नहीं मिलती है? क्या हमें अंदाज़ा है कि आम लोगों को इन धाराओं के चलते क्या मुसीबतें झेलनी पड़ रही हैं?
रिया चक्रवर्ती का मामला याद होगा. तीन महीने तक ऐसा तूफान मचा था जैसे देश में इससे बड़ी कोई खबर न हो. इसका सौ ग्राम कवरेज बीस हज़ार करोड़ के ड्रग्स पकड़े जाने की घटना को नहीं मिला होगा लेकिन पिछले साल हर दिन रिया चक्रवर्ती को सज़ा दी जाती थी. 28 दिनों तक वह NDPS एक्ट के तहत जेल में रही. ज़मानत की सुनवाई का सिलसिला चलता है तारीखें टलती रहीं. ठीक यही हाल आर्यन खान का हुआ. आर्यन ख़ान को भी 26 दिनों तक जेल में रहना पड़ा. ज़मानत पर बहस इस तरह से हुई जैसे ट्रायल कोर्ट की बहस हो. स्टेन स्वामी की तो उम्र 80 साल से अधिक थी. चल फिर सकने की हालत में नहीं थे. ज़मानत नहीं मिली और वे मर गए. सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अरविंद दातार ने स्टेन स्वामी से लेकर पत्रकार सिद्दीक कप्पन, आर्यन ख़ान से लेकर रिया चक्रवर्ती और अन्य कई लोगों के खिलाफ लगाई गई सख़्त धाराओं के हवाले से यह सवाल उठाया है कि अगर कानून का राज चल रहा होता ये सभी लोग गिरफ्तार नहीं होते. अरविंद दातार ने लिखा है कि सुप्रीम कोर्ट ने बार बार कहा है कि बेल देना नियम है, जेल अपवाद होना चाहिए लेकिन हो रहा है उल्टा. जेल ही नियम हो गया है और बेल मिलनी मुश्किल होती जा रही है. अरविंद तो इसे स्कैम लिखते हैं. कहते हैं कि ट्रायल कोर्ट में बेल की बात ही खत्म होती जा रही है. जब तक मामला हाईकोर्ट नहीं जाएगा, बेल मिलनी मुश्किल होती जा रही है. इसलिए समय आ गया है कि इन कानूनों की धाराओं की समीक्षा की जाए और समाप्त किया जाए ताकि ज़मानत की प्रक्रिया आसान हो.
सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील अरविंद दातार ने अपने लेख में एक सवाल उठाया है कि बेल न देकर क्या हासिल हो रहा है? क्या अपराध दर घट रही है? कहीं ऐसा तो नहीं कि महीनो तक जेल में रखने के लिए अधिक से अधिक अपराधों को ग़ैर ज़मानती घोषित किया जा रहा है. अरविंद दातार ने लिखा है कि बेल नहीं देने से जितने भी कैदी जेलों में हैं उनमें से 70 फीसदी अंडर ट्रायल हैं. बहुत से कैदी तो कई साल से जेल में हैं. हर अंडर ट्रायल को दोषी मान लिया जाता है. उसका जीवन बर्बाद हो जाता है.
जिस तरह से 2020 में 2013 के कंपनी एक्ट के कई प्रावधानों को डि-क्रिमिनलाइज़ किया गया तो बाकी कानूनों के साथ भी सुधार होना चाहिए. जबकि ठीक इसके उलट गैर ज़मानती अपराधों की संख्या बढ़ाई जा रही है. बेल की जगह जेल का चलन बढ़ाया जा रहा है. ऐसे प्रावधानों में सारा कुछ जज के विवेक और संतुष्टि पर छोड़ दिया जाता है. कि जज तभी ज़मानत दे जब उसे लगे कि आरोपी निर्दोष है और इसके पर्याप्त आधार हैं. अगर साफ-साफ मामला न हो तो इतने आरंभिक स्तर पर जज कैसे मान लेगा कि यह व्यक्ति निर्दोष है या दोषी. यही नहीं हर केस में मुचलका दिए जाने के मामले में भी सुधार की आवश्यकता है. बहुत ज़रूरी है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट लोअर कोर्ट को संकेत भेजें कि वे बेल दें. ज़मानत देने पर किसी अधीनस्थ जज को सज़ा नहीं दी जाएगी. अरविंद दातार का यह लेख इंडियन एक्सप्रेस में छपा है.
सुप्रीम कोर्ट के तमाम आदेशों के बाद भी ट्रायल कोर्ट के स्तर पर बेल क्यों नहीं मिल रही है. क्या इसी कारण UAPA का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है? त्रिपुरा में 2015 से 2019 के बीच UAPA का एक भी केस दर्ज नहीं हुआ, सरकार ने लोकसभा में यह जानकारी दी है लेकिन अचानक वहां की पुलिस 102 लोगों को UAPA के तहत नोटिस भेजती है.
त्रिपुरा जल रहा है. ट्विटर पर इतना भर लिखने से पत्रकार श्याम मीरा सिंह को UAPA के तहत नोटिस भेज दिया गया कि वे पूछताछ के लिए हाज़िर हों. एडिटर्स गिल्ड ने आलोचना की है कि जांच के स्तर पर इस तरह की सख्त धाराओं को लगाने का यही मतलब है कि पुलिस असहमति को कुचलना चाहती है. Indian Women's Press Corps ने इन धाराओं को वापस लेने की मांग की. पत्रकार श्याम मीरा सिंह के साथ साथ 102 लोगों को UAPA के तहत नोटिस भेजा गया है. पुलिस मानती है कि इन लोगों ने फेक न्यूज़ फैलाई. सुप्रीम कोर्ट के वकील मनोज और एतहाश हाशमी त्रिपुरा गए थे, फैक्ट फाइडिंग टीम के साथ. उन लोगों ने रिपोर्ट आनलाइन डाल दी, बाद में हटा ली. इसके बाद भी UAPA के तहत इनके खिलाफ नोटिस आया है कि पूछताछ के लिए हाज़िर हों.
क्या अब देश जल रहा है, देश बिक रहा है, ये सब लिखने पर UAPA के तहत नोटिस आएगा? क्या पुलिस ने दिल्ली हाई कोर्ट का वह फैसला नहीं पढ़ा होगा कि भड़काऊ भाषण देना आतंकी कार्रवाई नहीं है? विपक्ष के नेता से लेकर प्रधानमंत्री गृहमंत्री के कई भाषणों में मिल जाएगा, बंगाल जल रहा है, देश जल रहा है, देश बिक रहा है. त्रिपुरा पुलिस को बताना चाहिए कि जिन लोगों पर दंगा फैलाने की धाराएं लगाई गई हैं क्या उनके खिलाफ भी UAPA लगा है? हमारे सहयोगी रतनदीप ने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि ऐसे लोगों के खिलाफ UAPA की धारा नहीं लगाई गई है.
अगर फेक न्यूज़ आतंकी कार्रवाई है तो क्या पुलिस को पता है कि इसमें कौन कौन लोग शामिल मिलेंगे? फेक न्यूज़ के खिलाफ एक्शन लेना चाहिए लेकिन क्या इसके लिए UAPA के तहत नोटिस भेजा जाएगा? 9 दिसंबर 2017 को प्रधानमंत्री मोदी ने गुजरात विधानसभा चुनावों में कह दिया कि मणिशंकर अय्यर के घर बैठक हुई थी, उसमें मनमोहन सिंह थे, पूर्व उपराष्ट्रपति थे, पाकिस्तान के पूर्व विदेश मंत्री थे. उन्होंने यह भी कहा कि पाकिस्तानी सेना के पूर्व महानिदेशक चाहते हैं कि अहमद पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री बने.
इस भाषण को आप ठीक से सुनिएगा. 9 दिसंबर के भाषण के बाद दस दिसंबर से अखबारों में जिस तरह से छापा गया था उसे कभी पलट कर देखिएगा. कैसी कैसी हेडलाइन बनाई गई. उन हेडलाइन को देखने से ही पता चलेगा कि आपको महंगाई का सपोर्टर बनाने के लिए किस तरह से सांप्रदायिक रूप से तैयार किया जा रहा था. प्रधानमंत्री ने बेहद सावधानी से अपने वाक्यों का चुनाव किया, इस तरह से कि फेक न्यूज़ और सांप्रदायिक टोन दोनों आ जाएं और बाकी समझने के लिए जनता पर छोड़ दिया जाए. प्रधानमंत्री के बयान को आधार बना कर अखबारों में छपा कि पाकिस्तान चाहता है कि अहमद पटेल गुजरात के मुख्यमंत्री बने. इसकी बैठक दिल्ली में हुई थी जिसमें मनमोहन सिंह शामिल थे.
जबकि 2017 की उस बैठक में भारतीय सेना के पूर्व प्रमुख जनरल दीपक कपूर भी थे. क्या वे पाकिस्तान के साथ मिलकर भारत के खिलाफ प्लानिंग करते? पूर्व सेनाध्यक्ष जनरल दीपक कपूर ने कहा था कि गुजरात को लेकर कोई चर्चा ही नहीं हुई थी. टीवी में खूब डिबेट हुई कि पाकिस्तान योजनाएं बना रहा है. उस वक्त प्रधानमंत्री ने कहा था कि क्या बात हुई कांग्रेस देश को बताए लेकिन उनकी सरकार ने इस बयान पर राज्यसभा में जो कहा उसे देश को ठीक से नहीं बताया गया. सरकार ने कहा कि प्रधानमंत्री ने अपने भाषण में पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह या पूर्व राष्ट्रपति हामिद अंसारी की देश के प्रति निष्ठा पर सवाल नहीं किया था और न ही उनकी मंशा थी. इस तरह की कोई भी धारणा गलत है, हम इन नेताओं का बहुत आदर करते हैं, और भारत के प्रति इनकी निष्ठा का भी आदर करते हैं.
इस तरह प्रधानमंत्री के कई बयानों को फेक न्यूज़ के दायरे में रखा जा सकता है तो क्या उन्हें UAPA का नोटिस भेजा जाएगा? जो लोग सांप्रदायिकता फैला रहे हैं, दिन रात इस तरह की बातें कर रहे हैं उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती है, कोई अगर इसे लेकर लिख दे कि समाज या देश को जलाने का प्रयास हो रहा है तो उसे UAPA का नोटिस दिया जा रहा है. पुलिस ट्विटर को लिख रही है कि श्याम मीरा सिंह का अकाउंट बंद किया जाए और ट्विटर जवाब दे रहा है कि नहीं बंद करेंगे, इसमें ऐसा कुछ भी आपत्तिजनक नहीं लिखा गया है.
आपको याद होगा, पठानकोट एयरबेस पर आतंकी हमले के बाद मार्च 2016 में पाकिस्तान से जांच दल भारत आया था. उन्हें घटनास्थल का दौरा कराया गया. उस समय विवाद हुआ कि पाकिस्तान की जांच टीम में खुफिया एजेंसी ISI का भी सदस्य था. अब इसी को लेकर कोई ट्विटर पर लिख दे कि आतंकवादी की आवभगत हो रही है तो क्या उसके खिलाफ UAPA लगेगा, गनीमत है कि कांग्रेस विपक्ष में है वर्ना बीजेपी होती तो हर दिन इसी बात पर भाषण दे रही होती. याद दिला रही होती. इसलिए त्रिपुरा के मामले को आप सिर्फ एक घटना से जुड़ा नहीं मान सकते हैं.
पत्रकार सिद्दीक कप्पन और उनके साथ गिरफ्तार हुए अतीक-उर्र रहमान, मसूद अहमद औऱ मोहम्मद आलम 13 महीने से जेल में हैं. हाथरस में बलात्कार की घटना को रिपोर्ट करने जा रहे थे. पत्रकार सिद्दीक कप्पन पर UAPA और राजद्रोह की धारा लगाई गई है जिसके बारे में सुप्रीम कोर्ट ही कई बार कह चुका है कि राजद्रोह की धारा का इस्तेमाल अति हो गया है. शांति भंग करने का आरोप लगा था जिसे हटाना पड़ा क्योंकि पुलिस साबित नहीं कर पाई.
एडिटर्स गिल्ड ने भी सिद्दीक कप्पन को लेकर बयान जारी किया था कि उनकी पत्नी ने आरोप लगाया है कि इलाज के दौरान बिस्तर से बांध दिया गया था. यह काफी चौंकाने वाला है. एक देश की अंतरात्मा पर प्रहार है कि पत्रकार के साथ ऐसा बर्ताव हो रहा है. अतीक उर्र रहमान ह्रदय के मरीज़ हैं. खबर आई थी कि उन्हें सर्जरी की ज़रुरत है वर्ना नहीं बचेंगे.
कई भाषणों में कुछ नहीं होता फिर भी उन्हें शांति के लिए ख़तरा बता कर किसी को महीनों जेल में बंद कर दिया जाता है. डॉ कफील खान का केस क्लासिक है. इलाहाबाद हाई कोर्ट ने कहा कि अवैध रूप से NSA लगाया गया और सुप्रीम कोर्ट ने भी हाईकोर्ट के फैसले पर मुहर लगाई. कफील खान सात महीने से अधिक समय तक जेल में रहे. क्या यह अरेस्ट राज नहीं है. सरकार का अधिकारी अवैध रूप से NSA लगाता है, सरकार ने क्या किया, क्या गलत धाराएं लगाने पर अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई हुई? क्या इस तरह से कानून का राज चल रहा है? इन कानूनों का एक ही इस्तेमाल नहीं रह गया है, आतंक का भूत फैला कर आम आदमी को जेल में सड़ा दो. आखिर सुप्रीम कोर्ट की शानदार टिप्पणियों का पुलिस और सरकार पर असर क्यों नहीं पड़ रहा है. स्टेन स्वामी की मौत के बाद सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस डी वाई चंद्रचूड़ ने कहा की "आतंक विरोधी कानूनों, आपराधिक कानूनों का इस्तेमाल असहमति को कुचलने और नागरिकों को प्रताड़ित करने में नहीं होना चाहिए. मैंने अर्णब गोस्वामी बनाम राज्य के फैसले में नोट किया है कि हमारी अदालतें इस बात को सुनिश्चित करें कि नागरिक की स्वतंत्रता पर हमला हो तो उनकी रक्षा में सबसे पहले वे आगे आएं.''
अगर सर्वोच्च अदालत इसे निजी स्वतंत्रता पर हमला मानती हैं तो टिप्पणियों से आगे जाकर कदम क्यों नहीं उठाती है? क्यों ज़मानत की सुनवाई का मामला इतना लंबा चलता है? पंजाब की कांग्रेस सरकार भी UAPA लगाने के मामले में कम नहीं है. वहां मामूली बातों को लेकर इसकी धाराएं लगाई गई हैं. अगर इस तरह से ज़मानत न देने का तरीका निकाला जाएगा तो फिर ज़मानत का सिस्टम ही खत्म कर देना चाहिए. हर अपराध ही गैर ज़मानती बना दिया जाए, तब फिर स्वतंत्रता और मौलिक अधिकार का क्या होगा.
कुल मिलाकर पुलिस पर न अदालतों की टिप्पणियों का कोई असर नहीं दिख रहा है. जबकि हमारे सामने कई केस आ चुके हैं जिसमें NIA से आरोप साबित नहीं कर सकी है.
इसी साल जून में अखिल गोगोई को NIA कोर्ट ने बरी कर दिया. उन पर भी UAPA लगाया गया था. NIA कोर्ट के जज प्रांजल दास ने अपने फैसले में कहा है कि रिकार्ड पर जो दस्तावेज़ पेश किए गए हैं और जिन पर चर्चा हुई है, मैं सोच-विचार कर इस नतीजे पर पहुंचा हूं कि इन सभी साक्ष्यों के आधार पर नहीं कहा जा सकता कि भारत की एकता, अखंडता और संप्रभुता को ख़तरा पहुंचाने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई या लोगों को आतंकित करने के इरादे से आतंकी कार्रवाई की गई. इसलिए अखिल गोगोई के खिलाफ आरोप तय करने का कोई मामला नहीं बनता है.
जिन भाषणों के नाम पर अखिल गोगोई को महीनों जेल में रखा गया उसके बारे मे कोर्ट ने कहा कि उनमें ऐसा कुछ नहीं है. इसके बाद भी ट्विटर पर इतना लिख देने से कि त्रिपुरा जल रहा है UAPA के तहत नोटिस जारी किया जाता है.
बंगलुरू की 19 साल की अमूल्या के साथ जो हुआ, उसे ज़रा याद कीजिए. बंगलुरू की इस सभा में अमूल्या ने पाकिस्तान को ज़िंदाबाद क्या कहा, उस वक्त मंच पर ऐसी घबराहट मची जैसे धरती फट गई हो. अमूल्या लियोना नरोहना को कोई खींचने लगा तो कोई माइक छिनने लगा. अमूल्या ने हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद के भी नारे लगाए. 3 बार पाकिस्तान ज़िंदाबाद कहा और फिर तुरंत 6 बार हिन्दुस्तान ज़िंदाबाद कहा. लेकिन इसे लेकर टीवी पर भयानक डिबेट पैदा किया गया. उसके घर पर हमला हुआ. अमूल्या गिरफ्तार कर ली जाती है. चार महीने तक जेल में रहने के बाद ज़मानत मिलती है. बंगलुरू पुलिस ने 90 दिनों के भीतर चार्जशीट तक दायर नहीं की, इसलिए ज़मानत मिली.
अखिल गोगोई का मामला हो या अमूल्या का, कफील खान या दिशा रवि का, यही बार बार सामने आ रहा है कि सत्ता का मकसद एक है. जेल में डालो, गोदी मीडिया को डिबेट का टापिक दो ताकि असली मुद्दों पर बात न हो, लोगों को डिबेट में उलझाओ. हाल ही में केरल से एक मामला सामने आया है. केरल के NIA कोर्ट के जज अनिल के भास्कर ने अल्लन सुऐब और थ्वाहा फसल को UAPA के मामले में ज़मानत दे दी. इन पर कम्युनिस्ट पार्टी आऱ इंडिया माओवादी से जुड़े होने का आरोप लगा है. इसके पक्ष में NIA ने किताबें पोस्टर और बैनर पेश किए. NIA कोर्ट ने कहा कि कुछ पश्चिम घाट को बचाने और आदिवासी हितों से संबंधित नोटिस थे, रूसी क्रांति पर किताब थी, इस्लाम और मार्क्सवाद पर लेख था. चे ग्वारा और माओ की तस्वीर थी. इन सबके आधार पर UAPA लगा दिया गया? मीडिया रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि दोनों पर नोटबंदी और पुलिस अत्याचारों के खिलाफ हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लेने का आरोप था. क्या नोटबंदी के खिलाफ प्रदर्शन करेंगे तो UAPA लगा दिया जाएगा? NIA कोर्ट ने दोनों को ज़मानत दे दी. हाई कोर्ट ने रोक लगा दी तो मामला सुप्रीम कोर्ट पहुंचा और वहां ज़मानत मिल गई. सुप्रीम कोर्ट ने भी कहा कि किताब रखना या किसी से जुड़ा होना आतंकी कार्रवाई नहीं है.
यही नहीं जेल में रखने के लिए बेल आर्डर समय पर नहीं पहुंच रहे हैं. सुप्रीम कोर्ट को अब इन बातों को लेकर भी टिप्पणी करनी पड़ रही है. पता चलता है कि व्यवस्था का ढांचा कितना एकतरफा हो चुका है. इसमें नुकसान आम आदमी का है. आपके बदले बोलने वालों को चुप करा दिया जाएगा. उसके बाद अगला हमला आम नागरिक पर ही होगा. जब कोई बोलने वाला नहीं होगा तब डर कर महंगाई का सपोर्ट करना पड़ेगा. इसलिए त्रिपुरा की घटना अकेली घटना नहीं है. आस पास और हाल फिलहाल की घटनाओं पर भी ध्यान रखिए
पुलिस की कहानी को संदेह से देखा कीजिए. ऐसा करना पुलिस के लिए भी अच्छा होगा. यूपी के एटा में 22 साल के अल्ताफ की आत्महत्या को लेकर सवाल उठ रहे हैं. पूछा जा रहा है कि दो फ़ीट की ऊंचाई पर लगे नल से लटक कर कोई आत्महत्या कैसे कर सकता है. अल्ताफ़ पर पड़ोसी ने आरोप लगाया था कि बेटी को भगा ले गया है और शादी की है. दिहाड़ी मज़दूरी करने वाला अल्ताफ़ घर पर खाना खा रहा था, पड़ोसी उठा कर ले गया. परिजनों का आरोप है कि अल्ताफ़ से मिलने नहीं दिया गया और अगले दिन उसकी लाश मिलती है. पांच पुलिसकर्मी निलंबित हैं.
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