सम्पादकीय

यूएपीए पर सुनवाई

Rani Sahu
12 Nov 2021 7:41 AM GMT
यूएपीए पर सुनवाई
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कुछ वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के खिलाफ त्रिपुरा पुलिस की एक अविवेकपूर्ण कार्रवाई ने देश में नई बहस को जन्म दे दिया है

कुछ वकीलों, सामाजिक कार्यकर्ताओं और पत्रकारों के खिलाफ त्रिपुरा पुलिस की एक अविवेकपूर्ण कार्रवाई ने देश में नई बहस को जन्म दे दिया है। दरअसल, इनके खिलाफ गैरकानूनी गतिविधियां (रोकथाम) कानून, यानी यूएपीए के तहत कई धाराओं में मुकदमे दर्ज कर उसने सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों से इन सबके बारे में सूचनाएं दरियाफ्त की हैं। इस कार्रवाई के विरुद्ध और इस कानून के खिलाफ भी फरियादी अब देश की आला अदालत में पहुंच गए हैं, जहां उनकी शिकायतों को सुनने का भरोसा प्रधान न्यायाधीश ने दिया है। यह पूरा प्रकरण त्रिपुरा से सटे बांग्लादेश में दुर्गापूजा के दौरान हुई हिंसा से जुड़ा है, जिसकी प्रतिक्रिया बाद में त्रिपुरा में भी देखने को मिली। विडंबना देखिए कि दोनों जगह, दो धर्मों से जुडे़ लोगों की भूमिका बिल्कुल बदली हुई थी। दोनों के अनुयायी एक जगह पीड़ित, तो दूसरी जगह हमलावर के रूप में देखे गए। यकीनन, ऐसी वारदातें सभ्य समाज के लिए स्वीकार्य नहीं हो सकतीं और दोनों जगहों पर घटी घटनाएं पुलिस की लापरवाही और उसकी निष्पक्षता को कठघरे में खड़ी करती हैं

त्रिपुरा पुलिस की ताजा कार्रवाई का मसला चूंकि सर्वोच्च न्यायालय के सामने है, इसलिए हम इसकी तफसील में गए बिना उस प्रवृत्ति पर टिप्पणी करेंगे, जो इन दिनों देश के तमाम राज्यों की पुलिस और केंद्रीय जांच एजेंसियों के चरित्र को गहरे प्रभावित कर रही है। अपनी अक्षमता छिपाने के लिए वे धड़ल्ले से उन्हीं लोगों का शिकार करने लगी हैं, जो उनकी कार्यशैली, सांविधानिक कर्तव्यहीनता पर सवाल खड़े करते हैं, बल्कि लोक प्रहरी की भूमिका भी निभाते हैं। इसकी तस्दीक इस एक तथ्य से की जा सकती है कि इस कानून के तहत दर्ज हजारों मुकदमों में से दो प्रतिशत से भी कम मामले अदालत में ठहर पाते हैं। पुलिस मुकदमे तो दर्ज कर लेती है, मगर उसके पास ठोस सुबूत नहीं होते। साफ है, ऐसे मुकदमों के पीछे कई बार जागरूक लोगों को डराने की मंशा होती है, या फिर सत्तासीन आकाओं को प्रसन्न करने का मकसद होता है।
सुप्रीम कोर्ट पहुंचे वकील प्रशांत भूषण की इस अपील में दम है कि अदालत यूएपीए की उन धाराओं पर जरूर गौर करे, जो नागरिकों को संविधान से मिली अभिव्यक्ति की आजादी को कमतर करती हैं। इसमें कोई दोराय नहीं हो सकती कि यही वह महत्वपूर्ण अधिकार है, जो देश के नागरिकों को अपने शासकों को जिम्मेदार बनाने के लिए उनसेे सवाल पूछने, नाइत्तफाकी रखने, बल्कि मर्यादा के दायरे में उनकी तीखी आलोचना का अधिकार देता है। दुर्योग से देश में आज भी ब्रिटिश दौर के कई कानून बने हुए हैं, जबकि खुद ब्रिटिश लोकतंत्र ने अपने यहां उनसे पिंड छुड़ा लिया है। हमारी न्यायपालिका यदि मुकदमों के बोझ से हांफ रही है, तो उसमें सच्चे-झूठे मामलों का बड़ा योगदान है। वक्त आ गया है कि अब निरर्थक कानूनों से मुक्ति पाई जाए, और न्यायपालिका एक ऐसा तंत्र खड़ा करे, जो फर्जी मुकदमे दर्ज करने वाले पुलिस अफसरों को हतोत्साहित कर सके। इससे असली अपराधी तो सलाखों के पीछे भेजे जाएंगे ही, न्याय के आसन पर बैठे न्यायाधीशों को किसी को रिहा करते वक्त यह मलाल नहीं होगा कि एक निरपराध नाहक ही इतने साल जेल में रहा। लोकतंत्र और न्याय, दोनों का तकाजा है कि यूएपीए जैसे मुकदमों के साथ पुलिस की जवाबदेही भी तय हो।
हिन्दुस्तान


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