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सम्पादकीय
त्यागराज स्टेडियम और निकहत ज़रीन : भारत में खेलों की दशा और दिशा बताती दो सत्य कथाएं
Gulabi Jagat
28 May 2022 8:44 AM GMT
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आधुनिक भारत के संत स्वामी विवेकानन्द ने अभी अपने संबोधन के पहले पांच शब्द ‘अमेरिका के बहनों और भाइयों’ ही कहे
संजय वोहरा |
आधुनिक भारत के संत स्वामी विवेकानन्द ने अभी अपने संबोधन के पहले पांच शब्द 'अमेरिका के बहनों और भाइयों' ही कहे थे कि विश्व धर्म संसद कार्यक्रम में हिस्सा लेने दुनियाभर से आई संत बिरादरी और श्रोता उनके सम्मान में अपनी सीटें छोड़कर उठ खड़े हुए थे और तालियों की गड़गड़ाहट का लम्बा सिलसिला शुरू हो गया था. ये घटना 11 सितंबर 1993 की है और स्थान था भारत से हजारों मील दूर अमेरिका का शिकागो शहर. किताबों में इस वाकये का ज़िक्र करते हुए लिखा गया है कि स्वामी विवेकानंद (Swami Vivekananda) ने सम्बोधन की शुरुआत में कहे इन शब्दों से ही सबको इतना मोह लिया कि वहां मौजूद जन समूह कुर्सियों पर बैठना भूल गया और लोग लगातार खड़े खड़े दो मिनट तक तालियां बजाते रहे.
विश्व धर्म संसद की इस घटना की चर्चा दुनिया भर में हुई और वो भी तब जबकि भारत अंग्रेज़ी हुकूमत की बेड़ियों में जकड़ा हुआ था. इंसान की सेवा को सबसे बड़ा धर्म मानने वाले और भारतीय जनमानस में राष्ट्रवाद की क्रान्ति का संचार करने वाले स्वामी विवेकानंद से जुड़ी इस घटना के अलावा, उनकी कही एक और बात किसी भी क्रान्ति सन्देश से कम नहीं थी. अपने हिन्दू होने पर गर्व की बात के लिए खूब प्रचारित किये जाने वाले स्वामी विवेकानंद का बोला एक और वाक्य बेहद चर्चित है और ये वाक्य युवाओं को खेलों के प्रति प्रोत्साहित करने के लिए कहा जाता है. इस एक अन्य संबोधन में स्वामी विवेकानन्द ने कहा था कि भागवत गीता पढ़ने की बजाय फुटबाल खेलने का रास्ता हमें भगवान के ज्यादा करीब लाता है. हालांकि उनका ये मतलब कतई नहीं था कि लोग गीता पाठ न करें. बस, संदेश का अर्थ इतना है कि खेलों और शारीरिक स्वास्थ्य को प्राथमिकता देनी चाहिए. स्वामी विवेकानंद की ये सोच आज तो और भी सामयिक है.
स्टेडियम में कुत्ते संग सैर करते आईएएस संजीव खिरवार
खेलों को लेकर एक राष्ट्रवादी संत के वक्तव्य तकरीबन सवा सौ साल पुराने इस विचार का ख्याल हमेशा तब तब भी आता है जब जब समाज को व्यायाम और सेहत की अहमियत समझने और समझाने की बारी आती है. लेकिन हाल ही में भारतीय खेल जगत से जुड़ी दो घटनाएं विवाद का कारण बनीं हैं और खेलों के अफसोसनाक पहलू उजागर करती हैं. देश की राजधानी दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम में, भारतीय प्रशासनिक सेवा के वरिष्ठ और बेहद तजुर्बेकार अधिकारी संजीव खिरवार और उनकी बैचमेट आईएएस पत्नी रिंकु दुग्गा का अपने कुत्ते के साथ ट्रैक पर सैर करना सच में हैरानी पैदा करता है. ऐसा भी नहीं है कि ये एकाध बार या इत्तेफाकन हुआ हो. ये सिलसिला लगातार चल रहा था. इतना ही नहीं बाबुओं और उनके कुत्ते की इस सैर की खातिर, न जाने कितने खेल मुकाबलों की मेहनत से ट्रेनिंग कर रहे एथलीटों को मायूस होकर पूरी प्रेक्टिस किए बिना स्टेडियम से रोज़ाना रुखसत होना पड़ रहा था, क्योंकि गार्ड रोज़ाना उनसे स्टेडियम खाली करवा लेते थे.
ये वाकया हमारे उस सिस्टम के एक अलग मानसिक दिवालियेपन की स्थिति को भी उजागर करता है जिसे चलाने वाले न तो तर्कशील हैं और न संवेदनशील हैं. अजीब बात तो ये भी है कि दिल्ली के प्रमुख सचिव (राजस्व) जैसे अहम ओहदे पर विराजमान संजीव खिरवार और दिल्ली में ही एक अन्य अहम ओहदे पर तैनात उनकी पत्नी रिंकु दुग्गा देश के अलग अलग हिस्सों में और तरह तरह के प्रोफाइल पर काम करने का अनुभव रखने के बाद भी ऐसी संवेदनहीनता का प्रदर्शन कर रहे हों, तो नए नए बने अधिकारियों से किस तरह के सोच व व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है. हालांकि इस आईएएस दम्पति के व्यवहार को लेकर सज़ा के तौर गृह मंत्रालय ने उनके तबादले कर डाले हैं.
संजीव खिरवार को चीन के सीमावर्ती केंद्र शासित क्षेत्र लदाख और उनकी पत्नी रिंकु को भी चीन सीमा से सटे दूसरे केन्द्रशासित राज्य अरुणाचल प्रदेश भेज कर उनके बीच तकरीबन साढ़े तीन हज़ार किलोमीटर का फासला बना दिया गया है. यूं तो ये रूटीन के तबादले जैसा ही कहलाएगा और कुछ समय बाद संभवत कैडर और सेवा नियम आदि के दबाव के बाद इनकी स्थिति कुछ आरामदायक हो जाए. मीडिया में इस घटना के उजागर होने के बाद जहां जांच और तबादले हुए वहां ये भी कहा जा रहा है कि ये आईएएस दम्पत्ति तय कार्यकाल से ज्यादा अरसा दिल्ली में गुज़ार चुके हैं, लेकिन रसूख या अन्य कारणों से यहां बने रहे यह जांच का विषय है.
फैसले लेने में लकीर का फ़कीर तंत्र
दिल्ली के त्यागराज स्टेडियम की ये घटना शासन तंत्र की पोल पट्टी भी खोलती है, जो लकीर के फ़कीर की तरह काम कर रहा है. मई जून के महीने में दिल्ली की 40 डिग्री से ज्यादा भीषण गर्मी में भला दोपहर में स्टेडियम में कितनी प्रैक्टिस संभव है. शाम को थोड़ी सी ठंडक की शुरुआत होते ही जब खिलाड़ी की स्थिति ट्रैक पर उतरने लायक होती है, तब समय सीमा और नियमों का हवाला देकर उसे बंद कर देना कहां की अकलमंदी हैं. हालांकि इस पहलू के सामने आने के बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने राजधानी के सभी स्टेडियम गर्मियों में रात 10 बजे तक खोले रखने के आदेश दे दिए हैं. इन स्टेडियम और खेल परिसरों में खेलने के लिए आने वाले बहुत से पेशेवर और बहुत से शौकिया खिलाड़ी भी हैं. इनमें से काफी ऐसे हैं जो पढ़ाई या नौकरी आदि करते हैं और दोपहर बाद ही खेलने या प्रेक्टिस के लिए समय निकाल पाते हैं.
लेकिन हैरानी की बात है कि त्यागराज स्टेडियम प्रशासन हो या अन्य ऐसे परिसरों के उच्च प्रबंधन को ये व्यावहारिक मुश्किलें क्यों दिखाई नहीं देती. हाल ही की सर्दियों तक में जम्मू कश्मीर में पूंछ ज़िले के स्टेडियम में इस लेखक का जाना हुआ था, लेकिन वहां तब भी रात 9 बजे तक भी खेल गतिविधियां चालू थीं. यानि स्टेडियम और खेल प्रबन्धन को लेकर भारत में कोई एक नीति नहीं है और राजनीतिक रूप से खेल राज्य का विषय भी है लिहाज़ा राज्यों को अपने अपने हालात, मौसम और ज़रूरतों के हिसाब से इस सम्बन्ध में नीतियां, नियम-कायदे बनाने और बदलने का अख्तियार भी है. लेकिन खेल की भावना और खेल के बेहतर नतीजों को हासिल करने में जब नियम कायदे रोड़ा बन रहे हों तो उनको फ़ौरन पता लगाकर बदला क्यों न जाए. क्या हमारा सिस्टम इसके लिए ऐसी घटनाओं का इंतज़ार करता रहेगा जो बदनामी, कटुता और विवाद पैदा करे.
भारत में खेलों पर खर्च
सरकार ने एक तरफ तो भारत में खेल विकास के लिए राष्ट्रीय कार्यक्रम – 'खेलो इंडिया' योजना को पांच साल और बढ़ा दिया. इस योजना के लिए 15 वें वित् आयोग चक्र (2021-22 से 20-25-26) के लिये 3165 करोड़ रुपये की रूप रेखा तैयार की गई. राष्ट्रीय खेल फेडरेशनों की वित्तीय सहायता योजना के लिए 1575 करोड़ रुपये का प्रावधान भी कर डाला. साथ ही वित्तीय वर्ष 2022-23 के बजट में खेलों पर खर्च करने के लिए धनराशि में 48% के इजाफे का ऐलान भी किया. लेकिन खेल संस्कृति की तरक्की के लिए क्या सिर्फ ऐसे कदम ही पर्याप्त हैं? अकेले खिलाड़ी के प्रदर्शन के दम पर ही क्या ऐसी खेल संस्कृति को बढ़ावा मिल सकेगा, जो ओलंपिक या ऐसे अन्तर्राष्ट्रीय मुकाबलों में भारत को सम्मानजनक स्थान दिला सके. पिछले 2021 टोक्यो में हुए ओलम्पिक मुकाबलों में भारत ने 7 मेडल जीते थे जो ओलम्पिक खेलों के रिकॉर्ड में भारत का अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन है. बावजूद इसके भारत की 138 करोड़ की आबादी वाले ऐसे देश के लिए ये शर्मनाक स्थिति है जहां हर तरह की भौगौलिक परिस्थिति, प्राकृतिक संसाधन, विभिन्न मौसम और खान पान की वस्तुएं उपलब्ध हैं. ये भी समय समय पर साबित हुआ है कि यहां मेहनतकश खेल प्रतिभाओं की कमी नहीं है.
बॉक्सर चैम्प निकहत ज़रीन को शाबाशी में कंजूसी
निकहत ज़रीन इसकी ताज़ा मिसाल हैं. कुछ दिन पहले तक लगभग गुमनाम सी रही तेलंगाना के निज़ामाबाद शहर की 25 साल की इस प्रतिभावान बॉक्सर निकहत ज़रीन ने सबको हैरान कर डाला. विश्व महिला बॉक्सिंग चैम्पियनशिप में विजयश्री हासिल करके भारत के लिए गोल्ड मेडल जीतने वाली इस लड़की ने 19 मई 2022 को इस्तांबुल से खुशखबरी दी. इस विश्व बॉक्सिंग चैम्पियनशिप को जीतने वाली निकहत ज़रीन सिर्फ पांचवीं महिला हैं. प्रधानमन्त्री से लेकर राष्ट्रपति और कई सेलेब्रिटीज व खिलाड़ियों ने निकहत ज़रीन को इसके लिए बधाई दी है. ये बड़ी उपलब्धि है लेकिन जिस तरह की प्रतिक्रियाएं सोशल मीडिया या प्रचार तंत्र में आ रही हैं उससे तो इशारा मिलता है कि इस भारत के लिए नाम कमाने के इस शानदार अवसर को उस तरह से सेलिब्रेट नहीं किया जा रहा जैसा कि पिछले साल भर में विभिन्न अवसरों पर देखा गया. चाहे इनाम की धनराशि की घोषणा हो या अन्य ज़रिए से शाबाशी देने का तरीका हो, इन दोंनों ही पहलुओं को विवाद के फ़िल्टर से देखा जा रहा है.
निकहत को मिलने वाले या कहा जाए कि न मिलने वाले इनामों की तुलना बैडमिंटन चैंपियन पीवी सिंधु की ओलंपिक जीत से भी की जा रही है. पिछले साल ओलंपिक में दो मेडल जीतने वाली सिंधु पर सरकारों ने इनामों की बौछार सी कर डाली थी. यूं तो प्रतिभाएं अपनी कामयाबी के लिए किसी शाबाशी की मोहताज नहीं होतीं, लेकिन ये उनके आत्मबल में इजाफा ज़रूर करती हैं. इसमें कोई शक ही नहीं कि शाबाशी देने के मामले में निकहत ज़रीन के साथ सरकारों के स्तर पर कंजूसी दिखाई दे रही है. कुछ ऐसा ही बर्ताव पिछले साल ओलम्पिक गई हॉकी टीम के साथ देखने को मिला था. महिला और पुरुष हॉकी टीम को महज़ ओडिशा की नवीन पटनायक सरकार ने ही आर्थिक सहारा दिया था. जब तक मेडल की आस नहीं बनी तब तक किसी ने इन टीमों की खबर तक नहीं ली, जबकि बाजारवाद और सरकारी सिस्टम के प्रोत्साहन ने भारत में क्रिकेट को कहां से कहां पहुंचा दिया.
अगर खेलों में प्रोत्साहन, जीत और उपलब्धियों को जोश खरोश से मनाने के फैसलों और गतिविधियों को सियासी, क्षेत्रीय, मज़हबी और भेद भाव के चश्मों से देखा जाएगा तो ये न सिर्फ खिलाड़ियों और खेल भावना के प्रति अत्याचार होगा बल्कि खेलों में भारत को उसका असल मुकाम दिलाने के सपने में भी बाधा होगी. इस सपने का ज़िक्र खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी समय समय पर करते रहते हैं. तीन महीने पहले ही गुजरात में खेलों के सालाना महाकुंभ के उद्घाटन के मौके पर भी उन्होंने भारत को खेल शक्ति बनाने की बात दोहराई थी. यहां सवाल उठते हैं कि क्या त्यागराज स्टेडियम जैसी घटनाओं को अंजाम देने वाले, निकहत ज़रीन और हॉकी की तरह खेलों-खिलाड़ियों से सम्मान में भेदभाव करने वाले तंत्र के बूते पर खेलों की दुनिया में कोई भारत कोई ख़ास जगह बना पाएगा.
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं, आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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