सम्पादकीय

'दो समाज' तो नियति हैं

Gulabi
19 Nov 2021 4:25 AM GMT
दो समाज तो नियति हैं
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बेशक हम ‘दो भारत’ के निवासी और नागरिक हैं

दिव्याहिमाचल.

बेशक हम 'दो भारत' के निवासी और नागरिक हैं। एक भारत गांव में बसता है, तो दूसरा भारत शहरी है। एक भारत गरीब या गरीबी रेखा के तले जी रहा है, तो दूसरा करोड़पति, अरबपति है। एक भारत शिक्षित, वैज्ञानिक, डॉक्टर, इंजीनियर है, तो दूसरा भारत आज भी निरक्षर और आदिवासी है। ये विरोधाभास जीवन और समाज के यथार्थ हैं। आदिकाल से ये विरोधाभास मानव को वर्गीकृत करते आए हैं। अवतारी महापुरुषों के कालखंड और राज्यों में भी कई वर्ग होते थे। राजशाही, सामंती, सूबेदार, ज़मींदार और आम आदमी के अलावा आसुरी प्रवृत्तियों वाले और शबरी, निषाद, भेड़-बकरी चराने वाले होते थे। समाज जमातों में बंटा रहा है। एक शासक है, तो दूसरा शासित और शोषित भी है। समाज समान और समतल नहीं हो सकता। दुनिया की सुपर पॉवर और सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था वाले देश अमरीका में भी गोरे, काले, गरीब, पिछड़े हैं। वहां आज भी नस्लभेद और रंगभेद की घटनाएं होती हैं।

हालांकि वह सबसे पुराना लोकतांत्रिक देश है और अश्वेत भी राष्ट्रपति चुना जा सकता है। भारत भी सबसे व्यापक लोकतंत्र है और आज विश्व की सर्वोच्च अर्थव्यवस्था वाले देशों में शुमार है। भारत में आज भी सपेरे, मदारी, लुटेरे और झुग्गी-झोंपड़ी वाले हैं, आज भी गोबर और उपलों वाली जमात है, लेकिन अंतरिक्ष में भी भारत है। सबसे ज्यादा उपग्रह ले जाने वाला देश भी भारत ही है। मंगल और चांद सरीखे ग्रहों तक उसने मंजि़लें तय की हैं और मानव-जीवन की संभावनाओं को लगातार खंगाल रहा है। बहुत कुछ ऐसा है, जो लगातार बदल रहा है। पाषाणकाल, आदिकाल और मध्यकाल से लेकर आज तक मनुष्य ने ही सभ्यताओं को जन्म दिया है और संस्कृतियों को स्थापित किया है। मनुष्य ने ही हवाई जहाज, लड़ाकू जेट से लेकर लंबी-चौड़ी रेलगाडि़यां भी बनाई हैं और नदियों के पानी को बांध कर बांध बनाए हैं, जिनसे असंख्य मेगावाट बिजली पैदा की जा रही है। 'दो समाज' तो विश्व की नियति रहे हैं। उन पर क्या कॉमेडी करोगे? यह तो सोच और दृष्टि का फर्क है। व्यंग्य, कॉमेडी, स्वच्छंदता और देश-निंदा में गहरे अंतर हैं। 'दो समाज' अब करीब आ रहे हैं। मानवीय सभ्यता जागरूक और विकसित हो रही है, लिहाजा एक दिन 'दो समाज' समान होंगे। अछूत होने की भावना और नफरत तो लगभग समाप्त हो चुकी है। सभी वर्णों और वर्गों के लोग साथ-साथ काम कर रहे हैं। यह भी आस्था का यथार्थ है कि आज भी भारत में ऐसे पर्व मनाए जाते हैं, जब कन्याओं की पूजा की जाती है। स्त्री के बिना सभी यज्ञ अधूरे हैं, लेकिन अपराध पाषाणकाल में भी था और आज भी है। अब मनुष्य के हाथ में कानून का हथियार भी है। यह व्यक्ति के मनोविकारों और मानसिकता का सवाल है।


बलात्कार और हत्याएं अमरीका और यूरोप जैसे विकसित देशों में भी किए जा रहे हैं। अमरीका में एक लाख आबादी के पीछे औसतन 36 बलात्कार किए जाते हैं, जबकि भारत में यह औसत 5.7 है। यह समाज का सांस्कृतिक और समग्र व्यवहार नहीं है। यह पाशविक है, लिहाजा जघन्य अपराध है, देश का औसत चरित्र नहीं है। हास्य अभिनेता वीर दास को जरा कॉमेडी का काव्यशास्त्रीय अध्ययन कर लेना चाहिए। उन्होंने अमरीकी मंच पर जाकर 'दो भारत' की जो बात कही है, वह अधूरी, अज्ञान सम्मत और कुंठित विचार है। उन्हें कॉमेडियन कहकर कॉमेडी का अपमान करना है। कॉमेडी में जुगुप्सा का कोई स्थान नहीं है। वह हंसाती है, गुदगुदाती है, लेकिन रुला भी देती है। जरा हरिशंकर परसाई, शरद जोशी सरीखे गंभीर व्यंग्यकारों को पढि़ए वीर दास जी! जरा एक बार फिर गंभीरता से महमूद, जॉनी वाकर, मुकरी, भगवान आदि हास्य अभिनेताओं की कॉमेडी भी देख लीजिए। हम न तो इसे देशद्रोह मानते हैं और न ही गंभीर चिंता का मुद्दा मानते हैं, क्योंकि अमरीका जानता है कि आज भारत उसके लिए कितना गंभीर और रणनीतिक साझेदार है। हम इसे अभिव्यक्ति की आज़ादी के बजाय स्वच्छंदता मानते हैं, फिर भी नजरअंदाज़ करने का सुझाव देते हैं, क्योंकि अमरीका भी ऐसे विदूषकों को गंभीरता से नहीं लेता। वीर दास की तालीनुमा कॉमेडी पर कांग्रेस नेता क्या सोचते हैं और क्या प्रतिक्रिया देते हैं, इसकी भी परवाह नहीं करनी चाहिए, क्योंकि देश उनका एकसूत्रीय एजेंडा जान चुका है। हम इतना जरू


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