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आदित्य चोपड़ा | ट्विटर और केन्द्र सरकार में जो युद्ध चल रहा है उसका महत्वपूर्ण आयाम यह है कि इस अन्तर्राष्ट्रीय कम्पनी की भारत में हैसियत एक डाकिये (इंटरमीडियेरी) की है अथवा कातिब (लेखक) की। जाहिर है कि कानून व सूचना प्रौद्योगिकी मन्त्री श्री रवि शंकर प्रसाद का यह कहना कि ट्विटर ने भारत सरकार द्वारा बनाये गये नियमों का पालन न करने की वजह से अपना बिचौलिये संवाहक का दर्जा खो दिया है और अब उस पर ट्विटर पर लिखे गये संदेशों की जिम्मेदारी आ गई है। सरकार ने कानून बना कर यह लाजिमी किया था कि डाकिये की भूमिका निभा रही ट्वीटर कम्पनी को अपने संस्थान में एक 'मानक अफसर' (कम्पलायंस आफिसर ) की नियुक्ति 26 मई तक करनी होगी और साथ ही अपना कार्यालय भारत में खोल कर दो जिम्मेदार अधिकारियों की नियुक्ति भी करनी होगी। ऐसा इसलिए जरूरी है जिससे भारत की परिस्थितियों और इसकी संस्कृति व सामाजिक मानकों के अनुसार ट्विटर पर आम लोग अपने विचार व्यक्त कर सकें।ट्विटर और केन्द्र सरकार में जो युद्ध चल रहा है
भारत में अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार मूल नागरिक अधिकारों में शामिल होता है अतः कोई भी नागरिक अपने विचार व्यक्त करने के लिए स्वतन्त्र है, बशर्ते उनसे किसी प्रकार के सामाजिक द्वेष या हिंसा को बढ़ावा न मिले। ऐसे ट्वीटों को आगे बढ़ाने से रोकने के लिए मानक अफसर की नियुक्ति आवश्यक होगी। बात में वजन है और तर्क भी है और जिम्मेदारी का सवाल भी है। लोकतन्त्र में बिना जिम्मेदारी के कोई अधिकार नहीं होता है और भारतीय संविधान अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता का अधिकार निरापद रूप में भी नहीं देता है। अतः समाज में विग्रह या कलह अथवा हिंसा या द्वेष को फैलाने वाले ट्वीटों का तुरत-फुरत प्रसार नियन्त्रित करने की जरूरत संवैधानिक दायरे में आती है। मगर यह जरूरत इतनी भी है कि समाज की वास्तविक स्थिति देश के सामने ही न आ सके। खास कर पत्रकारों व एक हद तक आम आदमी की भी यह जिम्मेदारी बनती है कि वह हकीकत को सामने लाये। पत्रकारिता धर्म निभाते हुए वस्तु स्थिति को प्रकट करना और समाज को सचेत व आघाह करना पत्रकार का मूल कर्त्तव्य होता है। उसके इस कर्म से समाज सुशिक्षित व सभ्य बनता है।
वैज्ञानिक विचारों का प्रचार-प्रसार प्रत्येक नागरिक का कर्त्तव्य होता है जैसा कि संविधान का निर्देश है। अतः इस मामले में हमें राष्ट्र विरोधी कार्रवाइयों या ट्वीटों को छोड़ कर वस्तुपरक नजरिया अपनाना पड़ेगा और तय करना पड़ेगा कि भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतन्त्र है। मगर ट्विटर को हम न्यायिक हैसियत में भी नहीं रख सकते क्योंकि वह मात्र लोगों के विचारों को प्रकट करने का एक जरिया है। अब उससे यह रुतबा छीना जा रहा है और जिम्मेदारी दी जा रही है कि आपत्तिमूलक ट्वीटों के प्रति वह जवाबदेह हो। कुछ लोग तर्क देते हैं कि सरकार ट्विटर पर प्रतिबन्ध क्यों नहीं लगा देती। हमें यह देखना चाहिए कि किन और कैसे देशों ने ट्विटर पर पाबन्दी लगाई है। इनमें चीन, ईरान, तुर्कमेनिस्तान व नाइजीरिया जैसे देश शामिल हैं जिनका समाज पूरी तरह तंग मिजाजी का शिकार है जबकि भारत ने जी-7 देशों के सम्मेलन में दो दिन पहले ही कसम खाई है कि वह दुनिया भर में समाज को उदार रुख व खुला बनाने और लोकतन्त्रिक भावना को बढ़ाने में प्रमुख भूमिका निभायेगा। इसलिए प्रतिबन्ध की बात सरकार सोच भी नहीं सकती है। एेसा करके विश्व के मंचों पर वह अपने रुतबे पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगवा सकती। अतः सवाल केवल ट्विटर के भारतीय कानूनों के तहत काम करने का है।
ट्विटर को अपने मानक अधिकारी के माध्यम से किये गये ट्वीटों की समीक्षा करनी होगी और जानना होगा कि ये भारत के संवैधानिक दायरे में प्रदत्त अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता के घेरे में आते हैं या नहीं। लोकतन्त्र में सत्ता से ही सवाल पूछे जाते हैं तभी इसमें पूरे देश की भागीदारी होती है। इसी वजह से हमारी संसदीय प्रणाली में विपक्ष की भूमिका को अत्यन्त महत्व दिया गया है। जब सरकार विपक्ष को सहमत कर लेती है तो उसे आम सहमति या सर्वसम्मति कहा जाता है परन्तु ट्विटर के मामले में सरकार की नीयत पर किसी प्रकार का शक पैदा न हो इसके लिए विभिन्न राज्य सरकारों को भी पारदर्शी नीतियां बनानी पड़ेंगी क्योंकि कानून- व्यवस्था राज्यों का विषय है। सोशल मीडिया के जमाने में न तो राज्यों की सीमाएं होती हैं और न ही देशाें की। अतः हमें यह भी देखना होगा कि भारत विरोधी या भारत के हितों को नुकसान पहुंचाने वाले ट्वीट किसी भी तरह वायरल न हों। यह जिम्मेदारी तो ट्विटर को लेनी ही पड़ेगी जिसकी वजह से सरकार ने सूचना प्रौद्योगिकी कानूनों में संशोधन किया है। अपने 'डाकिये' का रुतबा बचाने के लिए उसे भारत के कानूनों का पालन करना ही होगा।