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By: divyahimachal
हिमाचल की राजनीति भी आहिस्ता-आहिस्ता राष्ट्र के सियासी जूते में पांव फंसा रही है या यहां भी सियासत का अपना पूंजीवादी गठबंधन बन रहा है। जिस तरह की चुनाव प्रणाली विकसित हो रही है, उसमें सियासी अस्तित्व के लिए वित्तीय व्यवस्था का सारा तामझाम नई सरमायादारी पैदा कर चुका है। किसी भी चुनाव की सारी सीमाएं व्यय के अंधे कुएं तक पहुंच रही हैं, तो सियासी सीढिय़ों पर चढऩे के लिए एक खजाना या असीमित धन की जरूरत आन पड़ी है। राजनीति के लिए अब जन बाद में, पहले धन आ रहा है और इसीलिए सरकारों का चरित्र बिदक रहा है। कहने को हिमाचल के अस्तित्व को अक्षुण्ण बनाने के लिए हमने बेहतरीन कायदे-कानून बना लिए, लेकिन कार्यान्वयन की मिट्टी पैदा नहीं कर पाए। इसकी वजह यही पूंजीवाद है, जो समाज को राजनीति के समानांतर कमजोर कर रहा है या एक मजबूत गलबहियों में सियासत का अपना व्यापार व दारोमदार दिखाई देता है। ऐसा क्यों संभव हो रहा है कि शिक्षा के सरकारी प्रसार की आंखों के सामने निजी संस्थानों के पौ बारह हो रहे हैं। जब से हिमाचल का चिकित्सा विभाग, मेडिकल कालेजों की ईंटें चुनने लगा है, आम जनता का इलाज प्राइवेट अस्पतालों में होने लगा है। राजनीति के प्रशंसक एवं प्रवर्तक तो पहले भी व्यापार जगत में होते थे, लेकिन तब ये विचारधारा के लिए निवेश करते थे। अब सियासत किसी विचारधारा से पोषित नहीं, बल्कि पार्टियों के हाशिए विपक्षी दलों से हाथ मिला रहे हैं।
राजनीति अब ओढऩे के बजाय जोड़तोड़ की शक्ति है, जहां हर कोई नेता बनना चाहता है या हर नेता इतना कमा कर रखना चाहता है ताकि चुनावी निवेश में वह कमजोर साबित न हो। इस तरह की एक बहस का प्रदर्शन इस बार हिमाचल विधानसभा के मानसून सत्र में भी हुआ, जब एक विधायक ने अपनी बिरादरी को कमाने के लिए असीमित क्षेत्रों के इस्तेमाल का नैतिक सहारा दिया। यानी राजनेताओं द्वारा इस तरह का व्यवसाय अपनाना ऐसा पेशेवर प्रदर्शन है, जहां राजनीति का यह स्वरूप आदर्श व नैतिक है। ऐसे में सत्ता के दम पर राजनीति की तरक्की का हर चेहरा मान्य है और यह देखने को मिल रहा है। हिमाचल में पिछले तीन दशकों से फैल रहे निजी क्षेत्र में ऐसे धंधे फल फूल रहे हैं, जो या तो राज्याश्रित हैं या जिनकी अनुमति प्राप्त करना सामान्य प्रक्रिया नहीं है। मसलन सफल ठेकेदारी, खनन के पट्टे पर क्रशर चलाने की अनुमति, कालेज या प्रोफेशनल शिक्षा संस्थान, पहाड़ छीलने या टीसीपी एक्ट की अंग भंग स्थिति, सरकारी आपूर्तियां तथा नए व्यवसायों की फेहरिस्त में राजनीति की जेब भरती हुई क्यों प्रतीत होती। हद तब होती है जब सत्ता के कार्यक्रमों में लगने वाले शामियाने तक एक तरह की कर वसूली कर जाते हैं। जाहिर तौर पर इससे जनता के स्वभाव व राजनीतिक तंत्र के आगाज में ‘खुला खेल फर्रुखाबादी’ हो रहा है। यह दो तरफा लाभकारी व्यवसाय है, जहां राजनीतिक संगत में समाज चलने लगा है या समाज को मु_ी में बंद करके रखने ेकी सियासत पर राजकोष जल रहा है।
जिस तरह पेपर लीक की बदनामी में हिमाचल की काबिलीयत गौण हुई, उससे अब कई युवा वाया राजनीति अपने लिए रोजगार ढूंढ रहे हैं। पंचायती निकाय चुनावों में यह देखा गया कि जो युवा करियर बनाने के लिए खून पसीना एक कर रहे थे, वे सभी चुनाव की किश्ती में बैठकर बेरोजगारी के भंवर से बाहर निकलने के लिए, इसी पर भरोसा करने लगे हैं। इन परिस्थितियों में हिमाचल के समाज का गठन ऐसी सियासत पर निर्भर कर रहा है, जो सत्ता में आते ही उनके लिए राहत का कालीन बिछा दे। यही वजह है कि हिमाचल की सत्ता पर कर्मचारी सियासत भारी पड़ रही है या प्रदेश हित में उठाए जाने वाले कदमों के बजाय सार्वजनिक खजाने को बर्बाद करने की मुनादी पिछले कुछ दशकों से हो रही है। राजनीति से सामाजिक भाईचारा इस कद्र है कि टीसीपी जैसे कानून, अतिक्रमण जैसे अपराध और सरकारी धन के दुरुपयोग के मामलों पर सरकारों ने आंख और कान पूरी तरह बंद कर रखे हैं। यही वजह भी है कि सामाजिक व राजनीतिक तंत्र का गठजोड़ जनप्रतिनिधि चुनने में आपसी घालमेल कर रहे हैं।
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