सम्पादकीय

वेतन घटाने की सिफारिश तुगलकी फरमान

Gulabi
10 Sep 2021 5:15 AM GMT
वेतन घटाने की सिफारिश तुगलकी फरमान
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महंगाई का क्या स्तर है और मांग व आपूर्ति का क्या संतुलन है

संपादक महोदय, श्री विनोद प्रकाश गुप्ता जी के पत्र का मैं सम्मान करता हूं। उनका कहना है कि सरकारी कर्मियों के वेतन हज़ारों पैरामीटरों को ध्यान में रख कर निर्धारित किए जाते हैं। मैंने वेतन आयोगों की रपटों को देखा है। इन्होंने मुख्यत: सरकारी कर्मियों के उत्तम जीवनयापन के लिए जरूरी रकम की संस्तुति की है। दूसरे देशों के अनुभव विशेषकर वियतनाम एवं चीन के अनुभवों को नहीं देखा है। इन्होंने यह भी नहीं देखा है कि सामान्य मजदूर की तुलना में सरकारी कर्मियों को कितना वेतन मिलता है। वेतन आयोगों के सदस्य सरकारी कर्मी होते हैं और अपने स्वार्थ के लिए ऊंचे वेतन की संस्तुति करते हैं। वेतन आयोग अंतिम निर्णायक नहीं होता है। इनकी रपटों को निरस्त करना चाहिए। दूसरे आपने कहा है कि 14 करोड़ कर्मचारी क्या कोई भी सरकार भर्ती कर सकती है? उत्तर है, हां। इसमें व्यवधान क्या है? तीसरे आपका कहना है कि राष्ट्रपति का वेतन 70000 रुपए रह जाएगा। यह सही है। ऐसा ही होना चाहिए। चौथे आपका कहना है कि श्रेणी चार वाले को 2000/3000 मिलेंगे। इस पर अवश्य विचार करना चाहिए। मूल बात है कि वियतनाम एवं चीन से सीखना चाहिए। आम आदमी की सेवा के लिए नियुक्त किए गए सरकारी कर्मी आम आदमी का शोषण कर रहे हैं। इसे बंद करना चाहिए।


-भरत झुनझुनवाला

'कर्मी संख्या बढ़ाओ, वेतन घटाओ', दिव्य हिमाचल (31 अगस्त 2021) का नया नारा माननीय भरत झुनझुनवाला ने प्रतिपादित किया है जिसका सार है कि सरकार को वर्तमान सरकारी कर्मियों (भारतीय केंद्रीय कर्मचारियों) के वेतन में सात गुणा कटौती कर देनी चाहिए, जैसे एक कर्मचारी जिसे सत्तर हज़ार मिलते हों तो उसका वेतन मात्र दस हज़ार रुपए कर देना चाहिए। इससे बहुत रकम बचेगी जिससे सरकारी कर्मचारियों की संख्या बढ़ाई जा सकती है। यदि वर्तमान में दो करोड़ कर्मचारी हैं तो अतिरिक्त 12 करोड़ कर्मचारियों को भर्ती किया जा सकता है। उन्होंने आदेशात्मक कहा कि भर्ती किए जाएं। उन्होंने आगे कहा कि इससे दो विसंगतियां दूर हो जाएंगी। एक, हमारे कर्मचारियों का वेतन दूसरे तीव्र विकास करने वाले देशों के समतुल्य हो जाएगा और दूसरे, सरकार के पास 14 करोड़ कर्मियों की एक नई फौज तैयार हो जाएगी जिससे कल्याण और आर्थिक विकास के कार्य संपादित हो सकेंगे।

लेखक का मानना है कि हमारा संविधान एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना करता है। यह अपेक्षा है कि सरकारी कर्मचारी अपने कत्र्तव्यों का पालन निष्ठा से करें ताकि देश का आर्थिक विकास हो और जन कल्याण का लक्ष्य प्राप्त हो सके। अगर सरकारी कर्मचारियों को इतना अधिक वेतन देने लगें कि विकास और जन कल्याण दोनों ठप्प हो जाएं तो हम संविधान की भावनाओं का अनादर करेंगे। इससे सरकारी कर्मचारियों का कल्याण प्रथम तथा जन कल्याण गौण हो जाता है। अपनी सोच के लिए लेखक ने उद्धृत की एक रिपोर्ट जिसे विश्व बैंक ने सम्पन्न करवाया है: 'विश्व परिप्रेक्ष्य में सरकारी वेतनÓ के अंतर्गत। प्रत्येक देश की औसत आय 100 मान कर, यह देखा गया कि सरकारी वेतन औसत आय से कितना कम या अधिक है। वियतनाम के कर्मचारियों का वेतन नागरिकों की औसत आय से 90 फीसदी अधिक है, चीन के कर्मचारियों का 110 फीसदी और भारत के कर्मचारियों का 700 फीसदी अधिक है। यह स्टडी इस बात का आकलन नहीं करती कि अर्थव्यवस्था की हालत क्या है, महंगाई का क्या स्तर है और मांग व आपूर्ति का क्या संतुलन है। वेतनमानों को निर्धारित करते समय ये सब तथ्य वेतन आयोग देखते हैं तथा वेतन आयोग विभिन्न देशों में दिए जाने वाले सरकारी कर्मचारियों के वेतनमानों का भी गहराई से अध्ययन करते हैं।

वेतन आयोग की सिफारिशों को संसद के समक्ष रखा जाता है जिस पर विस्तृत चर्चा के बाद उचित संशोधनों के साथ सिफारिशों को पारित किया जाता है। प्रत्येक 10 वर्ष में वेतन आयोग गठित होता है। मैं यहां झुनझुनवाला जी के लेख से कुछ पंक्तियां उद्धृत करना चाहूंगा, जिसे उन्होंने माना पर लेख में संज्ञान नहीं लिया। 'इतना सही है कि वियतनाम व चीन के नागरिक का औसत वेतन आज भारत की तुलना में अधिक हैÓ। उन्होंने ये तथ्य दरकिनार कर यही सिद्ध करने का प्रयास किया कि जहां वियतनाम व चीन में तेज़ी से विकास हो रहा है, भारत में उतना नहीं जिससे आभास मिलता है कि सरकारी खपत का ज़्यादा हिस्सा सरकारी कर्मचारियों पर खर्च हो रहा है, जो सत्य नहीं है। अगर ये सत्य है तो वे 12 करोड़ कर्मचारियों को भर्ती करने की सिफारिश न करते। सरकारी खपत का दूसरा शिगूफा भी उन्होंने उद्धृत किया। बताते हैं कि वैश्विक स्तर पर सरकारी खपत कम हो रही है जबकि भारत में बढ़ी है। उनके अपने आंकड़ों के अनुसार विश्व में सरकारी खपत पहले 2009 में 18 फीसदी थी जो 2014 में घट कर 17.2 व वर्ष 2019 में 17.1 पर आ गई है। आज वैश्विक सरकारी खपत 17.1 फीसदी है जिसकी तुलना में भारत में सरकारी खपत 2014 में 10.4 फीसदी से बढ़ कर केवल 2020 में 12.6 फीसदी हुई है, जो वैश्विक स्तर से कहीं नीचे है। वे ये भी मानते हैं कि सभी देशों में सरकारी कर्मचारियों की नियुक्ति अधिक संख्या में की गई है तो फिर प्रोब्लम क्या है? यही तो माननीय सिफारिश कर रहे हैं, पर वेतन घटा कर।

अब लीजिए कर्मचारियों की प्रति लाख नागरिकों पर उपलब्धतता, भारत में प्रति लाख नागरिकों के पीछे केवल 139 कर्मी हैं (12.6 फीसदी सरकारी खपत के मुकाबले), जबकि अमेरिका में (17.1 फीसदी सरकारी खपत के मुकाबले) 668 कर्मी नियुक्त हैं। माननीय ये तथ्य दरबदर कर इस बात से परेशान हैं कि भारत में 12.6 फीसदी पर सरकारी खपत क्यों बढ़ रही है। जबकि मानते हैं कि कोविड के काल में सभी कर्मियों के वेतन में 3.6 फीसदी की गिरावट आई है व असंगठित क्षेत्र के कर्मचारियों के वेतन में 22.6 फीसदी की गिरावट आई है। उनके अनुसार जहां सरकारी खपत में वृद्धि हो रही है, वहीं नागरिकों की आय घट रही है। मैं यहां प्रश्न उठाना चाहूंगा कि सरकारी खपत में कई कारणों से वृद्धि हुई है और कोविड काल में तो समूचा परिदृश्य बदल गया है। सरकारी खपत के आंकड़े वर्ष 2020 के हैं, इसके बाद तो नागरिकों की आय धरातल की ओर गिरी है, जबकि सरकारी खर्चे, वेतनों पर नहीं, सरकार की ओर से विभिन्न कल्याणकारी मदों पर बढ़े हैं और बढ़ रहे हैं। लेखक के ध्यान से छूट गया कि सरकारी कर्मचारियों का पूरा डीए फ्रीज कर दिया गया और अनुमान के अनुसार ये डीए तकरीबन चालीस हज़ार करोड़ से साठ हज़ार करोड़ बनता है, कल्याणकारी मदों के लिए सरकारी कर्मचारियों का योगदान है। डीए का कोई एरियर कर्मचारियों को नहीं मिलेगा। इसके साथ ही केंद्रीय व राज्य सरकारों ने सहर्ष एक दिन के वेतन भी सरकारों को दिया है जो कई लाख करोड़ों में बैठता है। मैं मानता हूं कि निजी क्षेत्र में बहुत वेतनों की क्षति हुई है, पर असंगठित क्षेत्र में। जहां तक अध्यापकों का प्रश्न है, मैं बेहतर आकलन कर सकता हूं क्योंकि में देश की निजी क्षेत्र की सबसे बड़ी शैक्षणिक संस्था से जुड़ा हूं और हिमाचल, यूपी, महाराष्ट्र के कुछ स्कूलों की लोकल मैनेजिंग कमेटी का चेयरमैन या वाइस चेयरमैन हूं।

हमारी संस्था ने अभी तक कोई वेतन नहीं काटा है और हमारे प्रिंसिपलों को उनकी वरिष्ठतानुसार वेतन मिलता है जो तमिलनाडु के हेडमास्टर के वेतन से ज़्यादा या हो सकता है। मैं उनके लेख पढ़ता रहता हूं। आदरणीय सरकारी कर्मचारियों को लेकर किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं। मैं अंत में ये कहना चाहूंगा कि इस लेख की सिफारिशें तुगलकी फरमान की तरह हैं। दुनिया में कोई सरकार 14 करोड़ कर्मचारियों का बोझ वहन नहीं कर सकती। मैं निम्नलिखित बिंदुओं पर पाठकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूंगा। एक, 14 करोड़ कर्मचारी क्या कोई भी सरकार भर्ती कर सकती है, ये औचित्यपूर्ण अनुशंसा नहीं है। दो, 14 करोड़ कर्मचारियों के परिवारों को, आज 5 सदस्यों के परिवार के अनुपात से लें तो 70 करोड़ सदस्य बनते हैं जो किसी भी सरकार को बदलने/हिलाने की क्षमता रखते हैं। इस फौज को नियंत्रित करना दुरूह होगा। इस तरह अब चपरासी या श्रेणी चार वाले को 2000/3000 ही मिलेंगे। ये वेतन नहीं भीख होगी। इन सिफारिशों में कई और भी त्रुटियां हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत में वेतनमान बहुत कम हैं। हां, आज ज़रूरत सरकारी नौकरियों को बढ़ाने की नहीं, घटाने की है।

डा. विनोद प्रकाश गुप्ता
पूर्व प्रधान सचिव, हि. प्र.
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