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- 'जेपी' बनने का प्रयोग

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By: divyahimachal
नीतीश कुमार मौजूदा राजनीतिक दौर के 'जयप्रकाश नारायण' बनने का प्रयोग कर रहे हैं। हालांकि वह इसे कभी भी स्वीकार नहीं करेंगे, क्योंकि वह खुद उस दौर की देन हैं। 1975 में आपातकाल के दौर से कुछ पहले 'जेपी' ने 'संपूर्ण क्रांति' का नारा दिया था। दरअसल वह भ्रष्टाचार के खिलाफ जन-आंदोलन था, जो बाद में राजनीतिक विपक्ष का आंदोलन बन गया। तब भाजपा की मातृ-पार्टी जनसंघ समेत लगभग पूरे विपक्ष ने एक ही बैनर तले विलय किया था-जनता पार्टी। उसी के नाम और चुनाव चिह्न पर चुनाव लड़ा गया था। उस विपक्षी एकता का नतीजा यह रहा कि पहली बार केंद्र में विपक्ष की सरकार बनी। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री चुने गए। यकीनन उस दौर में प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी बेहद ताकतवर नेता थीं। चूंकि वह रायबरेली से लोकसभा चुनाव हार गई थीं और आपातकाल के कारण देश के आम नागरिक का कांग्रेस के प्रति आक्रोश और गुस्सा था, लिहाजा जनमत जनता पार्टी के पक्ष में रहा। पराजित होने के बावजूद तब कांग्रेस 153 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। आज तो सिर्फ 53 सीटें ही हैं। गौरतलब यह है कि 1978 में कर्नाटक के चिकमंगलूर सीट पर इंदिरा गांधी ने उपचुनाव लड़ा और वह जीत गईं। जनता पार्टी का वह प्रयोग दो साल से कुछ ज्यादा ही चल पाया। 1979 में मोरारजी सरकार का पतन हो गया। पार्टी में विभाजन हुआ और चौधरी चरण सिंह ने प्रधानमंत्री पद की शपथ जरूर ली, लेकिन कांग्रेस ने बाहर से समर्थन दिया था।
समय आने पर वह समर्थन छीन लिया गया और 1980 में इंदिरा गांधी एक बार फिर देश की प्रधानमंत्री बनीं। जनता पार्टी का आज नामलेवा भी कोई नहीं है। वह परिदृश्य याद दिलाने का मकसद यह है कि आज के दौर में नीतीश कुमार विपक्ष की दरारें भरने की कोशिश कर रहे हैं। वह 'जनता परिवार' के फॉर्मूले पर विपक्ष को लामबंद करना चाहते हैं। उस परिवार में पुराना जनता दल भी आता है, जिसे तोड़-छोड़ कर खुद नीतीश कुमार, लालू यादव और देवगौड़ा ने अपने-अपने जनता दल बना लिए थे। मुलायम सिंह अलग हुए, तो उन्होंने समाजवादी पार्टी का गठन किया। देवीलाल परिवार ने इंनेलो का गठन किया था। यानी जनता दल तार-तार हुआ था। उसी बैनर के तले वीपी सिंह, देवगौड़ा, इंद्रकुमार गुजराल प्रधानमंत्री बने। वीपी सिंह सरकार को भाजपा और वामपंथी दलों ने एक साथ समर्थन दिया था। तब मुद्दा बोफोर्स तोप सौदे में घूसखोरी का था। बहरहाल देवगौड़ा और गुजराल की सरकारें कांग्रेस के 'कृपालु समर्थन' पर टिकी थीं। कांग्रेस ने समर्थन वापस लिया और सरकारें गिरती रहीं। उस दौर में संसदीय जनादेश 'त्रिशंकु' था और भाजपा सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी। अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री जरूर बनाए गए, लेकिन पार्टी पर हिंदूवादी सांप्रदायिकता का धब्बा था, लिहाजा सत्ता में बने रहने लायक गठबंधन और बहुमत का बंदोबस्त नहीं हो पाया। उसके बाद विपक्ष का 'संयुक्त मोर्चा' बना और देवगौड़ा ऐसे प्रधानमंत्री बने मानो बिल्ली के भाग्य से छींका टूट गया हो! बहरहाल तब और आज की राजनीतिक परिस्थितियों और समीकरणों में व्यापक बदलाव हुआ है।
आज भाजपा अपने दम पर प्रचंड बहुमत वाली पार्टी है। उसके नेतृत्व में एनडीए आज भी बचा-खुचा है। दूसरी राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस जर्जर अवस्था में है। विपक्ष का मुकाबला ताकतवर प्रधानमंत्री मोदी और 17.5 करोड़ काडर वाली भाजपा से है। राजनीति में यह दलील बेमानी है कि देश के 32 फीसदी वोटरों ने मोदी-भाजपा को वोट दिया था। शेष 68 फीसदी वोट विपक्ष के अलग-अलग दलों के पक्ष में गए। जिस दौर में जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे, उस समय कांग्रेस का डंका बजता था। कोई भी विपक्षी दल उसे चुनौती देने की स्थिति में नहीं था। फिर भी करीब 58 फीसदी वोट नेहरू-कांग्रेस के खिलाफ थे। बहरहाल विपक्ष के वोटों को लामबंद करने की शुरुआत नीतीश कुमार ने की है। वह विपक्ष के बड़े नेताओं से भी मिल रहे हैं। स्वाभाविक है कि विपक्षी एकता पर संवाद हो रहे होंगे। इसी दौर में कर्नाटक के मैसूर में देवगौड़ा के जनता दल-एस ने भाजपा को समर्थन दिया और मेयर चुनवा दिया। यह विपक्षी एकता की मानसिकता और प्रयासों का नंगा सच है। भारत 1980-90 के दशक से बहुत आगे निकल चुका है। फिर भी विपक्षी लामबंदी की कोशिशों को परखना जरूर चाहिए। नीतीश कुमार से इतर, राहुल गांधी बुधवार से 'भारत जोड़ो यात्रा' पर निकले हैं।

Rani Sahu
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