सम्पादकीय

रेल मंत्री पीयूष गोयल का विश्वास

Gulabi
17 March 2021 12:59 PM GMT
रेल मंत्री पीयूष गोयल का विश्वास
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जिस वक्त देश के दस लाख से अधिक बैंककर्मी सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों के निजीकरण की सरकारी घोषणा के खिलाफ हड़ताल पर

जिस वक्त देश के दस लाख से अधिक बैंककर्मी सार्वजनिक क्षेत्र के कुछ बैंकों के निजीकरण की सरकारी घोषणा के खिलाफ हड़ताल पर थे, ठीक उसी समय रेल मंत्री पीयूष गोयल ने संसद में कल कहा कि भारतीय रेल का कभी निजीकरण नहीं होगा और यह हमेशा भारत सरकार के ही हाथों में रहेगी। रेल मंत्री के इस आश्वासन के निहितार्थ समझे जा सकते हैं। अलबत्ता, उन्होंने रेलवे में तेज सुधार के लिए पूंजीगत जरूरतों की खातिर निवेश को आकर्षित करने की बात भी कही।

इसमें कोई दोराय नहीं कि पिछली कई सरकारें निजी-सार्वजनिक भागीदारी के जरिए भारतीय रेलवे के विकास को गति देने की कोशिशें करती रही हैं और स्टेशनों की साफ-सफाई से लेकर पेंट्री कार की सेवाओं तक में उन प्रयासों का फर्क भी दिखा है। पर इन दिनों सरकारी संस्थाओं के विनिवेश से जुड़ी जो सबसे बड़ी चिंता कर्मचारियों को है, वह उनकी नौकरी के भविष्य से जुड़ी है। साफ है, सरकार उन्हें आश्वस्त करने में विफल रही है कि इस कवायद में उनके हितों को लेकर पर्याप्त 'सेफगार्ड'रखे जाएंगे।

भारतीय रेलवे न सिर्फ देश में सबसे अधिक रोजगार मुहैया कराने वाले सरकारी संगठनों में से एक है, बल्कि यह देश के गरीब-गुरबों की भी सवारी है। यही वजह है कि पिछले कुछ दशकों में यह विभाग राजनीतिक वर्ग के लिए अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का माध्यम बनकर रह गया। लोक-लुभावन बजटों में इसके तकनीकी विकास और इसकी पेशेवर जरूरतें हाशिए पर जाती रहीं। मगर सरकार अब इसके आधुनिकीकरण और तकनीकी तरक्की के प्रति प्रतिबद्ध दिख रही है, तो इसके लिए लाजिमी तौर पर उसेभारी आर्थिक संसाधनों की जरूरत होगी। अच्छी बात यह है कि भारतीय रेलवे के पास देश भर में भारी अचल संपत्ति है और सरकार उनके कुशल प्रबंधन से काफी संसाधन जुटा भी सकती है।
लेकिन रह-रहकर रेलवे के निजीकरण की बात जनता में लौटती है, तो उसकी वजह यही है कि सरकार की तरफ से विगत समय में ऐसे प्रयोग हुए हैं, जो निजी क्षेत्र की ऐसी सहभागिता को प्रोत्साहित करते दिखे, जिनकी वजह से किराये में भारी बढ़ोतरी की आशंका भी साथ-साथ आई।
रेलवे की आमदनी में कमी की एक वजह यह भी है कि देश में राजमार्गों के बेहतर होने से माल की ढुलाई ट्रकों व दूसरे भारी वाहनों के जरिए काफी होने लगी है। फिर पिछले एक साल में कोरोना के कारण सीमित परिचालन से रेलवे को हजारों करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। महकमे पर आर्थिक दबाव कितना है, इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि स्टेशनों पर भीड़ को हतोत्साहित करने की आड़ में प्लेटफॉर्म टिकटों के दाम काफी बढ़ा दिए गए हैं।
यात्री किराये में बढ़ोतरी के अलावा टिकट रद्द कराने की सूरत में भी मुसाफिरों को अपनी जेब अब ज्यादा ढीली करनी पड़ रही है। ऐसे में, जब निजीकरण की कोई बात उठती है, तो आम आदमी को यही लगता है कि उसके कंधे पर बोझ और बढ़ जाएगा। आमदनी घटने का दबाव नागरिकों पर भी है और एक लोक-कल्याणकारी राज्य में सब कुछ निजी क्षेत्र के हवाले नहीं किया जा सकता। तब तो और, जब सामाजिक सुरक्षा के उपायों की भारी कमी हो। अत: रेलवे की देखभाल तो सरकार को ही करनी होगी। लोक-कल्याणकारी नजरिए से, पेशेवर प्रबंधन के साथ।


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