सम्पादकीय

वर्तमान पर विश्वास के छोर

Subhi
21 Oct 2022 6:15 AM GMT
वर्तमान पर विश्वास के छोर
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जिंदगी की वास्तविकता कभी पास तो कभी दूर सहमी-सी खड़ी देखती रहती है। इन्हीं में से एक श्राद्ध पक्ष जीवन का एक पवित्र अंतराल माना जाता है, जिसमें पितरों को स्मरण करने की परंपरा है।

प्रभात कुमार; जिंदगी की वास्तविकता कभी पास तो कभी दूर सहमी-सी खड़ी देखती रहती है। इन्हीं में से एक श्राद्ध पक्ष जीवन का एक पवित्र अंतराल माना जाता है, जिसमें पितरों को स्मरण करने की परंपरा है। पितृ पक्ष के अवसर पर हर वर्ष अनेक प्रवचन दिए जाते हैं। संस्कृति और कर्मकांड के जानकार आम जनों को खूब समझाते हैं। किसी युग में रचे शास्त्र अब संचार के शस्त्र हो गए हैं, जिन्हें जो चाहे उठाए और निजी तलवार की तरह घुमाए रखता है। पता नहीं चलता कि बताने वाले किस चश्मे से देख रहे हैं।

विकास और सुविधाएं जीवन में सहजता, सरलता और सौम्यता लाने के लिए होती हैं, लेकिन भौतिक विकास हमें पीछे की तरफ ले जा रहा है। बरसों से चल रहे एक बहुत प्रसिद्ध पारिवारिक धारावाहिक में दिखाया गया कि श्राद्ध में कौवे के लिए अलग से परोसा गया खाना अगर कौवा न खाए तो श्राद्ध पूरा ही नहीं होता। वास्तव में आम तौर पर कौवे या गाय की रोटी बंदर या दूसरे जानवर ही ग्रहण करते हैं। कौवे के साथ इंसानी अंधविश्वास भी स्वार्थ भरा ही रहा है। जब कौवे मकान की मुंडेर पर आकर कांव-कांव करते थे तो यह मानकर कि अनचाहा मेहमान न आ टपके, कौवे को उड़ा दिया जाता था। लेकिन कौवे को मुंडेर पर से उड़ाने वाले ही प्रिय व्यक्ति के आने पर उसका मुंह मीठा करवाने को तैयार रहते थे। अधिकांश जगह खासतौर पर शहरी और कस्बाई क्षेत्रों में कौवा आजकल आसानी से नहीं मिल पाता है।

जब हम अपने ईष्ट को तस्वीरों या मूर्तियों में मानकर पूजा कर सकते हैं, लाखों-करोड़ों रुपए का दान करते हैं तो पितृपक्ष में कौवे जैसे महत्त्वपूर्ण चरित्र को, जो भारतीय पारिवारिक संस्कृति के एक पक्ष यानी पितृ पक्ष में श्राद्ध पूरा करने में अहम रोल अदा करता है, के चित्र या मूर्ति को खाना लगाकर अपना कर्तव्य निभाने में क्या हर्ज है। यों खाना किसी भूखे को भी खिलाया जा सकता है, लेकिन यह भी कहा गया है कि इस संबंध में भोजन सुपात्र को ही खाना चाहिए। दान आदि भी उचित पात्र को ही दिया जाना चाहिए। अब सुपात्र जब जाति की कोख से ही निकलेगा, तो फिर भूखा या जरूरतमंद सुपात्र नहीं हो पाएगा!

माना जा सकता है कि आर्थिक परेशानी, बाजार की मानसिकता, महिलाओं का कामकाजी होना और समय की कमी के कारण भी पारंपरिक संस्कृति के कई पक्ष निबटाए जा रहे हैं। बताते हैं कि अनेक व्यक्ति ज्योतिषीय या अन्य पूजा-पाठ के लिए सलाह किसी अनुभवी से लेते हैं और मोल भाव कर अनुष्ठान किसी और से चलताऊ ढंग से करवाते हैं। प्रयोग और दान के लिए सामान भी घटिया, सस्ता, स्तरहीन लेते हैं। यानी जैसा विधि विधान से करना, वरिष्ठ अनुभवियों के अनुसार वांछित है, नहीं करते।

नए वातावरण में नई सूचनाएं आती रहती हैं। किसी ने विचार साझा किया कि गया में श्राद्ध करवाने के बाद, लोग श्राद्ध करना बंद कर देते हैं। उनका आशय यह रहा कि श्राद्ध जारी रखना चाहिए। इसका मतलब यह भी निकला कि जिन्होंने श्राद्ध जारी नहीं रखा, गलत किया। एक और बात पढ़ने में आई कि पितृ पक्ष में अपने माता-पिता ही नहीं, नाना-नानी, चाचा-चाची, गुरु, मित्र, बंधु, सैनिक यानी जो दुनिया छोड़ गए, उनको याद कर पिंडदान कर सकते हैं। यों ऐसे किस काम का क्या हासिल होता है, यह कभी स्पष्ट नहीं हुआ।

जिंदगी की भगदड़ में पेट, शिक्षा, स्वास्थ्य के झमेले में श्रद्धा के बारे में ज्यादा संजीदगी से सोचने की फुर्सत कम होती जा रही है। यों इन दिनों में अधिकतर लोग अभी भी नई वस्तु नहीं खरीदते, हालांकि असामाजिक, अनैतिक, आपराधिक, अमानवीय यानी सभी किस्म का गलत आचरण करते रहते हैं। दरअसल, अधिकतर लोग अब काफी व्यावहारिक होते जा रहे हैं। क्या व्यावहारिकता के आवरण के नीचे नास्तिकता भी बढ़ रही है? पढ़ने-सुनने में आ रहा है कि युवा पीढ़ी पूजा पाठ करने लगी है। शायद उनके जीवन में संघर्ष और परेशानी उग रही है, इसलिए लोग ऐसा करने लगे हैं। लेकिन यह सब करने से क्या सभी समस्याओं का हल हो जाता है?

आज सबसे ज्यादा वर्तमान को समझने और संवारने की जरूरत है। अपने कर्मों को अनुशासित, सकारात्मक और व्यावहारिक बनाए रखना वक्त का तकाजा है। समझदार व्यक्ति अपना-अपना मत व्यक्त कर बता रहे हैं। पता नहीं वे किस तरह का माहौल बनाना चाहते हैं। किसी भी विषय पर किसी संदर्भ में दूसरों की कही बातें, यहां-वहां से आ रही टिप्पणियों और सूचनाओं को अनदेखा करते हुए जीवन में तर्क का समावेश पूरी श्रद्धा और विश्वास के साथ करना वर्तमान की जरूरत है। यह भी खरा सच है कि मनचाहा करने के लिए बहुतेरे दिन और रातें हमारे पास हैं।

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