सम्पादकीय

लोहिया के सच्चे अनुयायी : गैर कांग्रेसवाद को पहनाया अमली जामा, जिद्दी और गरीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता

Neha Dani
11 Oct 2022 1:51 AM GMT
लोहिया के सच्चे अनुयायी : गैर कांग्रेसवाद को पहनाया अमली जामा, जिद्दी और गरीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता
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एक जबर्दस्त खालीपन होगा। डॉ. लोहिया और चौधरी चरण सिंह की विरासत का अंत होगा।
वह अंतिम समाजवादी थे। उनके बाद सिर्फ नाम की समाजवादी पार्टियां तो रहेंगी, पर लोहिया का गढ़ा कोई समाजवादी नहीं होगा। डॉ. लोहिया ने उन्हें अपने हाथों से गढ़ा था। यानी समाजवादी राजनीति के उत्तर लोहिया युग का अंत हुआ है। मुलायम सिंह ने समाजवाद को अपने जीवन में उतारा था। गांव और खेत की मेड़ से उठे इस धरती पुत्र ने सही मायनों में लोहिया के गैर कांग्रेसवाद को अमली जामा पहनाया।
1989 में मुलायम सिंह ने जिस कांग्रेस को उत्तर प्रदेश से उखाड़ा, वह आज तक देश में जड़ें न जमा सकी। उनसे सहमत और असहमत हुआ जा सकता था, पर उत्तर प्रदेश की राजनीति के वह नेता नहीं, एक इमोशन थे। केवल संबंधों को निभाने के लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाने वाले इस पांच फुट के जिद्दी और गरीबों के लिए प्रतिबद्ध नेता ने अपने उसूलों से कभी समझौता नहीं किया।
इसीलिए मुस्लिम वोट बैंक के खजांची जामा मस्जिद के शाही इमाम को सबसे पहले राजनीति छोड़ सिर्फ इमामियत की सलाह देने वाले और फिर कानून की हिफाजत के लिए शंकराचार्य स्वरूपानंद जी की गिरफ्तारी की हिम्मत मुलायम सिंह में ही थी। यह हिम्मत उनमें लोहिया की वैचारिक ट्रेनिंग, चौधरी चरण सिंह की सादगी और दृढ़ता, और जयप्रकाश नारायण की संघर्ष क्षमता से मिली थी।
आजादी के बाद इस मुल्क में नेताओं के लिए 'दीदी', 'अम्मा', 'अन्ना', 'बहिन जी', 'दादा', 'ताऊ' जैसे तमाम उपाख्य हर राज्य में गढ़े गए, पर 'नेता जी' का प्रयोग केवल उन्हीं के लिए हुआ। यह उनकी लोकप्रियता ही थी कि वह नौ बार विधायक, सात बार सांसद और तीन बार राज्य के मुख्यमंत्री बने। गैर कांग्रेसवाद के बाद वह देश में गैर भाजपावाद के प्रतीक भी बने।
देश के ताने-बाने की हिफाजत के लिए उन्होंने बहुसंख्यक गुस्से का जोखिम भी उठाया। इसका उन्हें नतीजा भी भुगतना पड़ा। उनसे चूक सिर्फ इतनी हुई कि भाजपा से लड़ते-लड़ते हनुमान का यह भक्त राम से लड़ गया। पर हर बार वह यह जरूर कहते थे कि देशभक्ति, सीमा सुरक्षा और भाषा के सवाल पर उनकी और भाजपा की नीति एक है।
राजनीति विज्ञान में एमए मुलायम सिंह पार्टी और समाज के लिए धुर विरोधियों को भी गले लगा लेते थे। उनके मन में गाली देने वालों के प्रति भी कभी कोई कटुता नहीं रही। पहले बलराम सिंह यादव, फिर दर्शन सिंह यादव इटावा-मैनपुरी की राजनीति में उनके धुर विरोधी थे। मुलायम सिंह पर जानलेवा हमला हुआ। एक बार जसवंतनगर चुनाव में जब दर्शन सिंह के लोगों ने मुलायम सिंह के काफिले पर गोलियां दागीं, तो मैं भी उनकी गाड़ी में था।
मौत बगल से गुजरी थी। पर मुलायम सिंह ने बाद में इन्हें अपनी पार्टी का टिकट दे राज्यसभा में भी पहुंचाया। अमर सिंह और बेनी प्रसाद वर्मा ने पार्टी छोड़ने के बाद न जाने कितनी गालियां मुलायम सिंह को दीं। पर दोनों को उन्होंने फिर गले लगाया। ऐसी थी उनकी उदारता और सदाशयता। आजादी के बाद उत्तर प्रदेश की राजनीति ने जिस-जिस मोड़ पर अपना रास्ता बदला, मुलायम सिंह यादव वहां खड़े नजर आते हैं।
चाहे वह 77 का जनता पार्टी प्रयोग हो, 89 में चंद्रशेखर और बहुगुणा को किनारे कर वीपी सिंह का समर्थन हो। फिर राम जन्मभूमि का देशव्यापी आंदोलन हो या फिर उत्तराखंड के जन्म लेने की वजह से रामपुर तिराहा गोलीकांड हो, मुलायम सिंह यादव हर कहीं आपको दिखाई देंगे। मेरी उनकी मित्रता तब की थी, जब चौधरी चरण सिंह की विरासत की लड़ाई में लोकदल ने उन्हें नेता विरोधी पद से हटा सत्यपाल यादव को नेता विरोधी दल बना दिया।
मुलायम सिंह ने अजित सिंह से कहा, आप उनकी संपत्ति के वारिस हो सकते हैं, पर राजनीति और विचारों का वारिस मैं ही रहूंगा। मुलायम सिंह ने अलग पार्टी बनाई। जनता पार्टी और कम्युनिस्ट दलों का समर्थन ले क्रांतिकारी मोर्चे का गठन किया। फिर पूरे प्रदेश में क्रांति रथ निकाला। उस अभियान को कवर करने 1986 में मैं भी उस रथ पर गया था। मुलायम सिंह तब तक नेता जी हो चुके थे।
मुलायम सिंह का आधार बढ़ता रहा, अजित सिंह का घटता रहा। चौधरी साहब की विरासत ट्रांसफर हो चुकी थी। उसके बाद फिर मुलायम सिंह ने पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा। देश की चिंता उन्हें अस्पताल के बिस्तर पर भी रही। गुरुग्राम के मेदांता अस्पताल की पंद्रहवीं मंजिल के कमरे के बिस्तर पर लेटे जब वह मौत से लड़ रहे थे, मैं उन्हें देखने गया था। वह लोगों से बातचीत नहीं कर रहे थे, पहचानते भी कम थे।
मुझे देखते ही बोले, अंतरराष्ट्रीय स्थिति अच्छी नहीं है। मैंने सुना है, हमारा बरसों का साथी रूस भी हमसे नाराज हो गया है। मैंने उनसे कहा कि यूक्रेन पर एक बार ऐसी स्थिति बनी थी। पर बाद में हमारी कूटनीति ने सब ठीक कर लिया। वह फिर कहने लगे, देखिए मेरी कोई सुनता नहीं। मैं बार-बार कहता हूं कि पाकिस्तान हमारा कुछ नहीं बिगाड़ सकता। वह बहुत कमजोर हो गया है।
हमारा असल दुश्मन चीन है। हमें उससे सावधान रहना होगा। लोहिया ने भी यह कहा था। किसी ने नहीं सुना। बाद में सही साबित हुआ। मुलायम सिंह ने अपनों से धोखा भी बहुत खाया। बात नब्बे की होगी। बिहार में विधानसभा का चुनाव था। मुलायम सिंह मुख्यमंत्री हो चुके थे, इसलिए बिहार के चुनाव की जिम्मेदारी उन पर थी। प्रचार के बाद शाम को हम चंपारण के किसी डाक बंगले में रुके थे।
बिहार में जनता दल के मुख्यमंत्री के तीनों दावेदार रामसुंदर दास जो पहले मुख्यमंत्री रह चुके थे, लालू यादव और रघुनाथ झा नेता जी से मिलने आए। बगल के कमरे में ही मैं था। बाद में नेता जी ने कहा, रामसुंदर दास बूढ़े हो गए है। रघुनाथ झा के पीछे वह जन समर्थन नहीं है। उम्मीदवार लालू ही ठीक हैं। मुलायम सिंह ने अड़कर लालू को मुख्यमंत्री बनवाया।
वर्ष 1996 में जब देवेगौड़ा के बाद प्रधानमंत्री का सवाल खड़ा हुआ, तो उन्हीं लालू ने मुलायम सिंह का डटकर विरोध किया। तब लॉटरी लगी इंद्र कुमार गुजराल की। पर मुलायम सिंह को इसका मलाल कभी नहीं रहा। मुलायम सिंह यादव राजनीति में आने से पहले अध्यापक और उससे पहले पहलवान थे। कुश्ती में चरखा दांव उनका प्रिय था। राजनीति में भी वह अपने दांव और बयानों से विरोधी खेमे को हमेशा चौंकाते रहे।
नेता जी की नजरों में समाजवाद सिर्फ विचार या सिद्धांत नहीं था। बल्कि एक आचरण था। उनका मानना था कि उसे जीवन में उतारकर ही समाज, देश, आदमी एवं उसकी समास्याओं को देखा जा सकता है। धरती से जुड़े इस नेता के न रहने से गांव, गरीब, किसान की राजनीति में एक जबर्दस्त खालीपन होगा। डॉ. लोहिया और चौधरी चरण सिंह की विरासत का अंत होगा।

सोर्स: अमर उजाला

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