सम्पादकीय

त्रिपुरा हिंसा : बांग्लादेश को चीन-पाक धुरी से जोड़ने की साजिश

Neha Dani
13 Nov 2021 1:51 AM GMT
त्रिपुरा हिंसा : बांग्लादेश को चीन-पाक धुरी से जोड़ने की साजिश
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हमें अपने शोधों के व्यावहारिक मॉडल भी विकसित करने होंगे।

हाल ही में देश के नए शिक्षा मंत्री धर्मेंद्र प्रधान ने कहा कि शोध मात्र शोध-पत्रिकाओं में प्रकाशित होने के लिए ही न किया जाए, बल्कि उससे समाज को लाभ भी मिले। उनकी चिंता शायद यह थी कि अपने शोधों से हम जो ज्ञान सृजित कर रहे हैं, वह केवल अकादमिक वृत्त में ही सिमटकर न रह जाए, बल्कि वहां से निकलकर आम आदमी के जीवन में बदलाव लाने का भी काम करे। धीरे-धीरे ही सही, अकादमिक ज्ञान आम आदमी के ज्ञान (जन ज्ञान) में बदल जाए।

ऐसा कहकर उन्होंने शायद भारतीय विश्वविद्यालयों में हो रहे शोध की सीमाओं के मर्म पर उंगली रख दी है। वैश्विक रैंकिंग में आने, स्टैन्फर्ड साइंटिस्ट सूची का हिस्सा बनने के साथ यह भी देखा जाना चाहिए कि जनता के पैसे से हुए शोधों से निकले ये ज्ञान लोगों तक कितना पहुंचते हैं। अगर नहीं पहुंच पाते हैं, तो क्यों? और उससे लोगों के जीवन में कितना बदलाव आता है? हमें विचार करना होगा कि हमारा अकादमिक ज्ञान जगत कैसे जनता से जुड़ पाएगा।
मैंने देखा और अनुभव किया है कि पश्चिमी मुल्कों, विशेषकर फ्रांस जैसे मुल्क इसको लेकर अत्यंत संवेदनशील रहे हैं। प्रायः वहां के विश्वविद्यालयों एवं शोध संस्थानों में हुए अध्ययनों की दो तरह की रिपोर्ट बनती हैः एक तो अकादमिक रिपोर्ट, जो फंडिंग एजेंसियों तथा उक्त शोध से जुड़ी संस्थाओं को सौंपी जाती है। दूसरा, उनका लोक संस्करण भी तैयार होता है, जो वहां के लोकप्रिय अखबारों को दिया जाता है। या शोध करने वाले विद्वान अखबारों में उन पर लेख लिखते हैं। उनमें से कई महत्वपूर्ण शोध अखबारों, टीवी चैनलों, सोशल मीडिया आदि के जरिये जनता तक पहुंचते हैं। उनमें से कई वहां की जन चेतना एवं उनके दैनंदिन जीवन को प्रभावित करते हैं।
भारत में शोध की समस्या यह है कि इसका सर्वाधिक बड़ा बजट विज्ञान संबंधी शोधों के लिए आवंटित किया जाता है। विज्ञान के कुछ शोध तो हमारे जीवन-जगत एवं विकास में महती भूमिका निभाते ही हैं, किंतु ज्यादातर शोध जर्नल्स के पन्नों एवं विश्वविद्यालयों की चहारदीवारी में ही दबकर रह जाते हैं। दूसरी समस्या है, कि आज ज्यादातर विश्वविद्यालय पढ़ाने के संस्थान के रूप में ही सक्रिय हैं, जबकि बिना शोध के शिक्षण नोट्स एवं कुंजियों का शिक्षण होकर रह जाता है।
होना यह चाहिए था कि हमारे ज्यादातर विश्वविद्यालय शोध एवं शिक्षण संस्थान के रूप में विकसित होते। शिक्षा मंत्रालय जिस नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 के कार्यान्वयन की दिशा में कार्यरत है, उसकी मूल आत्माओं में से एक विश्वविद्यालयों एवं शिक्षण संस्थाओं को शोध की चेतना से जोड़ना है। शोध को सामाजिक, औद्योगिक एवं आर्थिक विकास से कैसे जोड़ा जाए, यह भी उनकी चिंता का एक हिस्सा है। नए शिक्षा मंत्री ने अपने उक्त बयान में नई शिक्षा नीति की मूल आत्मा को ही अभिव्यक्त किया है।
अपने देश में एक समस्या यह भी है कि यहां सामाजिक विज्ञान से जुड़े शोधों को उतना महत्व नहीं दिया जाता, जितना विज्ञान के शोधों को। जबकि सामाजिक विज्ञान से जुड़े शोधों के जन ज्ञान बनने की ज्यादा संभावना होती है। हमें सोचना होगा कि किस प्रकार भारत में विकास को गति देने एवं नए भारत के निर्माण में समाज विज्ञान के शोधों को महत्व दिया जाए। इसी संदर्भ में एक और समस्या है-भाषा की। भारत में ज्यादातर शोध अंग्रेजी में ही किए जाते हैं। किंतु मेरा मानना है कि आत्मभाषा में ही आत्मज्ञान का विकास संभव है।
दूसरा, भारतीय भाषाओं में जब समाज विज्ञान का विकास होगा, तभी वह व्यापक जन तक पहुंच पाएगा। अन्यथा वह अंग्रेजीदां लोगों तक ही सीमित होकर रह जाएगा। नए शिक्षा मंत्री के सुझावों को अगर व्यावहारिक धरातल पर लाने की दिशा में सोचा जाए, तो भारतीय भाषाओं में शोध की प्रक्रिया हमें तेज करनी होगी। इसके अलावा उन्हें अखबारों और अन्य लोकप्रिय माध्यमों से हमें जनता तक पहुंचाना होगा। साथ ही हमें अपने शोधों के व्यावहारिक मॉडल भी विकसित करने होंगे।
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