सम्पादकीय

कांग्रेस का विकल्प नहीं है तृणमूल

Gulabi
3 Nov 2021 7:15 AM GMT
कांग्रेस का विकल्प नहीं है तृणमूल
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जिस समय प्रादेशिक और लेफ्ट पार्टियां थोड़े समय के लिए राजनीति के केंद्र में आई थीं

यह आम धारणा है कि विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर कांग्रेस मजबूती से भाजपा और उसकी सरकार के खिलाफ नहीं लड़ रही है। यह बात कुछ हद तक सही है लेकिन पहले भी ऐसा ही रहा है। पहले जब भाजपा विपक्ष में थी तो वह भी कोई मजबूत विपक्ष नहीं थी। फिर भी पिछले करीब ढाई दशक की यह परिघटना है कि कांग्रेस और भाजपा ही एक दूसरे का विकल्प हैं। चाहे कोई भी प्रादेशिक पार्टी प्रदेश में कांग्रेस या भाजपा के खिलाफ कितनी ही ताकत से लड़ रही हो वह राष्ट्रीय स्तर पर इन दोनों पार्टियां का विकल्प नहीं होती है। इसलिए कांग्रेस का विकल्प बनने का तृणमूल कांग्रेस का प्रयास एक बेहद महत्वाकांक्षी प्रयास है, जिसके लिए उसके पक्ष में कुछ भी नहीं है, सिवाए इसके कि एक राज्य में उसकी सरकार है। लेकिन एक राज्य में सरकार होने और पार्टी की नेता ममता बनर्जी के रोज नरेंद्र मोदी और केंद्र सरकार पर हमला करने से तृणमूल कांग्रेस राष्ट्रीय विकल्प नहीं बन सकती है। अगर ऐसा होता तो सबसे बड़ा विकल्प केजरीवाल और उनकी आम आदमी पार्टी होते। Politics Trinamool congress party

असल में यह एक मतिभ्रम की स्थिति है, जिसका शिकार ममता बनर्जी भी हैं और दूसरी कई विपक्षी पार्टियां भी हैं। कांग्रेस को कमजोर या खत्म हुआ मान कर ममता बनर्जी, शरद पवार या अरविंद केजरीवाल जैसे कई नेता अपने लिए राष्ट्रीय स्तर पर संभावना मानने लगे हैं। ममता बनर्जी और अरविंद केजरीवाल को लगता है कि वे अपने अपने राज्य में लगातार चुनाव जीत रहे हैं और भाजपा को हरा रहे हैं इसलिए राष्ट्रीय स्तर पर भी वे भाजपा को हरा सकते हैं। दोनों नेताओं को यह भी लगता है कि उनको अखिल भारतीय स्तर पर लोग जानते हैं, मीडिया में उनका चेहरा दिखता है, राज्य सरकार के संसाधन का इस्तेमाल करके वे नेताओं को तोड़ सकते हैं और अपना प्रचार कर सकते हैं।
दोनों को यह भी लग रहा है कि वे ज्यादा से ज्यादा सख्त लहजे में केंद्र सरकार की आलोचना करते हैं, दूसरे राज्यों में जाकर बड़े बड़े वादे करते हैं इसलिए लोग उनको विकल्प के तौर पर स्वीकार कर लेंगे। अपने को कांग्रेस का विकल्प बनाने के लिए दोनों की एक रणनीति तो रोज भाजपा पर हमले करने की है और दूसरी रणनीति कांग्रेस के नेताओं को तोड़ कर अपनी पार्टी में मिलाने की है। तीसरी रणनीति, जिस पर ममता के चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर काम कर रहे हैं वह है छोटे छोटे राज्यों में तृणमूल को मजबूत करके उससे अखिल भारतीय स्तर पर धारणा बनवाने की। इसलिए प्रशांत किशोर की संस्था आई-पैक की टीम त्रिपुरा और गोवा में मेहनत कर रही है।

लेकिन क्या इतना पर्याप्त है कांग्रेस को देश की सबसे बड़ी विपक्षी पार्टी की जगह से रिप्लेस कर देने के लिए? अगर प्रशांत किशोर के तर्क का ही इस्तेमाल करें तो जिस पार्टी को अखिल भारतीय स्तर पर 20 फीसदी वोट मिलते हों उसे कैसे राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र से हटाया जा सकता है? प्रशांत किशोर ने यह बात भाजपा के संदर्भ में कही है। उन्होंने कहा है कि जिस पार्टी को देश में 30 फीसदी वोट मिलते हों उसे काफी समय तक राजनीति के सेंटर से रिप्लेस नहीं किया जा सकता है। यह बहुत सही तर्क है। लेकिन यह सिर्फ भाजपा के ऊपर लागू नहीं होता है, बल्कि सभी पार्टियों के ऊपर लागू होता है। जिस तरह पश्चिम बंगाल की राजनीति के सेंटर से लेफ्ट को रिप्लेस करने में ममता को दो दशक से ज्यादा समय लगा या बिहार में ढाई दशक के बाद भी भाजपा और जदयू मिल कर राजद को सेंटर से रिप्लेस नहीं कर पाए हैं उसी तरह केंद्र में भी भाजपा और कांग्रेस दोनों को रिप्लेस करना एक मुश्किल काम है। नब्बे के दशक में मंडल और मंदिर के आंदोलन ने ऐसी स्थितियां पैदा की थीं, जिनसे थोड़े समय के लिए छोटी पार्टियां राजनीति के केंद्र में आई थीं, लेकिन वह एक वक्ती घटना थी।

जिस समय प्रादेशिक और लेफ्ट पार्टियां थोड़े समय के लिए राजनीति के केंद्र में आई थीं, उस समय भी उसका नेतृत्व राष्ट्रीय नेताओं के हाथ में था। ऐसे नेताओं के हाथ में, जिन्होंने लगातार राष्ट्रीय राजनीति की थी। ममता बनर्जी उस मानक को भी पूरा नहीं करती हैं। उन्होंने हमेशा पश्चिम बंगाल की राजनीति की है और उनकी राजनीति का कोर बिंदु बांग्ला भाषा और अस्मिता रही है। इसलिए उनके सामने कई और भाषायी व जातीय अस्मिताओं की चुनौती भी होंगी। वे 'जय श्रीराम' के मुकाबले 'चंडीपाठ' करके सफल हुई हैं। लेकिन राष्ट्रीय राजनीति में 'जय श्रीराम' का क्या महत्व है यह अरविंद केजरीवाल के हाल के प्रयासों में दिख रहा है। वे दिल्ली से लेकर गोवा तक के लोगों को अयोध्या यात्रा कराने का वादा कर रहे हैं।
अभी तक की राजनीति में जो छोटी पार्टियां केंद्र की राजनीति में सफल रही हैं उन्हें उस समय की दूसरी या तीसरी बड़ी ताकतों का साथ मिला। जैसे राजीव गांधी को रिप्लेस करने में वीपी सिंह और उनकी जनता दल को भाजपा और लेफ्ट दोनों का साथ मिला था। इसी तरह नब्बे के दशक के मध्य में अटल बिहारी वाजपेयी को रोकने में जनता दल को कांग्रेस और लेफ्ट का साथ मिला था। लेकिन ममता बनर्जी भाजपा से लड़ने की अपनी महत्वाकांक्षा में दूसरी और तीसरी बड़ी ताकतों की अनदेखी कर रही हैं। वे लेफ्ट के साथ साथ कांग्रेस से भी सद्भाव बिगाड़ रही हैं, जबकि कांग्रेस दूसरी सबसे बड़ी ताकत है और ममता से ज्यादा बड़ी प्रादेशिक ताकतें उसके साथ हैं।
असल में सबसे बड़ी पार्टी के नाते भाजपा के अटल बिहारी वाजपेयी के प्रधानमंत्री बनने और 25 पार्टियों के साथ सफलतापूर्वक सरकार चलाने के बाद भारतीय राजनीति में यह सिद्धांत मान्य हो गया कि गठबंधन में कमान अगर सबसे बड़ी पार्टी के हाथ में होगी तभी सरकार टिकाऊ होगी। बाद में दो बार मनमोहन सिंह के प्रधानमंत्री रहने से भी यह बात साबित हुई। तभी शिव सेना के नेता संजय राउत ने कहा कि 2024 में विपक्ष कांग्रेस के साथ लड़ेगा और जो सबसे बड़ी पार्टी होगी वह कमान संभालेगी। ममता बनर्जी यह बात नहीं कह सकती हैं कि क्योंकि एक तरफ उनकी महत्वाकांक्षा है और दूसरी ओर यह हकीकत कि उनकी स्थिति अभी भाजपा और कांग्रेस को रिप्लेस करने की नहीं है।
अंत में कुछ व्यावहारिक बातें, जिनसे यह और साफ होगा कि क्यों ममता बनर्जी की पार्टी कांग्रेस का विकल्प नहीं बन सकती है। पहला, लोकसभा चुनाव में आमतौर पर राष्ट्रीय पार्टियों के बीच मुकाबला होता है। दूसरा, तृणमूल कांग्रेस सिर्फ पश्चिम बंगाल भर की पार्टी ही नहीं है, बल्कि प्रत्यक्ष रूप से बांग्ला अस्मिता वाली पार्टी है, जैसे डीएमके तमिल अस्मिता वाली और वाईएसआर कांग्रेस तेलुगू अस्मिता वाली पार्टी है। तीसरा, तृणमूल कांग्रेस के पास अखिल भारतीय सांगठनिक ढांचा नहीं है, इधर-उधर से नेताओं को तोड़ कर वह देश भर की पार्टी नहीं बन सकती है। चौथा, यह सही है कि देश के मध्यमार्गी मतदाताओं को एक विकल्प की जरूरत है, लेकिन ममता उस विचार का प्रतिनिधित्व नहीं करती हैं। पांचवा, उनके पास कोई विकास का मॉडल नहीं है। सच्चा या झूठा गुजरात से एक मॉडल लेकर नरेंद्र मोदी पूरे देश में गए थे। ऐसा कोई मॉडल ममता के पास नहीं है, जिसे लेकर वे देश के लोगों के बीच जाएंगी।
नया इण्डिया
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