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- बंगाल में तृणमूल और...
आदित्यचोप्रा। प बंगाल में विगत मई में हुए चुनावों के बाद भाजपा से सत्ताधारी तृणमूल कांग्रेस में शामिल होने वाले पांचवें नेता बाबुल सुप्रियो ने जिस प्रकार यह कहा है कि वह ममता दी की पार्टी में शामिल होने को एक अवसर समझते हैं उससे इतना तो स्पष्ट होता ही है कि राज्य में तृणमूल कांग्रेस का फिलहाल कोई विकल्प नहीं है। उनसे पूर्व जब स्व. राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी के सुपुत्र अभिजीत मुखर्जी और महिला कांग्रेस की नेता सुष्मिता देव कांग्रेस छोड़कर तृणमूल कांग्रेस में शामिल हुई थीं तो राज्य में ममता दी के वजन का एहसास सभी राजनैतिक प्रेक्षकों ने किया था। इससे यही निष्कर्ष निकलता था कि प. बंगाल वैचारिक स्तर पर गोलबन्द हो रहा है। राज्य में एक जमाने में सत्तारूढ़ रही पार्टी कांग्रेस पूरी तरह हाशिये पर खिसक चुकी है और दूसरी लगातार 34 साल तक शासन में रहने वाली मार्क्सवादी पार्टी भी अपने विपक्षी पार्टी तक होने का रुतबा खो चुकी है। राज्य में इस समय भाजपा प्रमुख विपक्षी पार्टी है। यह स्थिति इसने मई चुनावों के बाद ही अर्जित की है। इससे साफ जाहिर होता है कि विधानसभा चुनावों में ममता दी की तृणमूल कांग्रेस ने जो राजनैतिक विमर्श खड़ा किया था उसके मुकाबले में केवल भाजपा ही टिक सकी। बेशक भाजपा के पास कुल 77 में से अधिसंख्य विधायक ऐसे माने जाते हैं जिनकी पृष्ठभूमि तृणमूल कांग्रेस समेत अन्य दलों की रही है परन्तु विगत चुनावों में राज्य की नन्दीग्राम सीट से स्वयं ममता बनर्जी का भाजपा प्रत्याशी सुवेन्दु अधिकारी से हारना यह बताता था कि भाजपा ने जमीन पर अपने राजनैतिक विमर्श को फैलाने में आंशिक सफलता तो अर्जित की है। मगर चुनावों के बाद जिस तरह भाजपा से ममता दी की पार्टी में नेता जा रहे हैं वह केन्द्र में सत्तारूढ़ पार्टी के लिए जरूर चिन्ता का कारण हो सकता है। इसकी असली वजह यह मानी जा रही है कि बंगाल की संस्कृति वृहद राष्ट्रवाद की रही है जिसमे क्रान्तिकारी विचारों का समावेश प्रमुख रूप से रहा है।