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हर चुनाव से पहले सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय घोषित करने की मांग जोर पकड़ती है और 2014 के लोकसभा चुनाव, 2017 के विधानसभा व 2019 के फिर लोकसभा चुनावों में हर मंच से गूंजा यह स्वर। 2022 की चुनावी दहलीज पर एक बार फिर यह मुद्दा गरमाया है और सत्तारूढ़ भाजपा इसे भुनाने की पूरी कोशिश में है। मगर क्या यह वास्तव में हो पाएगा? पिछले 3 चुनावों के आधार पर तो ऐसा नहीं लगता। इस घोषणा से पहले जिस जटिल प्रक्रिया के तहत यह हो सकता है या फिर होगा, उसको समझना बहुत जरूरी है, क्योंकि किसी समुदाय विशेष अथवा क्षेत्र विशेष को जनजातीय घोषित करने के मानदंड और प्रक्रिया बिल्कुल अलग-अलग है। सिरमौर के गिरिपार क्षेत्र के साथ भी यही समस्या है। अनुसूचित जनजातियां शब्द सबसे पहले भारत के संविधान में प्रकट हुआ। अनुच्छेद 366 (25) ने अनुसूचित जनजातियों को ऐसी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय या इन आदिवासी जातियों और आदिवासी समुदायों का भाग या उनके समूह के रूप में, जिन्हें इस संविधान के उद्देश्यों के लिए अनुच्छेद 342 में अनुसूचित जनजातियां माना गया है, परिभाषित किया है। अनुच्छेद 366 (25) अनुसूचित जनजातियों के विशिष्टिकरण के मामले में पालन की जाने वाली प्रक्रिया को निर्दिष्ट करता है।
अनुच्छेद 342 के अनुसार राष्ट्रपति किसी भी राज्य या केंद्रशासित प्रदेश के विषय में, और जहां वह राज्य है, राज्यपाल से सलाह के बाद सार्वजनिक अधिसूचना द्वारा, आदिवासी जाति या आदिवासी समुदायों या आदिवासी जातियों या आदिवासी समुदायों के भागों या समूहों को निर्दिष्ट कर सकते हैं, जो इस संविधान के उद्देश्यों के लिए, उस राज्य या केंद्रशासित प्रदेश, जैसा भी मामला हो, के संबंध में अनुसूचित जनजातियां माने जाएंगे। संसद कानून के द्वारा धारा (1) में निर्दिष्ट अनुसूचित जनजातियों की सूची में किसी भी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय या किसी भी आदिवासी जाति या आदिवासी समुदाय के भाग या समूह को शामिल कर या उसमें से निकाल सकती है, लेकिन जैसा कि पहले कहा गया है, इन्हें छोडक़र, कथित धारा के अधीन जारी किसी भी सूचना को किसी भी तदनुपरांत सूचना द्वारा परिवर्तित नहीं किया जाएगा। इस प्रकार, किसी विशेष राज्य/केंद्रशासित प्रदेश के संबंध में अनुसूचित जनजातियों का पहला विशिष्टिकरण संबंधित राज्य सरकारों की सलाह के बाद, राष्ट्रपति के अधिसूचित आदेश द्वारा किया जाता है। ये आदेश तदनुपरांत केवल संसद की कार्यवाही द्वारा ही संशोधित किए जा सकते हैं। उपरोक्त अनुच्छेद अनुसूचित जनजातियों का सूचीकरण अखिल भारतीय आधार पर न करके राज्यों/केंद्रशासित प्रदेशों के अनुसार करने का प्रावधान भी करता है। किसी समुदाय के अनुसूचित जनजाति के रूप में विशिष्टिकरण के लिए पालन किए गए मापदंड हैं : आदिम लक्षणों के संकेत, विशिष्ट संस्कृति, भौगोलिक विलगाव, बृहत्तर समुदाय से संपर्क में संकोच और पिछड़ापन। ये मापदंड संविधान में लिखे नहीं गए हैं, लेकिन भली प्रकार से स्थापित हो चुके हैं।
ये सामान्य मानदंड 1931 की जनगणना की परिभाषाओं, प्रथम पिछड़ा वर्ग आयोग 1955 की रिपोर्टों, कालेलकर सलाहकार समिति और लोकुर समिति द्वारा तैयार की गई अनुसूचित जाति/जनजातियों की पुन:संशोधित सूचियों के आधार पर तय किए गए थे, परंतु आधी से अधिक सदी बीत जाने के बाद व्यापक मानदंडों में बहुत स्थलों पर विवेकाधिकार की बहुत गुंजाइश रह गई है। संविधान के अनुच्छेद 244 (1) के अंतर्गत पांचवीं अनुसूची परिभाषित करती है कि जनजातीय क्षेत्र ऐसे क्षेत्र हैं जिसे राष्ट्रपति उस राज्य के राज्यपाल से परामर्श करने के बाद आदेश द्वारा अनुसूचित करें। और क्षेत्र विशेष के जनजातीय घोषित हो जाने के बाद संबद्ध नियमों और प्रावधानों से सीधे स्वशासित हो जाता है, यानी कोई भी क्षेत्र जनजातीय क्षेत्र घोषित हो जाने के बाद राज्य सरकार के निर्धारित बजट का 9 फीसदी और केंद्रीय योजना के अनुरूप 275 (1) के अंतर्गत सीधे जनजातीय क्षेत्र को विभिन्न मदों में आर्थिकी अनुदान प्राप्य है, जिसको प्रदेश सरकार अन्यत्र स्थानांतरित नहीं कर सकती। अभी तक यह पूरी तरह से स्पष्ट नहीं है कि हाटी समुदाय की वास्तिक मांग क्या है, यानी क्या गिरिपार क्षेत्र को जनजातीय घाोषित करवाना है या फिर हाटी समुदाय, जिसमें विभिन्न जातियों के लोग और विभिन्न आर्थिक-सामाजिक पृष्ठभूमि वाले लोग हैं जो वर्तमान में विभिन्न प्रकार के अन्य आकर्षण और आरक्षण लाभ ले रहे हैं, जिनसे वे वंचित हो जाएंगे।
भारत के संविधान में अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्राप्त करने वाले समुदायों को कुछ संरक्षण प्रदान किए जाते हैं, लेकिन यह बात हमेशा ही विवादग्रस्त रही है कि किन समुदायों को अनुसूचित जनजाति का दर्जा प्रदान किया जाए। अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिलने का अर्थ है कि इन समुदायों को राजनीतिक प्रतिनिधित्व के रूप में, स्कूलों में आरक्षित सीटों के रूप में और सरकारी नौकरियों के रूप में वांछित ठोस लाभ प्राप्त होना। पिछले कुछ वर्षों में सामाजिक और राजनीतिक लामबंदी के कारण अनुसूचित जनजातियों की संख्या अब (एक से अधिक राज्यों में एक-दूसरे से टकराती हुई) 700 तक पहुंच गई है, जबकि सन 1960 में इनकी संख्या 225 थी। जैसे-जैसे अनुसूचित जनजातियों का दर्जा हासिल करने को इच्छुक समुदायों की संख्या बढ़ रही है, वैसे-वैसे ही किसी समुदाय को अनुसूचित जनजाति के रूप में मान्यता देने के औचित्य पर भी सवाल उठने लगे हैं और यही कारण है कि इसे दर्जा प्रदान करने के मानदंड की जांच कराने की मांग भी बढ़ती जा रही है। अनुसूचित जनजाति का दर्जा मिल जाने से प्राप्त होने वाले विभिन्न प्रकार के संरक्षणों और लाभों को हासिल करने के लिए भारत के अनेक समुदाय इन मानदंडों पर अपने आपको खरा सिद्ध करने के लिए हरसंभव उपाय करते हैं। हाटी समुदाय को जनजातीय घोषित किए जाने से पूर्व इन सबकी कसौटी पर इस मांग को खरा उतरना ही पड़ेगा।
राकेश कपूर
स्वतंत्र लेखक
By: divyahimachal
Rani Sahu
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