सम्पादकीय

आदिवासी राष्ट्रपति का तर्क सिर्फ आदिवासियों को गुमराह करेगा

Rani Sahu
23 Jun 2022 9:29 AM GMT
आदिवासी राष्ट्रपति का तर्क सिर्फ आदिवासियों को गुमराह करेगा
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देश में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जैसा माहौल अभी निर्मित हुआ है

Asit Nath Tiwari

सोर्स - Lagatar News

देश में राष्ट्रपति चुनाव को लेकर जैसा माहौल अभी निर्मित हुआ है, वैसा माहौल इससे पहले कभी नहीं बना था. भाजपा नीत एनडीए ने झारखंड की पूर्व राज्यपाल द्रौपदी मुर्मू को राष्ट्रपति उम्मीदवार बनाया है. मूर्मू आदिवासी हैं और ओडिशा की रहने वाली हैं. मूर्मू की उम्मीदवारी के समर्थन में भाजपा के शीर्ष नेताओं के जो तर्क सामने आए हैं वो देश के सर्वोच्च पद की गरिमा को सीधा आघात पहुंचाने वाले हैं. द्रौपदी मुर्मू की उम्मीदवारी के समर्थन में भाजपा का जो जोरदार तर्क है वो है उनका आदिवासी होना. राष्ट्रपति जैसे एकल महत्वपूर्ण पद के लिए जाति की दुहाई एक शर्मनाक तर्क है लेकिन, इससे ज्यादा शर्मनाक है जातिवाद को बढ़ावा देती राजनीति. ये राजनीति सिर्फ भाजपा नहीं करती है बल्कि, देश के सभी राजनैतिक दल करते रहे हैं और कर भी रहे हैं.
अब सवाल उठता है कि ऱाष्ट्रपति के चुनाव में जाति की दुहाई का मतलब क्या है? इस सवाल का जवाब तलाशने के लिए ज्यादा दूर जाने की जरूरत नहीं हैं. मौजूदा राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दलित समुदाय से आते हैं. उनके चुनाव के समय भी उनके दलित होने की दलील दी गई थी. उनसे पहले दलित सुमदाय से आने वाले ज्ञानी जैल सिंह और केआर नारायणन भारत के राष्ट्रपति चुने गए हैं. दलित समुदाय से आने वाले इन तीनों राष्ट्रपतियों के कार्यकाल में दलितों के लिए कोई खास योजना नहीं बनाई जा सकी. दो दलित राष्ट्रपति कांग्रेस ने बनाए और एक भाजपा ने. तीनों ऐसा कुछ नहीं कर पाए जिससे दलितों का भला हुआ हो. लेकिन इसमें इन तीनों राष्ट्रपतियों को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि, राष्ट्रपति को मिले अधिकारों में ऐसा कोई अधिकार शामिल नहीं है, जिससे वो किसी वर्ग विशेष के पक्ष में कोई कानून बना सके या फिर कोई योजना शुरू कर सके. मतलब ये कि द्रौपदी मुर्मू के आदिवासी होने की दुहाई सिर्फ इसलिए है कि इससे आदिवासी वोटबैंक को साधा जा सके वरना, दलील देने वाले भी ये जानते हैं कि मुर्मू के राष्ट्रपति बनने से आदिवासियों का कोई भला नहीं हो सकता.
द्रौपदी मुर्मू के पक्ष में दिए जा रहे दूसरे तर्क में भी कोई दम नहीं है. दूसरा तर्क है उनका महिला होना. इससे पहले कांग्रेस सरकार ने प्रतिभा देवी सिंह पाटिल नाम की महिला को राष्ट्रपति की कुर्सी पर बैठाया है और, पूरे देश ने देखा है कि इससे महिलाओं को कुछ हासिल नहीं हुआ. हो भी नहीं सकता क्योंकि, हमारा संविधान राष्ट्रपति को ऐसे कोई अधिकार देता ही नहीं है. बेहतर होता कि भाजपा अपने उम्मीदवार के पक्ष में उनकी राजनैतिक दक्षता, उनकी संवैधानिक समझ और लोकतांत्रिक मूल्यों में उनकी निष्ठा की दुहाई देती. भाजपा ये बताती कि उसकी उम्मीदवार वर्ष 2016 में हुई मोदी सरकार की उन दो गलतियों को नहीं दुहराएगा जिससे ऱाष्ट्रपति पद की गरिमा को ठेस पहुंची थी. फरवरी 2016 में तत्कालीन राज्यपाल की अनुशंसा पर अरुणाचल प्रदेश में राष्ट्रपति शासन लगा. कांग्रेस के बागी नेता कलिखो पुल को समर्थन देकर भाजपा ने वहां सरकार भी बनी ली. मामला सुप्रीम कोर्ट गया. सुप्रीम कोर्ट ने न सिर्फ कलिखो पुल सरकार के शपथ ग्रहण को अवैध ठहराया बल्कि, राष्ट्रपति शासन को भी असंवैधानिक करार दिया.
सर्वोच्च न्यायालय ने ये तक कहा कि राष्ट्रपति को मिले विशेषाधिकार का मतलब ये नहीं कि वो संविधान के दायरे से बाहर हो फैसले लेने लगें. इस घटना के कुछ ही दिनों बाद उत्तराखंड की कांग्रेस सरकार को बर्खास्त कर वहां राष्ट्रपति शासन लागू कर दिया गया. ये मामला भी कोर्ट गया. केंद्र सरकार के वकील ने जब उत्तराखंड हाईकोर्ट को ये बताया कि राष्ट्रपति शासन की अनुशंसा पर राष्ट्रपति के दस्तखत हो गए हैं और अब इस फैसले को पलटा नहीं जा सकता, हाईकोर्ट ने उन्हें खरी-खोटी सुना दी और ये तक कह दिया कि राष्ट्रपति कोई राजा नहीं हैं जो उनके फैसले की समीक्षा नहीं हो सकती. बाद में हाईकोर्ट ने राष्ट्रपति शासन को असंवैधानिक घोषित कर दिया.
इसलिए चुनाव में राष्ट्रपति उम्मीदवार की जाति बताने से बेहतर होता कि भाजपा ये बताती कि उसकी तरफ से दिए गए उम्मीदवार में संविधान की रक्षा करने की पूरी योग्यता है. उसकी उम्मीदवार केंद्र सरकार के दबाव में आकर कोई फैसले नहीं लेगा. दरअसल यही दोनों योग्याताएं राष्ट्रपति को रबर स्टांप होने से बचाती हैं.


Rani Sahu

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