सम्पादकीय

कठघरे में जांच

Subhi
8 Oct 2021 1:08 AM GMT
कठघरे में जांच
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पिछले साल फरवरी में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में हुए सांप्रदायिक दंगों ने सभी संवेदनशील लोगों को दहला दिया था। देश की राजधानी होने के नाते सबसे ज्यादा सुरक्षा

पिछले साल फरवरी में दिल्ली के उत्तर-पूर्वी इलाके में हुए सांप्रदायिक दंगों ने सभी संवेदनशील लोगों को दहला दिया था। देश की राजधानी होने के नाते सबसे ज्यादा सुरक्षा-व्यवस्था वाला क्षेत्र होने के बावजूद इन दंगों को शुरुआती दौर में ही रोक पाने में यहां का पुलिस तंत्र नाकाम रहा। ज्यादा अफसोसनाक यह था कि दंगों के बाद आरोपियों की गिरफ्तारी और मामलों की जांच को लेकर पुलिस के रवैये ने फिर यह साफ किया कि चाक-चौबंद सुरक्षा-व्यवस्था के बावजूद व्यापक दंगे बदस्तूर होते रहने की क्या वजहें होती हैं! त्रासद विडंबना यह है कि दंगों को रोक पाने में नाकामी के बाद पुलिस महकमे से जुड़े लोग दर्ज मामलों की जांच को लेकर भी गंभीर लापरवाही बरतते या फिर उन पर पर्दा डालने की कोशिश करते हैं। बुधवार को दिल्ली की एक अदालत ने इसी रवैये को रेखांकित करते हुए जैसी तीखी टिप्पणियां कीं, वह अपने आप में बताने के लिए काफी है कि जिम्मेदारी और जवाबदेही के बरक्स व्यवहार में पुलिस क्या करती है!

दरअसल, दिल्ली में हुए दंगों के एक मामले में गवाही देते हुए एक हेड कांस्टेबल ने जहां संबंधित इलाके में बीट अधिकारी के रूप में अपनी तैनाती के चलते कुछ आरोपियों को उनके नाम, हुलिए और पेशे से पहचानने की बात कही, दंगों के समय मौके पर उनकी मौजूदगी पर 'स्पष्ट रूप से जोर दिया', वहीं अभियोजन की ओर से अन्य गवाह के रूप में एक सहायक उप-निरीक्षक ने कहा कि जांच में इन आरोपियों की पहचान स्थापित नहीं हो सकी। जाहिर है, एक ही मामले में गवाह के रूप में पेश हुए दो पुलिसकर्मियों के बयानों में विरोधाभास है। यह बेवजह नहीं है कि कड़कड़डूमा जिला अदालत के एक अतिरिक्त सत्र न्यायाधीश ने इस मामले की सुनवाई के दौरान कई अहम टिप्पणियां कीं, जो पुलिस के कामकाज की शैली और आग्रहों को आईना दिखाती हैं। अदालत ने कहा कि रिकार्ड में ऐसी कोई सामग्री नहीं है कि संबंधित आरोपियों को पकड़ने के लिए जांच अधिकारी की ओर से कभी प्रयास किए गए थे। इसलिए प्रथम दृष्टया ही पुलिस गवाहों में से एक शपथ लेने के बाद भी झूठ बोल रहा है, जो भारतीय दंड संहिता की धारा 193 के तहत दंडनीय है और यह बहुत ही अफसोसनाक स्थिति है।
हालांकि यह पहला मौका नहीं है जब अदालत ने दिल्ली दंगों की पृष्ठभूमि में पुलिस के रुख और जांच को लेकर तीखे सवाल उठाए हैं। बीते दो सितंबर को भी अदालत ने कहा था कि जब इतिहास विभाजन के बाद से राष्ट्रीय राजधानी में सबसे भीषण सांप्रदायिक दंगों को देखेगा, तो उचित जांच करने में पुलिस की नाकामी लोकतंत्र के प्रहरी को पीड़ा देगी। इससे पहले 28 अगस्त को भी अदालत ने एक अन्य मामले की सुनवाई करते हुए कहा था कि दिल्ली दंगों के ज्यादातर मामलों में पुलिस की जांच का मापदंड बहुत घटिया है। गौरतलब है कि दिल्ली में हुए दंगों में तिरपन लोगों की जान चली गई थी, जबकि सात सौ से ज्यादा घायल हुए थे। किसी भी अपराध और अराजकता से निपटने में पुलिस-तंत्र की भूमिका सबसे स्पष्ट होती है। अगर किन्हीं हालात में ऐसी घटनाएं होती हैं, तो उस पर काबू पाना, मामलों की जांच करना और दोषियों को सजा दिला कर पीड़ितों को इंसाफ दिलाना भी पुलिस की कार्यशैली और रवैये पर निर्भर है। लेकिन अक्सर पुलिस का रुख उसके दायित्वों के उलट देखा जाता है। यही वजह है कि कई बार गंभीर अपराधों के दोषी बच निकलते हैं या फिर पीड़ितों को इंसाफ मिलना दुष्कर होता है।


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