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- लौटती लहरों की बेवफा...
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बहुत दिनों के बाद हमने बूढ़ों को अजब उत्साह में देखा। पिछले दो वर्ष का समय तो गुजर गया, महामारी के प्रकोप से भयभीत होकर घरों में बंद रहते। तब पता लगा था इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है। वैसे ये दिन बूढ़ों के लिए कठिन नहीं थे। छह हाथ की दूरी तो नाते रिश्तेदार उनसे रख ही रहे थे। वैसे भी उनका इस उम्र में चेहरे का सुर ताल यूं बिगड़ जाता है कि कोई उसकी लय से बंधना नहीं चाहता। उनकी कान पर जनेऊ चढ़ा शिव-शिव कह कर जिंदगी काटने की उम्र आ गई है। उम्र भर की साथिन बुढिय़ा तक उनकी छाया से परहेज करती है। खुद भी साफ रहती है, अपने बूढ़े को भी शुद्ध पवित्र रहने का हुक्म देती है। अजी ये गहराइयां कहां साफ होती हैं? फिलहाल तो हाथ ही साफ किये जा रहे हैं। फिर अचानक खबर मिली कि महामारी रुखसत ले रही है। घरों में कैद लोग बाहर आ गये। रोजी रोटी की फिराक में एक पर दूसरा चढ़ा जा रहा था। सामाजिक अन्तर कहां रह पाता? फिर वही धंधे शुरू हो गये, जिनके कीचड़ में महामारी से पहले भी हाथ लिथड़े हुए थे। नकाब की क्या पूछते हो, वह तो उतर ही गये। अब उसकी जगह दुनियादारी के नकाबों ने चेहरों को ढक लिया। लोग झंझावात के गुजर जाने के एहसास के साथ बढ़-चढ़ कर हाथ मारने लगे।
हाथ धोने की फुर्सत अब किसे थी? गुजरे बन्दी वातावरण में जो माया खोई है, उसे भी लपेटना है। हाथों के साफ रहने की परवाह कौन करता? बेचारा बूढ़ा क्या करे? वह तो पहले ही इस दौड़ से बाहर कर दिया गया था। अब खोये वक्त को पुन: समेट लेने की भेडिय़ा घसान ने उसे और अकेला कर दिया। पहले ही उसकी परवाह कौन करता था। अन्धी दौड़ ने उसे और अकेला कर दिया। वह अपनी बुढ़ापा पैंशन के बढऩे का इंतजार करने लगा कि जिसका वायदा कभी उससे किया गया था, पूरा नहीं हुआ।
लौटती लहरों की बांसुरी से दिन बदल रहे थे। इस देश में दुनिया का सबसे तेज टीकाकरण अभियान चलाया गया था तो पूरे देश में टीकाकरण होने लगा। बूढ़ों की बारी बाद में आई, पहले महामारी के चिकित्सकों और जुझारुओं को टीके लगने थे। वे लोग आगे बढऩे में हिचकिचाने लगे। उनकी दोबारा जमती हुई जिंदगी की इतनी भारी दौड़ थी कि सभी कह देते, ‘लगवा लेंगे यार लगवा लेंगे। टीके कहीं भागे जाते हैं।’ तब आ गई तीसरे दर्जे पर बूढ़ों की बारी। भई क्या उत्साह दिखाया इन लोगों ने! शायद वरिष्ठ नागरिक कहलाये जाने से प्रसन्न हो गये वे। उनकी कतारों पर कतारें लगने लगी। टीकाकरण की गति ने कुलांच भरी। लेकिन विधि के खेल न्यारे हैं भय्या। जिस महामारी को विदा देने के लिए गरीब गुरबा के हाथ हिल रहे थे, फिर से जिंदगी पा लेने की उम्मीद में भाग दौड़ शुरू हो गई थी। उस महामारी के विदा लेने के बाद अब डेंगू, मलेरिया और नये-नये वायरस आ धमके। बूढ़े पहले टीके लगवा चुके थे, लेकिन यहां नये संक्रमणों का आसुरी नृत्य शुरू हो गया। अब फिर से चेहरों को नकाब से ढक लो और दुनियादारी के फरेब छोड़ फिर शुचित पवित्रता पर ध्यान दो। घरों के अंदर मच्छर मक्खियों को साफ करने का भी हुक्म हो गया। फिर से बूढ़ों के लिए एकालाप का संकट आ गया। जिंदगी अब तरक्की की राह पर सरपट भागेगी, तरक्की के आंकड़ों का नया सूरज उन्हें बताने का प्रयास करने लगा था। उसे अवसाद के रोगी अंधेरों की चादर फिर घूंघट ओढ़ाने लगी। बेबस आदमी क्या करे? यह विधि के खेल न्यारे हैं, दुर्दिनों के साये गहरे और लम्बे होने लगे भय्या। बूढ़ों को लगा था, दो साल पहले लगवाए गए कोरोना के टीके के बाद उनकी जिंदगी अब बदल जाएगी, लेकिन वह तो नहीं बदली। उनका एकालाप का संताप खत्म नहीं हुआ। अब पैर पसारते हुए मौन में चुनाव रैलियों का शोर उभरने लगा है। भई दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है। इसे जिंदा रखना है।
सुरेश सेठ
By: divyahimachal
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