सम्पादकीय

गंतव्य से दूर यात्री: पुनर्जीवन, पूर्वानुमान और 'हिंदी' पट्टी के सहारे राजनीति, उथल-पुथल की ओर बढ़ती दुनिया

Neha Dani
15 Sep 2022 1:50 AM GMT
गंतव्य से दूर यात्री: पुनर्जीवन, पूर्वानुमान और हिंदी पट्टी के सहारे राजनीति, उथल-पुथल की ओर बढ़ती दुनिया
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राजनीति और अर्थशास्त्र का रंग प्रतिबिंबित होता है।

एक लोकप्रिय गीत है- कम सेप्टेंबर, जो हमें शरद ऋतु के आगमन की सूचना देता है। और अब जबकि सर्दियां शुरू होने को हैं, तो बहुत से घटनाक्रम एक साथ चल रहे हैं। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस अपने इतिहास को पुनर्जीवित करने की कोशिश कर रही है। क्षेत्रीय दल फिर से अपनी प्रासंगिकता तलाशने के लिए गठजोड़ कर रहे हैं। शेयर बाजार विकास के पूर्वानुमानों एवं केंद्रीय बैंकों को चुनौती दे रहे हैं। विकसित दुनिया विरोधाभासी रूप से तीसरी दुनिया की नीतियां अपना रही है। जैसे-जैसे विभिन्न समय क्षेत्रों (टाइम जोन) में घटनाएं एवं यात्राएं सुर्खियां बनती हैं, राजनीति और अर्थशास्त्र का रंग प्रतिबिंबित होता है।




वर्ष 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में लगातार हार और कई राज्यों में पराजित होने के बाद कांग्रेस इतिहास को पुनर्जीवित कर अपना भविष्य बनाने की कोशिश कर रही है। राहुल गांधी को वर्ष 2013 में उत्तराधिकारी नियुक्त हुए लगभग एक दशक हो गए हैं और वह 'भारत एक खोज' के अपने संस्करण में नया अध्याय जोड़ते जा रहे हैं। उन्होंने कहा, 'यात्रा से मुझे अपने बारे में और इस खूबसूरत देश के बारे में कुछ समझ आएगी और इन दो-तीन महीनों में मैं समझदार हो जाऊंगा।'


कांग्रेस पार्टी केवल यह उम्मीद कर सकती है कि इस यात्रा से ऐसा विचार मिलेगा, जो कि उसके नेता और पार्टी को पुनर्जीवित करेगा। स्वतंत्र भारत का राजनीतिक अभिलेखागार राजनीतिक यात्राओं के उदाहरणों से भरा पड़ा है, मसलन, एनटी रामाराव ने वर्ष 1982 में रथ यात्रा का रास्ता दिखाया। वर्ष 1983 में इंदिरा गांधी को चुनौती देने के लिए चंद्रशेखर ने पदयात्रा की, 1990 में राजीव गांधी ने पुनः सत्ता पाने के लिए पूरे भारत की यात्रा की और लालकृष्ण आडवाणी सोमनाथ से अयोध्या तक के लिए रथ पर सवार हुए।

इतिहास बताता है कि यात्राएं हमेशा यात्रियों को गंतव्य तक नहीं ले जाती हैं। हालांकि यात्रा नेता और पार्टी या पार्टी और लोगों को जोड़ती है, इसमें कोई विवाद नहीं है कि राहुल गांधी ने थोड़ी देर के लिए ही सही, ध्यान आकर्षित किया है। हालांकि राजनीतिक बाजार में हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए यह ध्यानाकर्षण पर्याप्त नहीं है। कांग्रेस को सुविधाजनक महत्वाकांक्षा से राजनीतिक उद्देश्य की तरफ बढ़ना चाहिए। व्यापक लोगों को जोड़ने के लिए इसे एक विचार और संगठन की जरूरत है।

क्या राहुल गांधी के पास जनता को जोड़ने का कोई मंत्र है? उदाहरण के लिए, जो पार्टी 1991 के उदारीकरण के दौर में सत्ता में थी, उसे दाएं-बाएं रास्ता तलाशने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। जैसी कि शरद पवार ने चुटकी ली, 'कांग्रेस ढहती हवेली में रहने वाले गरीब जमींदार की तरह है।' पार्टी में विचार और क्षमता का अभाव है। सिर्फ राहुल गांधी ही अपनी पार्टी की राजनीतिक प्रासंगिकता को पुनर्जीवित करने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। जदयू नेता और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, जिन्हें यू-टर्न लेने में महारत हासिल है और जो 2014 में प्रतिस्पर्धी थे, खुद को 2024 में 'संभावित' राष्ट्रीय विकल्प के रूप में पेश कर रहे हैं।

दिल्ली यात्रा में उन्हें आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल, राकांपा नेता शरद पवार और सपा नेता अखिलेश यादव समेत कई अन्य नेताओं से बातचीत करते हुए देखा गया। वर्ष 2024 में 'मोदी बनाम कौन' का जवाब अभी अस्पष्ट है। लेकिन छापे और आरोपों से घिरी पार्टियां एक साझा मोर्चे के विचार के इर्द-गिर्द एकजुट होती दिख रही हैं। कोलकाता में ममता बनर्जी ने 'खेला होबे' का आह्वान किया और झामुमो प्रमुख व झारखंड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन एवं नीतीश कुमार के साथ एक मोर्चा बनाने की घोषणा की।

यह तर्क दिया जाता है कि नीतीश कुमार को 'हिंदी' पट्टी से होने का फायदा है, लेकिन मूल बात यह है कि किसी भी 'तीसरे मोर्चे' को 150 से अधिक सीटों की आवश्यकता है, जो अभी नहीं जुड़ पा रहा है। संभवतः गठबंधन की राजनीति में उभार दुनिया भर में मुद्रास्फीति के कारण निराशाजनक आर्थिक पूर्वानुमानों से आया है। और क्षेत्रीय दल ग्रामीण लोगों, शहरी गरीबों एवं छोटे व्यवसायों की कमजोरी के बीच शायद आर्थिक संकट में चुनावी अवसर की गंध महसूस करते हैं।

अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक के विकास पूर्वानुमान बताते हैं कि दुनिया मंदी के कगार पर है। मुद्रास्फीति पर अंकुश लगाने और मुद्राओं को बचाने के लिए केंद्रीय बैंकों द्वारा ब्याज दर में बढ़ोतरी से विकास को नुकसान होगा। भारत निश्चित रूप से बेहतर स्थिति में है, लेकिन यह पैसे की बढ़ती लागत और घटते विकास के प्रभाव से अलग नहीं है। मजे की बात यह है कि लगता है, शेयर बाजार एक अलग दुनिया है। विकास घटने के बावजूद दुनिया भर में शेयर बाजार में तेजी है।

दुनिया भर के शेयर सूचकांक रिजर्व बैंक और दुनिया के अन्य केंद्रीय बैंकों द्वारा अनुमानित मंदी को चुनौती दे रहे हैं। यह सच है कि अंतरराष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतें कम हैं, लेकिन मुद्रास्फीति दुनिया भर में असहनीय है। भारत में अगस्त में उपभोक्ता मूल्य मुद्रास्फीति जुलाई की तुलना में अधिक थी-जो रिजर्व बैंक और सरकार द्वारा निर्धारित सीमा से काफी ज्यादा थी। यह ऐसा है, जैसे शेयर बाजार केंद्रीय बैंकों से कह रहा है कि वह बेहतर जानता है कि बाजारों में अस्थिरता उम्मीद और वास्तविकता के बीच संघर्ष का प्रतीक है।

वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं पर अनिश्चितता के बादल मंडरा रहे हैं। भारत में मुफ्त रेवड़ी निरंतर राजनीतिक बहस का विषय है। विडंबना देखिए कि जो देश कभी सब्सिडी पर भारत को पाठ पढ़ाते थे, वे भी रेवड़ी बांट रहे हैं। महारानी एलिजाबेथ द्वितीय के निधन से एक दिन पहले ब्रिटिश सरकार ने उपभोक्ताओं के लिए अब तक का सबसे बड़ा (150 अरब डॉलर) ऊर्जा सब्सिडी पैकेज पारित किया। जर्मनी और कई यूरोपीय देशों की सरकारों ने भी बिजली और गैस के बिलों को मौजूदा स्तरों पर सीमित कर दिया है।

गौरतलब है कि कुछ समय पहले सार्वभौमिक बुनियादी आय के विचार को दुनिया भर की सरकारों द्वारा चुनौती दी गई थी। महामारी के बाद आय सहायता योजनाओं का तंत्र सर्वत्र है। सीधे नकद हस्तांतरण पर उभरती आम सहमति सरकार की भूमिका और कल्याण की परिभाषा पर बहस को जन्म देती है। जाहिर है, पुरानी कहावत के अनुसार, दुनिया उथल-पुथल की ओर बढ़ रही है।

सोर्स: अमर उजाला

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