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By: divyahimachal
ट्रांसफर के चक्रव्यूह को तोडक़र सामने आए एक अदालती फैसले ने बता दिया है कि ऐसी अर्जियों के कान कैसे पकड़े जा सकते हैं। हाई कोर्ट ने अपनी तरह के सख्त निर्णय में न केवल ट्रांसफर की फाइल को बेनकाब किया है, बल्कि इसकी मुख्य भूमिका में आए बिजली बोर्ड के दो सहायक अभियंताओं को समझा दिया है कि सरकारी सेवा में दायित्व का निर्वहन किस तरह संभव है। स्थानांतरण कोई ऐसा अधिकार या राजनीतिक प्रभाव नहीं कि कोई भी सरकारी नौकर एक ही शहर में तीन दशक गुजार दे, लेकिन शिमला की आबोहवा तथा राजधानी ने ऐसी संस्कृति पैदा कर दी है कि यहां लोग एक ही दायरे में घूम रहे हैं या कुर्सियों से चस्पां हैं। न्यायाधीश तरलोक सिंह चौहान तथा न्यायाधीश वीरेंद्र सिंह की खंडपीठ ने चार किलोमीटर दूर हुए स्थानांतरण के खिलाफ आई याचिका पर ऐतिहासिक निर्णय दिया है। शिमला की परिधि में पिछले तीस दशकों से खुद को चिपकाने में माहिर ये अधिकारी, अंतत: अदालत के आदेश से किन्नौर और लाहुल भेजे जा रहे हैं। बावजूद इसके कि यह निर्णय कड़े संदेश लेकर तमाम ट्रांसफरों की फेहरिस्त में सवाल पैदा कर रहा है, प्रदेश ने आजतक ऐसी क्रियाविधि नहीं अपनाई ताकि पूरी पारदर्शिता से सरकारी ढांचे में लोग काम कर सकें।
स्थानांतरण का जखीरा सरकारी कार्यसंस्कृति पर इस कद्र हावी है कि सरकारें तो बदल जाती हैं, लेकिन नौकरी के झुंड में कर्मचारियों की सत्ता बरकरार रहती है। आज तक किसी भी सरकार ने स्थानांतरण जैसे विषय पर स्पष्टता से न तो कुछ कहा और न ही नीति- नियम निधार्रित किए। व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर आई वर्तमान सुक्खू सरकार से ऐसी आशा है कि प्रदेश भर में ट्रांसफर के मेले रुकेंगे तथा इनकी निरंतरता में केवल विभागीय आवश्यकताएं तथा संदर्भ ही निर्णायक हो पाएंगे। सुक्खू सरकार ने अभी तक ऐसा संकेत नहीं दिया है कि स्थानांतरण प्रक्रिया में इसके पूर्वाग्रह हैं, बल्कि पिछली सरकार के कर्मचारी, अधिकारी व नौकरशाह ही अहम पदों पर बरकरार हैं। शिक्षा व स्वास्थ्य जैसे विभागों में स्थानांतरण पर कुछ आरंभिक निर्देश आए हैं, जिनसे कार्यसंस्कृति को सुकून से दायित्व निर्वहन में आत्मबल मिल रहा है, फिर भी एक व्यापक, सक्षम व व्यावहारिक स्थानांतरण नीति के तहत नियम सामने आने चाहिएं। माननीय अदालत ने अपने सामने आए एक मामले को जरूर अंजाम तक पहुंचाया है, लेकिन ट्रांसफर के अधिकांश मामलों में केवल एक स्थायी परिक्रमा जारी है। ट्रांसफर एक कवर की तरह कई लोगों के मंतव्य को बचा रहा है। यहां कृत्रिम तौर पर श्रृंखलाएं बनाई जा रही हैं और जहां गणित के किसी फार्मूले की तरह विभिन्न पदों की म्यूजिकल रेस, आपसी समझौते के तहत पूर्ण होती है। जाहिर है सत्ता के केंद्र में सर्वप्रथम शिमला के इर्द-गिर्द ट्रांसफर पैटर्न को समझें तो मालूम होगा कि कितने लोगों को पांगी, भरमौर, सिरमौर, शिलाई, डोडरा-क्वार, काजा या किन्नौर में होना चाहिए। स्थानांतरण को जवाबदेही, परफार्मेंस और कार्य दक्षता के हिसाब से जोडऩा होगा, जबकि इसका मूल प्रारूप घर से दूरी तथा कार्य क्षेत्र की सहूलियतों से जुडऩा चाहिए। मसलन स्थानांतरण की न्यूनतम निकटता कम से कम बीस किलोमीटर होनी चाहिए और इसी के हिसाब से भत्तों का भुगतान होना चाहिए। केवल शिमला में ही राजधानी भत्ता क्यों। हर उस व्यक्ति को ऐसा विशेष भत्ता उसके घर से पचास, सौ किलोमीटर या इससे अधिक दूरी पर नौकरी करने के हिसाब से दिया जाए, तो अधिकांश स्थानांतरण वर्जित लोगों की जेब कटेगी। प्रदेश में स्थानांतरण के विशेषाधिकार पर कब्जा किए राज्य सचिवालय की कार्यसंस्कृति की दुरुस्ती भी इस लिहाज से आवश्यक है। एक तो सचिवालय में स्थापित लोग पूरे प्रदेश से अनभिज्ञ रहते हैं, दूसरे इन्हीं के कक्ष में स्थानांतरण प्रक्रिया की कुंजी रहती है। एक बार शिमला सचिवालय के स्थानांतरण नियम बदल कर पूरी परिपाटी को हिमाचल के विभिन्न हिस्सों में बदल दिया जाए, तो सारी पींगें टूट जाएंगी तथा कार्यसंस्कृति का एक नया उदय राजधानी से लेकर दूरदराज के इलाकों तक हो जाएगा।

Rani Sahu
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