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राजनीति में बदलाव और बदले का गठजोड़ धीरे-धीरे ऐसे हुकमरान पैदा करने लगा है
By: divyahimachal
राजनीति में बदलाव और बदले का गठजोड़ धीरे-धीरे ऐसे हुकमरान पैदा करने लगा है, जो अपने इशारों पर सत्ता का नमक हलाल करवा सकते हैं या मजा चखा भी सकते हैं। इसलिए सरकारी नौकरी अब एक गठबंधन और स्थानांतरण एक विचारधारा बनता जा रहा है। अगर कोई कर्मचारी-अधिकारी वर्षों तक एक ही स्थान पर केवल कार्यालय बदल कर स्थिर और स्थायी बना हुआ है, तो यह ऐसी योग्यता है जिसका अनुसरण किया जाता है। एसडीएम रोहड़ू के एक माह के भीतर फिर से हुए स्थानांतरण पर अदालती रोक से यह तो साबित हो ही जाता है कि हर ट्रांसफर के पीछे अपने प्रभाव, मनौतियां व मन्नतें हैं। जहां किसी अधिकारी या कर्मचारी की मिट्टी खराब होती है या यूं कहें कि जब सरकारी नौकरी में कोई अपनी मिट्टी को अलग से देखता है, तो सिस्टम उसे किनारे लगाने की वजह ढूंढ लेता है। यानी सरकारी नौकरी अगर चाकरी है, तो यह सत्ता की खुशामद में चुग्गा हासिल करने की अनिवार्यता भी बनती जा रही है। बहरहाल हम किसी निर्णय या किसी ट्रांसफर के मकसद की आलोचना न भी करें, लेकिन किसी प्रशासनिक अधिकारी के आठ साल के सेवा काल में नौ बार के स्थानांतरण में न तो रूटीन देख सकते हैं और न ही इस तरह के फैसलों में सुशासन की बुनियाद देख पाएंगे।
अदालत ने कानूनी दृष्टि से अगर एक प्रशासनिक अधिकारी के स्थानांतरण में खोट पाया है, तो ऐसी पद्धति में ईमानदारी के ग्रहण पर गौर करना होगा। हम इक्का-दुक्का उदाहरणों से यह तसदीक होता तो देख सकते हैं कि स्थानांतरणों में बुरे वक्त की निशानी चस्पां होती है, लेकिन यह पकड़ नहीं पाते कि कार्य संस्कृति के भीतर ऐसे कितने सुराख हैं। वर्षों बाद भी स्थानांतरण का वही पुराना ढर्रा और इसके माध्यम से अपने और परायों में बंटती सरकार की कार्य संस्कृति, यह फैसला क्यों नहीं कर पाती कि स्थायी तौर पर कोई पद्धति सामने आए या कम से कम ट्रांसफर हथौड़े की तरह प्रताड़ना न बने। इस बार भी आरंभिक दौर में लगने लगा था कि कम से कम शिक्षा विभाग अपने कर्मचारियों के लिए स्थानांतरण नियम चुन लेगा, लेकिन सोचने का यह अंदाज भी खोखला साबित हो गया। सरकारी स्थानांतरणों के जख्म झेलती कार्यसंस्कृति कितनी मजबूर होती होगी, जब कोई प्रशासनिक अधिकारी एक माह के भीतर ही चलता कर दिया जाता है। वह अस्पताल कितना अफसोस मनाता होगा, जब किसी विशेषज्ञ डाक्टर की अकाल ट्रांसफर करते हुए उसकी भरपाई नहीं होती। उस स्कूली पाठ्यक्रम का क्या होता होगा, जिसे पूरा करने से पहले शिक्षक रुखसत कर दिया जाता है और इस बदलाव से रिक्ति पैदा हो जाती है।
इसी तरह सुशासन या किसी परियोजना को अमली जामा पहनाने में सफलतम अधिकारी को नापसंद करके कहीं अन्यत्र पहुंचा दिया जाता है, तो यह रिसाव कभी मिटता नहीं। सचिवालय में बनती-बिगड़ती स्थानांतरण की चिट्ठियां अगर खुन्नस में बदलाव करेंगी, तो समाधानों की इबारत ईमानदार कैसे होगी। शिमला सचिवालय पूरे प्रदेश के कर्मचारी और अधिकारियों को बदल देने की क्षमता तो रखता है, लेकिन इसके भीतर स्थानांतरण की शर्त क्यों नहीं लागू होती। आश्चर्य यह भी कि हर बार स्थानांतरण को न तो चुनौती मिल सकती और न ही अदालत के जरिए हर बार यह साबित होगा कि इसकी आवश्यकता या प्रासंगिकता कितनी थी। यदि सियासी गलियों में आम कार्यकर्ता को यह हक मिलना शुरू हो जाए कि वे अपनी पसंद-नापसंद से सरकारी कर्मचारी या अधिकारी की प्रोफाइल लिखें, तो कोई भी निष्पक्ष भाव से अपना दायित्व कैसा पूरा करेगा। इसलिए अब तो पुलिस रिपोर्ट भी सियासी दखल से कलम उठाती है, तो कानून व्यवस्था का हर पहलू इसी प्राथमिकता में आगे आता है। प्रदेश में सुशासन की दृष्टि से कड़े फैसले और कड़वे घूंट पीने पड़ेंगे, लेकिन सौहार्द और आपसी भाईचारे की राजनीति ऐसा कभी होने नहीं देगी। चुनावी वर्ष में कई वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी, इंजीनियर, डाक्टर या कर्मचारी अगर अपने कार्यक्षेत्र से हटकर टिकटों के शिविर में मशरूफ हैं, तो सियासत के इस तिलिस्म को भेद पाना मुश्किल है। सरकारी नौकरी के बीच विकसित होती सबसे मजबूत परिपाटी तो स्थानांतरण के नाम पर खुद को स्थापित करना और सदा के लिए बनाए रखना है, वरना उल्टा तैरने वालों के लिए जंजीर से बांधने का इंतकाम है ट्रांसफर।
Rani Sahu
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