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
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एक बार फिर हिमाचल की ट्रांसफर फाइल चर्चाओं में है और पहली बार किसी सरकार ने खुले रूप से नौकर व अफसरशाही को बाज आने की हिदायत दी है। जाहिर है हिमाचल में ट्रांसफर का सिफारिशी तंत्र विकसित हुआ है और इसीलिए इसकी एक ऐसी विस्तृत संस्कृति व सहमति है, जो हर सरकार के दामन में दाग ही चस्पां नहीं करती, बल्कि सुशासन, विकास और आर्थिकी के अनुशासन व सरकारों के प्रयत्न को भी निराशावाद में घसीट देती है। ऐसे में राजनीतिक सिफारिश के खिलाफ अगर सुक्खू सरकार अपना नैतिक फर्ज निभा पाती है, तो यह व्यवस्था परिवर्तन का लाजिमी उपहार होगा। हालांकि हर ट्रांसफर के पीछे राजनीतिक चक्र और तुष्टीकरण का माहौल बनाया जाता है, फिर भी अब तक की सरकारों ने स्पष्ट नीति व नियम बनाने की दिशा में प्रयास नहीं किए। पिछली सरकार में कम से कम अध्यापक स्थानांतरण के नियम बन चुके थे, लेकिन सियासत को यह गवारा न हुआ। अपने साहसिक मोड पर मुख्यमंत्री सुखविंदर सुक्खू ऐसा अलख जगाते हैं, तो कई ईमानदार अधिकारी व कर्मचारी उन्हें दुआएं देंगे।
स्थानांतरण नीति को शिमला की पोस्टिंग व प्लेसमेंट समझने ही नहीं देती और इसे एक मकडज़ाल बनाकर रखने में राजधानी के विभागीय मुख्यालय और राज्य सचिवालय की कार्यसंस्कृति को पलटना होगा। ट्रांसफरों के माध्यम से एक अनूठा क्षेत्रवाद, जातिवाद, राजनीति, राजनीतिक ठेकेदारी और सरकार में होने की हिस्सेदारी निचले स्तर तक है। यह अपने आप में एक अर्थतंत्र भी है और यह सरकारी नौकरी, नियुक्तियां व लाभकारी पद पाने से लेकर कर्मचारी व अधिकारी सियासत को हमेशा बुलंद रखने की तनख्वाह भी है। धीरे-धीरे नेताओं ने अपने कॉडर और पसंद की देखभाल के लिए कर्मचारी व अधिकारी पालने शुरू किए हैं। यही वजह है कि अधिकांश ट्रांसफर आर्डर एक तरह का पालतू प्रमाणीकरण है। इस मामले में अगर सुक्खू सरकार ने एकमुश्त कार्रवाई के तहत तमाम जिलाधीश, पुलिस अधीक्षक, अफसर या टेक्रोक्रैट नहीं बदले, तो सुशासन की देखरेख बढ़ सकती है, वरना अब तो पद पर बैठना ही सियासी पदक है। प्रदेश में सोशल मीडिया के दखल से कुछ अधिकारियों की गायकी उनके दायित्व पर भारी पड़ी है, तो कई नाटी डालते हुए मशहूर हो गए। अभी एक युवा महिला अधिकारी के सार्वजनिक नृत्य पर उनकी अदाओं और पहरावे पर काफी बवाल है। ऐसे में दफ्तरों में गरिमामय वातावरण की दरकार को पूरा करने की भी जरूरत है। दरअसल हिमाचल में ‘जी हुजूरी’ का एक ऐसा दौर शुरू हुआ है जहां कई वरिष्ठ अधिकारियों ने भी अपनी बची खुची पहचान व रीढ़ खो दी है। सुशासन में प्रासंगिकता तब आएगी जब मौलिक व स्वतंत्र विचारों के अधिकारियों की शिनाख्त होगी। इसके लिए आलोचना का महौल तब पैदा होगा जब सत्ता के अहम पदों पर बैठे लोग अपने सामने अफसरों के आलोच्य पक्ष को तवज्जो दें और उन्हें गौण न करें। इसका दूसरा पक्ष मीडिया भी है जिसकी सकारात्मकता व नेकनीयती, उसकी आलोचना में है। अगर मीडिया के लोग राजनेताओं की कथनी-करनी पर निष्पक्ष राय नहीं रखते और वे एकपक्षीय प्रभाव से दफ्तरी बन रहे हैं, तो हुक्मरान व नौकरशाह गुमराह ही होंगे। बहरहाल वर्तमान सरकार बड़े संदेश दे कर अगर ट्रांसफरों में सियासी चौधराहट कम कर पाती है, तो इसका असर गांव की डिस्पेंसरी से प्राइमरी स्कूल तक होगा। सरकार ऐसे फैसलों की फेहरिस्त में हर विभाग की पद्धति में नवाचार ला सकती है।
मसलन स्कूलों के वार्षिक समारोहों में समाज की प्रतिष्ठित विभूतियों को ही बुलाने का निर्देश दें, तो शिक्षण संस्थानों के मुखिया कम से कम ऐसे समारोहों को निजी चापलूसी का अखाड़ा बनाकर नेताओं का दोहन तो नहीं कर पाएंगे। विभागीय सलाहकार समितियों या सदस्य मंडलों में गैर राजनीतिक आचरण को जगह मिलती है, तो सरकार का प्रदर्शन और निर्लिप्त होगा। खैर यहां तो सरकार अपनी ही फौज को कह रही है कि उसे खुद मोर्चा तय करने के लिए सियासी पांव नहीं छूने चाहिए, लेकिन इसके दूसरे पक्ष यानी सत्ता के लाभकारी पदों पर बैठे लोगों को भी बताना पड़ेगा कि इन राहों पर किसी को आगे बढ़ाकर या निजी प्रश्रय में सहला कर उन्हें कुछ नहीं मिलेगा। हमारा मानना है कि सरकारों को अपनी कार्य संस्कृति बेहतर बनाने के लिए सबसे पहले कर्मचारी राजनीति, ट्रांसफर व अपनों तथा गैरों में अंतर ढूंढने के बजाय समूचे समाज की भागीदारी में कदम उठाने चाहिएं। हिमाचल के सरकारी क्षेत्र से संबद्ध सब तरह के करीब साढ़े चार लाख लोग हैं, तो दूसरी तरफ निजी क्षेत्र में लगभग पच्चीस लाख लोग भी इसी राज्य की बेहतरी में काम कर रहे हैं। अत: प्राथमिकताओं में जिस दिन निजी क्षेत्र का पक्ष प्रोत्साहन पा गया, स्वावलंबन के कई चिराग जल उठेंगे।
By: divyahimachal
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Rani Sahu
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