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By: divyahimachal
ट्रांसफर में दूरी और देरी का एक बना बनाया इतिहास हम हिमाचल में देख सकते हैं, फिर भी वर्तमान सरकार ने नियम बदलने की शुरुआत तो की। आइंदा ट्रांसफर अगर तीस किलोमीटर के दायरे में हुई तो अगले दिन की मोहलत में ज्वाइनिंग देनी होगी और दूरी इससे अधिक हुई भी तो दस के बजाय पांच दिन ही मिलेंगे। ट्रांसफर के कई ताने बाने अब तक बन चुके हैं, जिन्हें एक-एक करके हटाकर वर्तमान सरकार व्यवस्था परिवर्तन के संदेश को कार्य संस्कृति के हर आम और खास तक पहुंचाना चाहती है। इसी तरह के एक अन्य प्रारूप में जिला व राज्य कॉडर के बीच व्यावहारिक व प्रशासनिक अंतर को दूर करने की मंत्रणा भी चल रही है और अगर ऐसा होता है, तो ऐसे साहसिक फैसले के नतीजे पूरा परिदृश्य बदलेंगे। हिमाचल में सरकारी मशीनरी की कमोबेश हर सरकार ने अपनी तरह से आयलिंग करने की कोशिश की, लेकिन इससे केवल सियासी कॉडर ही मजबूत होता गया या कर्मचारी राजनीति ने अपने हित साधने शुरू कर दिए। ट्रांसफर अब ऐसी चिडिय़ा नहीं जो फुर्र से उड़ कर मुकाम बना ले, बल्कि वर्षों की ऐसी परिपाटी है जहां ‘मैं को तू और तू को मैं’ एडजस्ट करता है। इसी परिपाटी के नियंत्रण राज्य सचिवालय में नाचते हैं और सत्ता को जादू दिखाते हैं।
भ्रम की स्थिति या आक्रोश की राजनीति ने इस मसले को अपनी ताकत बनाने के चक्र में, ट्रांसफर नीति की संभावना के आगे भी हथियार डाल दिए। ट्रांसफर का दौर हमेशा से कार्यसंस्कृति से टकराता रहा, लेकिन तमाम सत्ताएं इसे अपने गरूर या हेकड़ी से संबोधित करती रहीं। नतीजतन सरकारें बदलती रहीं, लेकिन कार्य संस्कृति की दीवारें लड़ती रहीं। ट्रांसफर अपने भीतर मोहजाल, पाखंड, जी हुजूरी, भाई भतीजावाद, क्षेत्रवाद और सियासी कॉडर को विकसित करते-करते आज जिस स्थिति में है, वहां दिशा परिवर्तन की जरूरत बढ़ जाती है। हम मानते हैं कि सुक्खू सरकार ने अभी दूरी मापी है और जिस दिन देरी भी माप लेगी, सरकारी कार्यसंस्कृति के नए अर्थ सामने आएंगे। पाठकों को याद होगा कि हमने ट्रांसफर के विमर्श में ऐसे नियमों की दुहाई दी है जहां कर्मचारियों की सुविधा, क्षमता व आर्थिक हितों का प्रसार हो। मसलन गृह स्टेशन से पचास किलोमीटर दूर सेवा करने के वित्तीय लाभ सौ किलोमीटर दूर नौकरी करने वाले से भिन्न होंगे और जो दस किलोमीटर के भीतर सेवा दे रहे हैं, उनके भत्तों में कटौती कर देनी चाहिए। स्थानांतरण के साथ आवासीय सुविधा अगर प्रशासनिक अधिकारी का हक है, तो समस्त कर्मचारियों को भी यह सुविधा हर सूरत मिले। ट्राइबल या भौगोलिक दृष्टि से दुरुह क्षेत्रों में कलस्टर के आधार पर कार्यालय, स्कूल व चिकित्सा संस्थान खोल कर इन्हें कर्मचारी अधिकारियों के लिए ट्रांसफर का तोहफा बनाया जाए। डे बोर्डिंग स्कूल की परिकल्पना को जोरदार ढंग की प्रस्तुति में उस वक्त और निखार आएगा जब तमाम अध्यापकों को परिसर में ही आवासीय सुविधा के तहत चौबीस घंटे रहना पड़े। ऐसे स्कूलों में भेजे जाने वाले अध्यापकों को ट्रांसफर के बजाय उन्हें उनकी कार्यक्षमता की वजह से चुना जाए।
जिस तरह मुख्यमंत्री ने प्रमुख पदों पर पिछली सरकार के दौर से बैठे अधिकारियों को बदलने में संयम बरता है, उससे कार्य संस्कृति के प्रति जिम्मेदारी बढ़ती है। अगर तीस साल पहले की व्यवस्था को पलट कर देखें तो सरकारी क्षेत्र का दायरा बहुत बड़ा था यानी सारा सेवा क्षेत्र सार्वजनिक था, लेकिन उसकी गुणवत्ता, समर्पण, दायित्व बोध तथा अनुशासन अनुकरणीय रहा है। लोग आज भी उस दौर के डाक्टरों, अध्यापकों, कर्मचारियों, अधिकारियों व नौकरशाहों को याद करते हैं तो इसलिए कि तब सियासी दखल या दबाव न के बराबर था। आज भी उसी सुबह की जरूरत है और कहना न होगा कि जब सुक्खू सरकार उच्च पदस्थ अधिकारियों को पोस्टिंग के लिए राजनीतिक पहुंच न बनाने की हिदायत देती है, तो यह भी कार्यसंस्कृति के उन्ननयन की सीढ़ी ही मानी जाएगी। आज भले ही कई सेवाओं का राज्यीय कॉडर है, लेकिन चंद कस्बों तक की परिधि में अधिकांश कर्मचारी घूम रहे हैं या काफी समय से कुछ लोग एक ही शहर के विभिन्न सरकारी स्कूलों का भ्रमण कर रहे हैं। एक बार शिमला, धर्मशाला सहित राज्य के महत्त्वपूर्ण शहरों के दस किलोमीटर दायरे के सरकारी संस्थानों को खंगाल लें, पता चल जाएगा कि कौन महाशय पिछले दो या इससे अधिक दशकों से इसी परिधि के बीच ट्रांसफर की दूरी और देरी का लाभार्थी बन कर घूम रहा है। आश्चर्य यह कि ट्रांसफर के अपराधी मजे लूट रहे हैं और कई मेहनती, ईमानदार व कत्र्तव्य के वफादार वर्षों से यूं ही भटक रहे हैं, क्योंकि वे राजनीति के चहेते नहीं बने।

Rani Sahu
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