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- दुखद हिंसा
कश्मीर में आतंकी हमलों का नया दौर दुखद ही नहीं, शर्मनाक भी है। बाहरी लोगों और विशेष रूप से बिहारवासियों को जिस तरह से निशाना बनाया गया है, उससे चिंता का दायरा बहुत बढ़ जाता है। मजदूरों और छोटे-मोटे धंधे करने वाले लोगों को मारने से किसका गौरव बढ़ रहा है? गरीबों की हत्या को आखिर किस आधार पर जायज ठहराया जा सकता है? कौन सा मजहब या कौन से राज्य की संस्कृति ऐसी हत्याओं का पक्ष ले सकती है? एक संदिग्ध संगठन ने प्रवासी मजदूरों पर हुए ताजा हमलों की जिम्मेदारी ली है और जो बहाना बनाया गया है, वह निंदनीय व हास्यास्पद है। इंसानियत पर धब्बा साबित हुए आतंकी चाहते हैं कि प्रवासी कश्मीर छोड़ जाएं, मानो कश्मीर उनकी व्यक्तिगत जायदाद हो? यह भी कहा गया है कि चूंकि बिहार में मुस्लिमों की हत्या हुई है, उसी का बदला लिया जा रहा है। बिहार या इतने बड़े देश में कहीं भी मुस्लिमों को निशाना बनाने जैसी कोई घटना नहीं है, इक्का-दुक्का हिंसक घटनाएं जो सामान्य रूप से होती आई हैं, उनमें पुलिस यथोचित कार्रवाई कर रही है। यह नहीं कहा जा सकता कि कश्मीर से बाहर देश में कहीं भी धार्मिक आधार पर विद्वेष की हवा चल रही हो। फिर भी अगर मजहब ही हत्या का आधार है, तो फिर सहारनपुर के सगीर अहमद को क्यों मारा गया? अपनी कुत्सित सुविधा के अनुसार, कभी बाहरी लोगों को, तो कभी गैर-मुस्लिमों को निशाना बनाना हर लिहाज से नाकाबिले बर्दाश्त है