- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- त्रासदी ने खुरच दिए...

x
By: divyahimachal
इतिहास में डूबी सदियों का बाढ़ में डूबी नदियों से सदा मुकाबला रहा है, लेकिन जिंदगी ने हर मोड़ पर आकर खुद को बचाना सीख लिया। कुछ इसी तरह का परिदृश्य उस समय उत्पन्न हुआ जब मंडी का प्रमुख पंचवक्त्र मंदिर सुकेती और ब्यास नदियों के संगम में आकंठ डूब कर भी सही सलामत उबर आया। तीन सौ साल पुराना मंदिर उन लहरों के बीच इतिहास के सन्नाटों, आधुनिक विकास के घाटों और प्रगति के तमाम ललाटों से लड़ता हुआ सुरक्षित वजूद में अवतरित है, तो इसके पीछे सबसे बड़ी शक्ति मानव की तत्कालीन उपलब्धि रही, जिसने तीन सौ साल पहले ही नदी के आचरण में खुद का विश्वास अर्जित किया। यहां राजा सिद्धसेन का जिक्र इसलिए आ जाता है कि उनके शासनकाल में वास्तुशैली का ऐसा न•ाारा आज के युग का वरदान बन गया है।
इन फिजाओं में अगर भगवान की मिलकीयत बरकरार है, तो इसका श्रेय तीन सौ साल पुरानी कला को जाता है। आश्चर्य यह कि तब न तो आधुनिक इंजीनियरिंग की पढ़ाई थी और न ही ऐसा प्रारूप बना था कि योजनाएं प्रचारित की जाती। इस मंदिर परिसर में इतिहास की कर्मठता का उल्लेख तो है, लेकिन न शिलान्यास और न ही उद्घाटन पट्टिकाओं का समावेश मिलता है। आज के युग में भवन से कहीं महत्त्वपूर्ण उसकी शिलान्यास व उद्घाटन पट्टिका है, जबकि आधुनिक निर्माण का इतिहास दर्शाने में हिमाचल निरंतर असफल हो रहा है। दरअसल हमने जमीन पर दबाव पाल तो लिए, लेकिन उनसे बाहर निकलने का रास्ता नहीं ढूंढा, नतीजतन पहाड़ की अपनी नीतियां, परियोजनाएं, प्रवृत्तियां और वास्तु शैली कहीं पीछे रह गई। मानवीय गतिविधियों के क्षेत्र में घर निर्माण, व्यापार और जीवन की सुख सुविधाएं पाने तक ही नहीं, बल्कि अंतरराष्ट्रीय स्तर के कौतुहल को घर-घर में सजाने का प्रदर्शन भी है। हिमाचल में बरसात-बाढ़ की त्रासदी ने कई आधारभूत प्रश्न खुरच दिए हैं और जहां भवन, सडक़ निर्माण, शहरी एवं ग्रामीण विकास, सरकारी प्रगति का प्रदर्शन और नागरिक मांग के समर्थन में तलाशे गए आधुनिक हल सताने लगे हैं। बहस फोरलेन निर्माण या सडक़ों को चौड़ा करने की अगर शुरू करेंगे, तो उस दबाव की जिम्मेदारी नागरिकों पर भी तो हो जिसके चलते कई घरों में एक से अधिक वाहनों की कतार खड़ी है और यही सडक़ों के किनारे खड़े कर दिए जाते हैं।
ऐसे में सडक़ का शिष्टाचार या फोरलेन बनाने का दबाव तब खत्म होगा, जब हम निजी वाहनों की बजाय सार्वजनिक परिवहन पर भरोसा करेंगे। इसी तरह नगर एवं ग्राम नियोजन नहीं होगा, तो अतिक्रमण और अंधाधुंध निर्माण हमारे लिए प्राकृतिक आपदाओं का जखीरा ही खड़ा करेंगे। प्राकृतिक जल निकासी और खनन की परिपाटी पर खड़े निजी स्वार्थ जब तक हटाए नहीं जाते, नदियां-नाले बेरहम होकर उत्पात मचाएंगे। इसी तरह वेस्ट मैनेजमेंट के रास्ते बनाए नहीं जाते, तो इनसान और प्रकृति का रिश्ता विनाशकारी होता रहेगा। हद यह है कि जो पानी परेशानी पैदा कर रहा है, वही पीने के लिए नसीब नहीं हो रहा। शिमला में चौथे दिन या हमीरपुर में दूसरे दिन पेयजल की आपूर्ति हो रही है, तो कहीं हमारी योजनाओं के खाके खुराफाती जरूर रहे होंगे। सोलन शहर के विकास में जर्जर हो रही जमीन का दर्द कब जानेंगे। शहर के शामती इलाके में आई शामत ने बता दिया कि ऐसे विकास की जमीन खिसक सकती है। लगभग पूरी बस्ती का विध्वंस साबित करता है कि शहरी एवं ग्रामीण नियोजन की दिशा में हिमाचल कितना दोषी है। नागरिक बस्तियों के मायने बदलते इनसान ने अपने विकास को कब्रिस्तान के करीब खड़ा कर दिया है। ऐसे में प्रकृति के प्रति परंपरागत मान्यताएं, शिष्टाचार व पर्वतीय उद्गार चाहिए और इसके लिए केंद्रीय स्तर पर योजना-परियोजनाओं के प्रारूप बदलने होंगे। पर्वतीय ढांचे में सुकून और विकास की दिशा तय करने के लिए एक स्वतंत्र एवं सक्षम केंद्रीय मंत्रालय की जरूरत है। पहाड़ का मानवता, राष्ट्रीय जरूरतों और जलवायु, पर्यावरण तथा जल उपलब्धता का संतुलन बरकरार रखने के लिए विशेष कार्यक्रम, तकनीक, नवाचार व योजना बनाने की जरूरत है।

Rani Sahu
Next Story