सम्पादकीय

त्रासदी और राजनीति का रिश्ता

Rani Sahu
17 Oct 2021 4:15 PM GMT
त्रासदी और राजनीति का रिश्ता
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साल 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए थे। इन चुनावों के ठीक बाद ‘हिन्दुस्तान’ ने एक अभियान चलाया था- राजनीति खत्म, काम शुरू

शशि शेखर साल 2012 में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव हुए थे। इन चुनावों के ठीक बाद 'हिन्दुस्तान' ने एक अभियान चलाया था- राजनीति खत्म, काम शुरू। मकसद यह था कि हम चुने हुए जन-प्रतिनिधियों को याद दिलाते रहें कि आप मतदाताओं से कुछ वायदे करके विधानसभा की चौहद्दियों में पहुंचे हैं, अब उन्हें पूरा करने की बारी है।

लगभग 10 साल पुराना यह अभियान पिछले दिनों रह-रहकर मेरे जेहन में कौंधता रहा। वजह था, लखीमपुर खीरी कांड। उन दिनों चीखने को मन करता- आदमी खत्म, राजनीति शुरू। हमारे राजनेता अक्सर त्रासदियों में अवसर तलाशते हैं और काम निकल जाने के बाद सुविधानुसार उन्हें बिसरा देते हैं। क्या ऐसे हंगामों से किसी दल या शख्सियत को लाभ मिलता है?
पहले कांग्रेस और प्रियंका गांधी की बात। प्रियंका गांधी वाड्रा पहली बड़ी प्रतिपक्षी नेता थीं, जिन्होंने खबर मिलते ही खीरी की ओर प्रस्थान किया। रास्ते में सीतापुर में पुलिस ने उन्हें रोका और वहां स्थित उत्तर प्रदेश 'प्रोविंशियल आर्म्ड कॉन्स्टेबुलरी' (पीएसी) के अतिथि-गृह में नजरबंद कर दिया। वहीं से उनका एक वीडियो वायरल हुआ, जिसमें वह अपने गेस्ट हाउस में झाड़ू लगा रही थीं। यह झाड़ू अति सुरक्षित माने जाने वाले उनके कक्ष में कैसे, क्यों और किसके द्वारा पहुंची? जो लोग पीएसी की अंदरूनी व्यवस्था से परिचित हैं, वे जानते हैं कि वहां समूचे परिसर को साफ-सुथरा और सुसज्जित रखने के लिए बाकायदा प्रशिक्षित लोगों का एक दस्ता होता है। ऐसे में, प्रियंका गांधी को झाड़ू लगाने की जरूरत क्यों महसूस हुई? क्या उनका कक्ष जान-बूझकर गंदा छोड़ दिया गया था? जब उन्होंने झाड़ू की गुजारिश की, तब क्या संबंधित अधिकारियों ने सफाईकर्मियों को वहां भेजने के बजाय सिर्फ झाड़ू भेज दी? यही वजह है कि समाजवादी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव ने उन्हीं दिनों आरोप लगाया था कि भारतीय जनता पार्टी की सरकार जान-बूझकर ऐसा कर रही है, ताकि विपक्ष के वोटों में बंटवारा हो सके। अखिलेश यादव ने भी लखीमपुर कूच की कोशिश की थी, पर प्रदेश पुलिस ने उन्हें घर से निकलने तक नहीं दिया।
सियासी खिलाड़ियों द्वारा उठाए जा रहे इन सवालों को अगर दरकिनार करके देखें, तो इसमें कोई दो राय नहीं कि प्रियंका गांधी इससे पहले हाथरस जाने की कोशिश में नोएडा की सीमा पर रोकी गई थीं। उसी जद्दोजहद के बीच एक फोटो वायरल हुआ था, जिसमें वह एक वर्दीधारी का बेंत पकडे़ खड़ी हैं। कांग्रेस कार्यकर्ताओं का कहना था कि ऐसा उन्होंने एक कार्यकर्ता को पिटाई से बचाने के लिए किया था। क्या उनकी ऐसी यात्राएं और वायरल वीडियो कांग्रेस का खोया हुआ जनाधार लौटा पाएंगे? उनके समर्थकों को तो यही लगता है। इस बार 3 अक्तूबर की रात को जब वह रोकी गईं, तब उत्साही कार्यकर्ताओं ने इसकी तुलना उनकी दादी स्वर्गीय इंदिरा गांधी की बेलछी यात्रा से कर डाली। प्रियंका के प्रशंसकों का कहना है कि यह लम्हा कांग्रेस के लिए 'बेलछी मोमेंट' साबित होने जा रहा है। क्या वाकई?
इसके लिए 1977 और आज की कांग्रेस की तुलना करनी पडे़गी। तब से अब तक गंगा और यमुना में अरबों लीटर पानी बह चुका है और हालात भी बदल गए हैं। उन दिनों कांग्रेस भले सत्ता में नहीं थी, पर उसका जनाधार कायम था। इंदिरा गांधी बुजुर्गों की उस फौज से लड़ रही थीं, जो तथाकथित सिद्धांतों के प्रति अति आग्रही और अपने अंतरविरोधों के प्रति बेपरवाह थे। मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री तो बन गए थे, पर वह खिचड़ी गठबंधन के नेता थे। इन सभी दलों के सिद्धांत और स्वार्थ अलग थे। इसका फायदा इंदिरा गांधी ने उठाया। चौधरी चरण सिंह की महत्वाकांक्षाओं को हवा दी और उन्हें प्रधानमंत्री की कुरसी तक पहुंचा दिया, पर उन्हें सत्ता-सदन से बहुत जल्द विदा होना पड़ा। जिन इंदिरा गांधी ने उन्हें यहां तक पहुंचाया, उन्होंने उनके नीचे से कुरसी खींच ली थी।
आज प्रियंका और उनके भाई राहुल गांधी मुल्क के पैमाने पर जिस भारतीय जनता पार्टी से लड़ रहे हैं, उसके पास नरेंद्र मोदी हैं, जिनकी चुनावी लोकप्रियता उस वक्त की इंदिरा गांधी से कम नहीं है। भगवा दल का शुमार संसार के सबसे बड़े सियासी संगठन के तौर पर होता है। इसके बरक्स कांग्रेस का जनाधार एक अपवाद को छोड़कर 1989 से लगातार सिकुड़ रहा है। बेलछी ने एक सशक्त पार्टी की जबरदस्त नेता को सत्ता में लौटने का मौका मुहैया कराया था। हाथरस और लखीमपुर के हादसे मिलकर अगर उसका दसवां हिस्सा भी कांग्रेस को मुहैया करा दें, तो बड़ी बात होगी।
यही नहीं, 1977 में समाजवादी पार्टी और बहुजन समाज पार्टी जैसे दल नहीं थे। उनकी सामाजिक पकड़ बहुत मजबूत है। यही वजह है कि वे बारी-बारी से अल्पसंख्यकों और अन्य जातियों के मतदाताओं को लुभाने में कामयाब होते रहे हैं। कांग्रेस के पास फिलहाल उत्तर प्रदेश में ऐसा कोई आधार नहीं है। यह आधार बन सकता था, यदि प्रियंका दिल्ली के बजाय उत्तर प्रदेश के किसी शहर में पांच साल के लिए बसेरा डाल देतीं। वह लौट जाने के लिए यहां आती हैं। इसी से भाजपा को यह कहने का मौका मिलता है कि वह 'राजनीतिक पर्यटक' हैं। कांग्रेस के खैरख्वाहों का मानना है कि अगर उन्होंने प्रयागराज (इलाहाबाद) के स्वराज भवन में डेरा जमाया होता, तो शायद पार्टी की स्थिति कुछ और होती, मगर जब चुनाव सिर पर हों, तब संगठन के बजाय सियासी लहर पैदा करने की कोशिश की जाती है। प्रियंका उत्तर प्रदेश में यही कर रही हैं।
अब समाजवादी पार्टी की चर्चा। इसके सुप्रीमो अखिलेश यादव ने लखीमपुर के लहू-स्नान के दूसरे हफ्ते से ही विजय-यात्रा शुरू कर दी। इसके तहत वह प्रदेश के सभी जरूरी हिस्सों में जाकर अपने कार्यकर्ताओं का मनोबल बढ़ाने की कोशिश करेंगे। सभाओं में जुटती भीड़ उनका मनोबल बढ़ाने के लिए काफी है। जयंत चौधरी की अगुवाई वाले राष्ट्रीय लोकदल से उनके सियासी गठबंधन के चर्चे जोरों पर हैं। अगर अखिलेश यादव और जयंत चौधरी सही सियासी जुगलबंदी करते हैं, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में यकीनन वे भाजपा को कड़ी टक्कर देने में कामयाब होंगे। सपा, रालोद तथा अन्य नितांत इलाकाई दलों का अखिलेश की अगुवाई में उभर रहा राजनीतिक रसायन क्या भाजपा को बेदखल कर पाएगा? असदुद्दीन ओवैसी और मायावती उनकी इस राह में बाधा बनते नजर आते हैं। मायावती को नेपथ्य में जाकर अचानक उभर आने में महारत हासिल है। लेकिन इनके सामने प्रखर राष्ट्रवादी और विधि-व्यवस्था पसंद मुख्यमंत्री की छवि के साथ योगी आदित्यनाथ हैं। ऐसे में, क्या सूरत-ए-हाल बनती दिख रही है, इस पर फिर कभी चर्चा। पहले सियासी शतरंज पर सभी मोहरों को अपनी-अपनी जगह जमा हो जाने दीजिए।


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