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- बदलाव की परंपरा
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। तमाम परंपराएं हमारी संस्कृति का अभिन्न अंग हैं। लेकिन जब परंपराएं व्यक्ति या समाज पर बोझिल होने लगे, तब उसका निदान समय की मांग बन जाता है। निरंतर परिवर्तित दौर में हमारी जीवन शैली में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। देश काल और परिस्थितियों के अनुरूप अपने समय की अपनी परंपराएं तर्क की कसौटी पर कसी जा रही हैं। परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है, ऐसे में परिवर्तन को हमें अपनी नियति मानना चाहिए। दरअसल, हमें ऐसी मानसिकता बना कर चलना चाहिए कि समय की धारा के अनुरूप परंपराओं में परिवर्तन को खुले हृदय से स्वीकार कर सकें। निश्चित तौर पर सामाजिक नेतृत्व द्वारा ही इस संदर्भ में संज्ञान लिया जा सकता है। अलग-अलग जाति वर्ग-संप्रदाय के अलग-अलग प्रतिनिधि अपने समाज में प्रचलित परंपराओं का पुनर्मूल्यांकन करें, यही समय की मांग है।
यह इसलिए भी जरूरी है कि नई पीढ़ी नई सोच के साथ भावी समाज का अंग बनने वाली है। हमने अपनी जीवन शैली को समय की धारा के अनुरूप ढाला है। एक प्रकार से हमने परिवर्तन को सहर्ष स्वीकार भी किया है। यह स्वाभाविक है कि शैक्षणिक सुधार के साथ-साथ परंपराओं में सुधार भी अपेक्षित होता है। बदलते दौर में हमने लगभग प्रत्येक क्षेत्र में व्यापक बदलाव देखे हैं। ऐसी स्थिति में हमारी परंपराओं और रीति-रिवाजों का तर्कसम्मत होना और भी जरूरी हो जाता है। माना कि हमारे पूर्वजों द्वारा स्थापित परंपराएं अपने समय की जरूरत थी। लेकिन भौतिक संसाधनों के व्यापक उपयोग के संदर्भ में कई परंपराएं वर्तमान सामाजिक परिदृश्य में सर्वथा अप्रासंगिक हो गई हैं। हमें इन परंपराओं को चिह्नित करते हुए इसके मूल भाव और स्वभाव को यथावत रखते हुए इसके परिपालन में व्यापक परिवर्तन करने होंगे।
'राजेंद्र बज, हाटपीपल्या, देवास मप्र
राहत बनाम जिम्मेदारी
कोरोना महामारी की दहशत से दुनिया अब तक उबर नहीं पाई है। इस जानलेवा विषाणु का सटीक इलाज न मिल पाना परेशानियों का सबब बना हुआ है। दुनिया के कई हिस्सों में बीमारी का लौटता दौर लोगों की बढ़ती लापरवाही की तरफ इशारा करता है। भारत में कोविड-19 के घटते आंकड़े संतोषजनक हैं। मगर कुदरत के बदलते मिजाज और त्योहारी मौसम में सावधानियों की अनदेखी खतरनाक हो सकती है।
देश के प्रधानमंत्री और स्वास्थ्य विशेषज्ञों की राय को दरकिनार करना मुसीबत को दावत देना है। बेशक उल्लास में विघ्न डालते सरकारी निर्देशों से युवा मन व्यथित हो सकता है, मगर यह नहीं भूलना चाहिए कि त्योहार हमसे है और हमारा सुरक्षित रहना बहुत जरूरी है। जो लोग कोरोना से संक्रमित होकर मारे गए, निश्चित रूप से उनके घरों की पीड़ा किसी भी त्योहार को धूमिल करने की लिए काफी है। लिहाजा त्योहारों में हम अपनी जिम्मेदारी को न भूलें, क्योंकि हर जान बेशकीमती है, जिसकी हिफाजत करना हम सबका फर्ज है।
'एमके मिश्रा, रातू, रांची, झारखंड