सम्पादकीय

परंपरा : देशज तकनीक से बना मिट्टी का घर, सीमेंट तो काफी नया है.. उसकी उम्र भी कम

Neha Dani
26 Feb 2022 1:40 AM GMT
परंपरा : देशज तकनीक से बना मिट्टी का घर, सीमेंट तो काफी नया है.. उसकी उम्र भी कम
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ऐसे में मिट्टी के घरों से सैकड़ों बेघर लोगों का खुद के मकान का सपना साकार हो सकता है।

'सीमेंट तो काफी नया है, जबकि लोग सदियों से मिट्टी के घर बनाकर रह रहे हैं। बचपन से ही मुझे मिट्टी और लकड़ी के परंपरागत घर अच्छे लगते थे, इसलिए् मिट्टी का घर बनाया। और अगर कोई व्यक्ति मिट्टी का घर बनाता है, तो मैं उसकी मदद करता हूं।' यह बसंत फुटाणे थे, जो महाराष्ट्र के अमरावती जिले के छोटे से गांव रवाला के रहने वाले हैं। वह किसान और सर्वोदयी, गांधीवादी सामाजिक कार्यकर्ता हैं।

वह अपनी पुश्तैनी जमीन में प्राकृतिक खेती करते हैं। उनके खेत में आम, संतरे, नींबू और अमरूद का बगीचा है। वहां हरा-भरा वातावरण है। खेत में ही उनका घर है। उन्होंने दो मंजिला मिट्टी का मकान बनाया है और उसमें दो दशकों से अधिक समय से सपरिवार रहते हैं। वह चार दशक पहले से प्रयोगात्मक तौर पर खेत में अलग-अलग प्रकार के मिट्टी के घर बनाते रहे हैं।
उन्होंने मिट्टी के घर बनाने के बारे में किताबों से सीखा है। इसके लिए ऑरिविले अर्थ इंस्टीट्यूट और मशहूर वास्तुशास्त्री लॉरी बेकर की किताबों को पढ़ा है। सबसे पहले उन्होंने वर्ष 1983 में मिट्टी का घर बनाया। इसे रेम्मड अर्थ कंस्ट्रशन तकनीक से बनाया गया था। इसमें टीन की छत थी। वह कहते हैं, 'मिट्टी के घर करीब 200 साल तक रह सकते हैं। इनमें पीढ़ी दर पीढ़ी लोग रह सकते हैं। इनके टूटने के बाद भी इनकी सामग्री पुनः इस्तेमाल की जा सकती है।
दूसरी तरफ कंकरीट-सीमेंट के घरों की उम्र करीब 50 साल की होती है। उनके मलबे के निपटान की लागत भी चिंता का विषय है। उसमें भी बहुत ऊर्जा (डीजल) लगती है। सीमेंट और गिट्टी बनाने के लिए हर साल पहाड़ों को नष्ट किया जा रहा है, उन्हें तोड़ा जा रहा है।' उनके मुताबिक, मिट्टी के घर का नियोजन करते समय बढ़ई (लकड़ी का ढांचा तैयार करने में) की अहम भूमिका होती है।
छत का भार या वजन दीवार पर नहीं, बल्कि लकड़ी के खंभों पर रखा जाता है। मिट्टी के मकान के लिए नीम की लकड़ी सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। उसमें दीमक लगने की संभावना बहुत ही कम होती है। उनके बेटे विनय फुटाणे याद करते हैं कि वर्ष 1991 में मूसलाधार वर्षा के कारण बाढ़ आई थी, तब मोवाड़ गांव पूरा ही बह गया था। अन्य गांवों में भी नदी किनारे के मकान क्षतिग्रस्त हो गए थे।
उस बाढ़ में जिन मकानों की छत बह गईं और दीवार खड़ी रह गई थी। वहां के टूटे-फूटे मकानों की मिट्टी हम नए घर बनाने के लिए लेकर आए। घर की दीवार बनाने के लिए इस मिट्टी को भिगोकर उसमें गोबर, रेशा और बेल का गूदा, अलसी का भूसा आदि मिलाया गया। इससे मिट्टी मजबूत होती है और उसमें दरारें नहीं पड़ती हैं। वर्ष 2000 में मिट्टी का मकान बनकर तैयार हुआ। यह दोमंजिला घर है।
इसमें छह कमरे हैं, रसोईघर है, और बीच में दो कमरे हैं, एक लंबा बरामदा है। संडास और गुसलखाना है। आंगन है और हरे-भरे पेड़ों का परिसर है। एक तालाब भी है। गाय-बैल हैं। फुटाणे परिवार के भोजन-पानी, सब्जी और दूध की दैनंदिन जरूरतें खेत से ही पूरी हो जाती हैं। इसी प्रकार, मिट्टी के घर बनाने की पहल कई स्थानों पर हो रही है। गुजरात के कच्छ में हुनरशाला नामक संस्था ने वहां वर्ष 2001 के भूकंप आने के बाद नई तकनीक से घर बनाने शुरू किए हैं।
ये घर स्थानीय सामग्री से बनाए गए हैं, जो कई मायनों में टिकाऊ, पर्यावरण के अनुकूल और आपदाओं से सुरक्षित हैं। हिमाचल प्रदेश की कांगरा घाटी में दीदी कांट्रेक्टर का काम भी अनूठा रहा है। अमेरिकी मूल की डेलिया किसिन्जर ने मिट्टी, बांस, स्लेट पत्थरों से मकान बनाने की तकनीक सीखी। ऐसे घर आर्थिक और पर्यावरणीय रूप से टिकाऊ होते हैं और हवादार व खुली रोशनी वाले होते हैं।
ऐसे घरों को देखकर गांधीजी का प्रसिद्ध कथन याद आता है कि किसी आदर्श गांव में निर्माण की सभी सामग्री वहां से पांच मील की दूरी के अंदर से ही आनी चाहिए। मिट्टी के मकान आज की जरूरत भी हैं, विशेषकर, तब जब सीमेंट-कंकरीट के घर बहुत महंगे बनते हैं, उनमें ऊर्जा की खपत होती है। ऐसे में मिट्टी के घरों से सैकड़ों बेघर लोगों का खुद के मकान का सपना साकार हो सकता है।

सोर्स: अमर उजाला

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