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- सहमति की ओर
भारत-चीन के बीच जारी नौ महीने के गतिरोध के बाद लद्दाख स्थित पैंगोंग झील के उत्तरी-दक्षिणी तट पर दोनों देशों के सैनिकों को हटाने पर बनी सहमति स्वागतयोग्य ही कही जायेगी। राजनयिक और सैन्य स्तर पर कई दौर की बातचीत के बाद एलएसी पर तनाव का कम होना दोनों देशों के हित में ही है क्योंकि दोनों बड़े मुल्कों में टकराव विश्वव्यापी संकट को जन्म दे सकता था। विगत में विदेशमंत्री एस. जयशंकर और उनके चीनी समकक्ष वांग यी के बीच मास्को में हुई बैठक में तनाव कम करने के लिये पांच सूत्रीय कार्ययोजना पर बात हुई थी लेकिन लंबे समय से इसके सार्थक परिणाम नजर नहीं आये थे। अब इस मुद्दे पर सहमति के बावजूद भारत को सतर्कता में कोई चूक नहीं करनी चाहिए। दशकों से जारी सीमा निर्धारण को लेकर बातचीत चीन के अड़ियल रवैये के चलते किसी ठोस नतीजे पर नहीं पहुंच पायी है। इसके बावजूद चीनी सैनिकों का पीछे हटना सेना के लिये राहतकारी है, जो गलवान घाटी के घटनाक्रम के बाद विषम मौसम में भी हाई अलर्ट पर है। भारत को चीनी मंसूबों की लगातार निगरानी करने की जरूरत है। साथ ही आपसी विश्वास बहाली के लिये निरंतर प्रयास करते रहने होंगे। अतीत में विश्वास तोड़ने की चीनी कोशिशों ने भारतीयों के मन में अविश्वास को जन्म दिया है। इतिहास ने हमें कई कड़वे सबक दिये हैं, खासकर 1962 के आक्रमण में जब शांति की बात करते हुए चीन ने भारतीय नेतृत्व से छल किया। जुलाई, 1962 में पं. नेहरू ने लद्दाख से चीनी सैनिकों की आंशिक वापसी का स्वागत किया था परंतु उसके तीन माह बाद ही चीन ने भारतीय क्षेत्र पर आक्रमण कर दिया था। हालांकि, भारत 1962 की स्थितियों से बहुत आगे निकल चुका है, लेकिन फिर भी सतर्क रहने की जरूरत है। चिंता की बात यह है कि चीनी नीतियों में पारदर्शिता का अभाव रहा है।