सम्पादकीय

टोक्यो ओलंपिक: हॉकी में यह हरियाली अब बनी रहे, हम इस श्रावण को याद रखेंगे

Gulabi
5 Aug 2021 5:11 PM GMT
टोक्यो ओलंपिक: हॉकी में यह हरियाली अब बनी रहे, हम इस श्रावण को याद रखेंगे
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41 वर्ष से सूखी धरती पर श्रावण की बारिश हुई और बीज पड़ गए

41 वर्ष से सूखी धरती पर श्रावण की बारिश हुई और बीज पड़ गए। भारत ने हॉकी में जर्मनी को हराकर कांस्य पदक पर कब्जा जमाया। ये कोई बहुत आसान सफर नहीं है, बल्कि कहना चाहिए कि कांटो के बीच में नुकीली कीलें भी बिछी हुई थीं। हर बार लहूलुहान होकर भारतीय हॉकी लौट रही थी।

यूरोपियन लॉबी ने उसके जख्मों को अधिक से अधिक हरा किया और वो वेंटिलेटर तक जा पहुंची थी, मगर वो दुष्यंत कुमार जी का शेर है न कि - ' मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही, हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए।'
टोक्यो ओलम्पिक और भारत की उपलब्धि
दरअसल, ये आग जलनी चाहिए थी। टोक्यो ओलम्पिक में सबकुछ भारत के पक्ष में था। अच्छा वातावरण, अच्छा अभ्यास, अच्छा खेल, अच्छी तकनीक, अच्छी सुविधाएं। जो पक्ष में नहीं था तो वो बस यूरोपियन लॉबी की मानसिकता जो अंपायरिंग जैसे ब्रह्मास्त्र से भारतीय हॉकी की उम्मीदों को निरन्तर चकनाचूर करती आ रही थी। ऐसे में आवाज़ उठाने वाला भी कोई नहीं था। किंतु मेरे सीने में न सही तेरे सीने में ही सही...ये आग अब बुझनी नहीं चाहिए।
देखिए ये भी कोई ताल ठोंक कर कही जाने वाली बात नहीं है कि मैंने इस मामले को उठाया और दूसरे दिन ही नतीजा देखने को मिला। ऐसा होता भी नहीं। किन्तु आग यदि आप सुलगाने की कोशिश करेंगे तो उसकी आंच भले तेज न हो किंतु गर्म हवा उन कानों तक गाहे-बगाहे छू ही जाती हैं जिसके लिए आपका प्रयत्न करते हो। किसी का भी प्रयत्न हो, किसी भी तरह से हो और कोई भी हो यदि जरा सी भी हलचल हो जाए तो साजिशकर्ताओं के खेमे में कम्पन अवश्य पड़ जाता है।
ब्रिटेन और बेल्जियम के खिलाफ जो जम के पक्षपाती अंपायरिंग कर भारत को पीछे धकेलने की सफल कोशिशें हुई थी उसने भारतीय जनमानस के माथे पर एक आक्रोश की, रोष की लकीरें अवश्य खींच दी थी। सोशल मीडिया हो या घर-घर बातें हों खराब अंपायरिंग को लेकर फुफुसाहट शुरू हो चुकी थी। फिर कुछ मीडिया ने भी इसे हवा दी और इस बात को वातावरण में छोड़ दिया कि भारतीय हॉकी को बचाना है तो सबसे पहले पक्षपाती अंपायरिंग पर नकेल कसनी होगी।
पक्षपाती अंपायरिंग और खेल
भले ये बात पुरजोर तरीके से उन बेईमान अंपायरों तक न पहुंची हो किन्तु एक अप्रत्यक्ष वेव उन तक जरूर पहुंच रही थी भारत में इस तरह के रोष को लेकर तो कांस्य पदक के मैच में जर्मनी के खिलाफ उनकी अंपायरिंग उतनी पक्षपाती नहीं रही जितनी अब तक देखने को मिल रही थी। ये अपनी गलती या अपनी बेईमानी पर पर्दा डालने जैसा भी था। फिर भी कुछ एक मामलों में भारत के खिलाफ निर्णय तो हुए भी किन्तु वे निर्णय भारतीय हॉकी की तेजी को डगमगा नहीं सके और अंततः हमने मैच जीत कर सूखे को खत्म किया।

इस वक्त भारतीय हॉकी और उसके प्रशंसकों में ऊर्जा की नई किरण दमकने लगी है। यही अवसर है जब हम अपनी हॉकी को कंधों पर बैठाकर जश्न भी मनाएं और इसे दुनिया के आसमान पर पुनः छा जाने के लिए उसका सपोर्ट भी करें। जनमानस ही नहीं बल्कि हॉकी इंडिया भी इस अवसर को समझे। उसके पास ये सुनहरा मौका है कि वो हॉकी के दिन फेर सकता है। क्रिकेट की तरह दुनिया पर अपना दबाव बनाकर अपने खेल को न केवल मजबूत बनाया जाए बल्कि विश्व हॉकी महासंघ को मजबूर भी कर दें कि भारतीय हॉकी नहीं तो कुछ भी नहीं।

यदि हॉकी इंडिया ऐसी पहल करती है तो हॉकी को धनाड्य करने की शुरुआत भी होगी। ये शुरुआत हुई तो हमारा संगठन मजबूत बनेगा। संगठन मजबूत हुआ तो खिलाड़ियों के जीवन में सुरक्षा की भावना पैदा होगी, वो अच्छे से अच्छा प्रदर्शन करेंगे। उनका बेहतर प्रदर्शन रहा तो बड़े-बड़े स्पॉन्सर्स आएंगे। स्पॉन्सर्स आए तो हॉकी अपनी पैठ जमाएगी, और यही पैठ तो चाहिए जब हम यूरोपियन लॉबी की, उसकी मानसिकता वाली पैठ को टक्कर देंगे और मजबूर कर देंगे कि बिना भारत के हॉकी दुनिया में बात नहीं बनने वाली। ये तमाम अवसर दिए हैं हमारे खिलाड़ियों ने ओलम्पिक का कांसा जीत कर। इसे भुनाना होगा। आग जलानी होगी।

डिस्क्लेमर (अस्वीकरण): यह लेखक के निजी विचार हैं। आलेख में शामिल सूचना और तथ्यों की सटीकता, संपूर्णता के लिए जनता से रिश्ता उत्तरदायी नहीं है।
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