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किसी भी समाज में मानवीयता, मनुष्यता और नैतिक मूल्यों का क्षरण आध्यात्मिकता के क्षरण के कारण ही होता है
शंभूनाथ शुक्ल किसी भी समाज में मानवीयता, मनुष्यता और नैतिक मूल्यों का क्षरण आध्यात्मिकता के क्षरण के कारण ही होता है. भले ही आज हम भौतिकवाद की ओर अग्रसर हों और इन आध्यात्मिक मूल्यों को बकवास करार दें, लेकिन क्या भौतिकवाद मनुष्य को इंसान के तौर पर देखेगा? उसके लिए मनुष्य एक चर प्राणी है और उसके साथ वैसा ही व्यवहार यह भौतिकवाद करेगा जैसा कि वह किसी भी चर प्राणी के साथ करता है. आप ज्यादा दूर न जाएं और भारतीय समाज के लगातार विकसित होते क्रम को देखें.
वेदों में जिस समाज का वर्णन है उससे बेहतर और ज्यादा मानवीय समाज हमें उपनिषद काल में दिखता है जब मनुष्य में आत्मा की कल्पना की गई. और उससे आगे का समाज महाकाव्यों के समय का है. यानि मनुष्य निरंतर प्रगति करता है और उसकी इस प्रगति में सहायक होते हैं मानव समाज को और आध्यात्मिक बनाने वाले धार्मिक चिंतन. हर धर्म इस मानव समाज को बराबरी का पाठ पढ़ाते हैं पर जैसा कि अक्सर होता है उन्हीं धर्मों की व्याख्या करने वाला पुरोहित समाज इसे अपने हित और अनहित से जोड़ लेता है.
आत्मा ने की क्रांति
भारतीय समाज में सबसे पहले श्रावक चिंतन ने बताया कि आत्मा का वजूद है और यही आत्मा अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के कारण कष्ट पाती है. भौतिकवादी लोग करते इसकी व्याख्या करते समय उस काल की परिस्थिति और उस समय विशेष को भुला देते हैं. वे आज के संदर्भों में इसकी व्याख्या कर बताते हैं कि मानव समाज ने धर्म का आविष्कार कर मनुष्य को झूठी आत्मश्लाघाओं और मायाजाल में फंसा लिया. लेकिन यदि आत्मा का अस्तित्व नहीं स्वीकार किया जाता तो फिर कुछ भी करो कौन कोई देखने वाला है और कौन किसे आपके कुकर्मों के लिए ताड़ित करेगा.
आत्मा की स्वीकारोक्ति ही परोक्ष रूप से ईश्वर की स्वीकारोक्ति है जो अंतत: इस सृष्टि का कर्ता है और मनुष्य के हर पाप-पुण्य का हिसाब रखता है. अपने समय का यह एक क्रांतिकारी चिंतन था. इस चिंतन ने मनुष्य को धर्म से बांधा साथ ही यह भय भी दिखाया कि आप एक पशु नहीं है आपके समाज के कायदे-कानून हैं जो मानने ही पड़ेंगे. ईश्वर के अस्तित्व का यह प्रथम चिंतन ही राजनीति के लिए प्रेरक बना. इसी एक चिंतन के आधार पर राजशाही बनी और आदिम समाज से तरक्की कर मानव समाज एक सभ्य और संवेदनशील समाज के रूप में आ सका.
धर्म ने दिखाया रास्ता
धर्म के इस क्रांतिकारी रूप को भूल जाना ही एक तरह से अपने समाज की मूल जरूरतें और उसके स्रोत और इतिहास से कट जाना है. मानव समाज में आदिम लूटपाट को इस धर्म ने ही बाधित किया था. धर्म की आध्यात्मिकता उसे मानने वालों को अनुशासित ही नहीं करती वरन् उनके समाज में कुछ संहिताएं भी बनाती हैं जो एक समय तक के लिए तो कारगर होती हैं पर जैसे-जैसे समाज विकास की अगली मंजिलें तय करता है उनमें भी बदलाव जरूरी है. अगर उन संहिताओं में बदलाव नहीं किया तो वे संहिताएं आज के समाज के अनुकूल नहीं बन पाएंगी और उन्हें मानने वाले एक पिछड़े समाज के नुमाइंदे भर बनकर रह जाएंगे.
मनुष्य एक दिमाग रखने वाला प्राणी है इसलिए निरंतर बदलाव उसका मौलिक गुण है. उसकी यही परिवर्तनशीलता उसे बाकी के चराचर समुदाय से अलग करती है और उसे विशिष्ट बनाती है. अत: यह आवश्यक हो जाता है कि धर्म की संहिताएं मानव समाज में हो रही निरंतर परिवर्तन की प्रक्रिया को समझें और अपने में बदलाव करें. इसे कुछ यूं समझा जा सकता है जैसे कि हमारे संविधान निर्माताओं ने उसे जब बनाया था तब यकीनन उन्होंने भारतीय समाज को तब के संदर्भों में समझा था लेकिन समय बदलने के साथ-साथ उसमें बदलाव संसद करती रही है. इन्हें संविधान संशोधन कहा जाता है. ठीक इसी तरह संहिताओं को भी बदलते रहना चाहिए तब ही हम एक नए और क्रांतिकारी समाज के अनुरूप धर्म की आध्यात्मिकता की व्याख्या करा पाएंगे. पर यह सोचना जरूरी है कि धर्म के बगैर समाज पंगु ही होता है. मानव समाज को जब भी और सभ्य होने के लिए नैतिकता तथा नए सामाजिक मूल्यों की जरूरत होती है धर्म ही उसका अवलंबन बनता है.
धर्म समाज को नियंत्रित करता है
धर्म का सिर्फ कोई आध्यात्मिक स्वरूप ही नहीं है वरन् उसका वैज्ञानिक स्वरूप और व्यापक तथा विस्तृत है. जब-जब धर्म की जरूरत पड़ी तो इसीलिए कि समाज तब-तब अराजकता से जूझ रहा था अथवा मानव समाज तब कहीं न कहीं घोर नैराश्य में डूबा हुआ था. चाहे वह हिंदू धर्म हो, जैन हो अथवा बौद्ध या सिख. इसी तरह सेमेटिक धर्मों में ईसाइयत हो या इस्लाम सबके पैगंबरों ने तब ही अपने विचारों से समाज को उबारा जब उनकी जरूरत मानव समाज को पड़ी. धर्म समाज को अनुशासित करता है, उसके अंदर मानवीय मूल्यों को बढ़ाता है इसलिए बगैर धर्म के समाज का ज्यादा दिनों तक चल पाना असंभव हो जाता था. और यही कारण है कि हर देश तथा हर क्षेत्र के लोग अपने लिए किसी न किसी धार्मिक आस्था को तलाश ही लेते हैं. लेकिन यहां यह भी ध्यान रखना चाहिए कि हर धर्म कहीं न कहीं एक ही मंजिल पर ले जाते हैं. भले ही उनका रास्ता अलग-अलग हो.
आज धर्म की और अधिक ज़रूरत
आज जब भौतिकता के युग में हर तरह का आतंकवाद और अराजक ताकतें सिर उठा रही हों तो धर्म की आवश्यकता और तीव्र हो उठती है. धर्म ही इन पर अंकुश लगा सकती हैं राजनीति तो ऐसी ताकतों की मारक क्षमता को प्रतिक्रिया में और तीव्र करता है. सिर्फ शांति का संदेश ही ऐसी ताकतों को हथियार डालने को विवश करता है क्योंकि कोई भी धर्म किसी मनुष्य को आतंकी नहीं बनाता. भले ही धर्म का पुरोहित वर्ग अपने धर्म के मानने वालों को धर्म के नाम पर अतिवाद की तरफ ले जाता हो लेकिन धर्म की उसमें कोई भूमिका नहीं होती. आज जरूरत है कि जिस तरह का समाज हो गया है उसे नैतिक मूल्यों की तरफ लाने तथा अनुशासित रहना सिखाने के लिए धर्म की अधुनातन संदर्भों में व्याख्या की जाए. धर्म का तो मूल अर्थ ही है कि जो धारण करने योग्य है वही धर्म है और जो धर्म की रक्षा करता है धर्म उसकी रक्षा करता है. धर्म एक मानवीय कर्त्तव्य और नैतिक मूल्यों से आबद्ध है उसे बिखरने न देकर ही हम मानव समाज को उच्छृंखलता से निकाल सकते हैं.
यूरोप में कैथोलिक कट्टरता के विरोध में प्रोटेस्टेंट इसीलिए खड़ा हुआ ताकि बदलते आर्थिक युग के अनुरूप ईसाई धर्मावलंबी अपने नए मूल्यों को धर्म के आईने में देख सकें. यूरोपीय समाज का सारा औद्योगिक विकास इसी प्रोटेस्टेंट समाज के प्रगतिशील रूप के कारण ही विकास की नई मंजिलें छू सका. इसी तरह 19 वीं सदी में भारत में भी जब अंग्रेजी शिक्षा और माहौल के कारण लोग दिग्भ्रमित होने लगे तो स्वामी विवेकानंद ने रामकृष्ण मिशन के मार्फत वेदांत का एक नया स्वरूप रखा जिसने कालांतर में ऐसा रूप धारण किया कि एक जमाने में आजादी के लिए लड़ने वाले रणबांकुरे ज्यादातर इसी स्कूल से दीक्षित होकर आते थे. धर्म को किस तरह धारण किया जाए यह हमें स्वामी विवकानंद ने सिखा दिया है. धर्म कोई सीमा नहीं जानता और धर्म की आध्यात्मिकता में कोई विधर्मी नहीं होता. बस यही तो धर्म है!
Rani Sahu
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