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Asghar Mehdi:
चलते हैं दबे पाँव कोई जाग ना जाये
ग़ुलामी के असीरों की यही ख़ास अदा है
—- फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ (13 फरवरी 1911-20 नवंबर 1984)
आज फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की बरसी है।
फ़ैज़ इस सब्कॉंटिनेंट की तहज़ीब की जमीलयात (aesthetics) से रिश्ता रखते हैं और उनकी शख़सियत का इर्तिक़ा (evolution) इसी तहज़ीब से हुआ है।उनकी शायरी समेत तमाम लेखन का मरकज़ ह्यूमनिज़म है। इसके लिये ज़रूरी था कि रवायती सुनहरे जाल से ख़ुद को जल्द अज़ जल्द आज़ाद कराया जाए।और, फ़ौरन उन्होंने इंसानी वारदात और कैफ़ियात की अक्कासी की जानिब ख़ुद को मोड़ लिया। तरक़्क़ी पसंद तहरीक और उसके ज़ेर ए असर होने वाली तब्दीलियों उर्दू अदब में नयी करवटें पैदा कर रही थीं तो फ़ैज़ भी इस तहरीक के एक रौशन सितारा बन गए।
फ़ैज़ ने अपनी शायरी के फ़न को अवाम की रहबरी और रहनुमाई की जानिब मोड़ दिया ताकि फ़िक्री बेदारी पैदा हो सके। अदब का जो रवायती क़द आ क़ाल था उसमें नए नज़रिये के साथ अदीबों को नयी राह तलाशने में दुशवारियाँ आ रहीं थीं, लेकिन फ़ैज़ के साथ मामला कुछ अलग था। चूँकि वह इब्तिदा से ही समाज और अवाम से वाबिस्ता रहे थे लिहाज़ा जब वह कुछ कहते या लिखते हैं तो एहसास होता है कि एक “सताया हुआ ग़रीब”, एक “मज़लूम” अपनी दास्तान बयान कर रहा है। फ़ैज़ की शायरी में हिम्मत और उम्मीद का अनोखा संगम है जो “निज़ाम” के सामने एक मज़बूत चुनौती पेश करता है।
फ़ैज़ की ज़िंदगी का अहम पहलू ट्रेड यूनियन और मज़दूर आंदोलन में उनकी शिरकत है। उनका योगदान केवल ट्रेड यूनियन को व्यवस्थित करने में नहीं बल्कि मज़दूर और मेहनत कश लोगों की ‘नज़रयाती तरबीयत’ (ideological training) भी करते रहे ताकि क्रान्ति की नज़रयाती बुनियादें भी मज़बूत रहें। फ़ैज़ की रूमानी शायरी केवल मुहब्बत के जज़्बात को इंक़िलाब की जुस्तजु से जोड़ा ताकि जज़्बाती और सामाजी रिश्तों में ज़िम्मेदारी का एहसास पैदा हो सके। इंक़िलाब और रूमानियत के मिलन का नतीजा यह हुआ कि एक नये अन्दाज़ की “आवाज़” सुनाई दी। जिसकी ”फ़िक्र इंक़िलाबी” थी लेकिन “लहजा गीतमय” था |
उर्दू गद्य में फ़ैज़ की मीज़ान, सलीबें, मेरे दारीचे, मता’ए लोह व क़लम जैसी यादगार किताबें हमारी विरासत का हिस्सा हैं।
सब से बड़ा सवाल यह है कि फ़ैज़ ने जिस तबक़े के लिये ‘शायरी’ की है और लिखा है क्या वह उस तबक़े तक पहुँची? कहीं ऐसा तो नहीं इलीट क्लास ने इस सरमाये पर भी क़ब्ज़ा कर रखा हो और तमाम नज़रयाती कलाम अपनी ज़ेहनी अय्याशी के लिये इस्तेमाल करता हो! इसका जवाब है कि इलीट तबक़े की तरफ़ यह कोशिश शुरू से जारी है लेकिन वह इसे मज़दूरों के आंदोलन का हिस्सा बनने से नहीं रोक सका।
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हर इक ऊलिल-अमर को सदा दो
कि अपनी फ़र्द-ए-अमल सँभाले
उठेगा जब जम्-ए-सरफ़रोशाँ
पड़ेंगे दार-ओ-रसन के लाले
कोई न होगा कि जो बचा ले
जज़ा सज़ा सब यहीं पे होगी
यहीं अज़ाब ओ सवाब होगा
यहीं से उट्ठेगा शोर-ए-महशर
यहीं पे रोज़-ए-हिसाब होगा
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अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बरकतें थीं शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की
साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की
-असग़र मेहदी
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