सम्पादकीय

केंद्र की मोदी सरकार को घेरने के लिए महागठबंधन को पहले राजनीतिक मुद्दों और चुनावी मुद्दों में अंतर करना समझना होगा

Rani Sahu
5 Aug 2021 9:46 AM GMT
केंद्र की मोदी सरकार को घेरने के लिए महागठबंधन को पहले राजनीतिक मुद्दों और चुनावी मुद्दों में अंतर करना समझना होगा
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2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अकल्पनीय जीत से विपक्ष राजनीतिक दृष्टिकोण से निष्क्रिय हो गया था

ज्योतिर्मय रॉय। 2014 और 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की अकल्पनीय जीत से विपक्ष राजनीतिक दृष्टिकोण से निष्क्रिय हो गया था. राजनीतिक दल अपना अस्तित्व बचाने के लिए बीजेपी सरकार के विरुद्ध मुद्दे तलाश रहे थे. 2014 के लोकसभा चुनाव के परिणामों से शोकग्रस्त विपक्ष जहां ठहर सा गया था, वहीं 2019 के लोकसभा चुनाव के बाद, विपक्षी दलों में केंद्र सरकार के विरुद्ध सक्रिय और संगठित होने की भावना देखने को मिली. कोरोना काल की त्रासदी को मुद्दा बनाकर विपक्षी दल अपने-अपने तरीके से केंद्र सरकार को घेरने की कोशीश कर रहे थे. लेकिन 2021 के पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बेनर्जी ने जिस प्रकार मोदी-अमित शाह की जोड़ी को परास्त किया उससे विपक्षी दलों में एक नई आशा की किरण नजर आई.

विपक्ष अब महागठबंधन की महत्वत्ता को समझने लगा है. वैक्सीन ओर टीकाकरण, पेगासस, नए कृषि कानून और मूल्य वृद्धि इन चार मुद्दों को लेकर सभी विपक्षी दल अब मिलकर लोकसभा और राज्यसभा में सरकार को घेरने की कोशिश कर रहे हैं. विपक्ष के हंगामे के कारण सत्र का काम सरकार को बार-बार स्थगित करना पड़ रहा है.
महागठबंधन
2014 और 2019 छोड़ दिया जाए तो ये देखा गया है कि 1984 के बाद किसी भी राजनीतिक दल ने केंद्र में सरकार गठन करने के लिए न्यूनतम लोकसभा की 272 सीटें नहीं जीती. 2014 के लोकसभा चुनावों में, बीजेपी ने 543 में से 282 सीटों पर अभूतपूर्व जीत हासिल की थी और बीजेपी के नेतृत्व में 12 राजनीतिक दलों के राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) ने कुल 336 सीटें जीती, वहीं कांग्रेस के नेतृत्व में सात दलों की संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए) को सिर्फ 60 सीटें मिलीं और अन्य 17 राजनीतिक दलों को कुल 147 सीटें मिली.
2019 के लोकसभा चुनाव में चुनाव से पहले पांच मुख्य राष्ट्रीय गठबंधन थे. मुख्यतः बीजेपी के नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए), कांग्रेस की अध्यक्षता में संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (यूपीए), महागठबंधन (एमजीबी), अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्षता वाली संघीय मोर्चा और कम्युनिस्ट-झुकाव वाली वाम मोर्चा.
2019 कि लोकसभा चुनाव के दौरान, कांग्रेस ने हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, राजस्थान, गुजरात, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में गठबंधन नहीं किया, जहां उसका सीधा मुकाबला बीजेपी से रहा. और इसके विपरीत कांग्रेस ने जम्मू और कश्मीर, बिहार, तमिलनाडु, महाराष्ट्र, कर्नाटक, झारखंड और केरल जैसे राज्यों में क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन किया.
वहीं बहुजन समाज पार्टी और समाजवादी पार्टी ने जनवरी 2019 में उत्तर प्रदेश की 80 सीटों में से 76 सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए एक महागठबंधन की घोषणा की, जिसमें कांग्रेस के लिए दो सीटें, अमेठी और रायबरेली, और अन्य राजनीतिक दलों के लिए दो सीटें छोड़ी थीं.
उल्लेखनीय है कि, बीजेपी को बहुमत मिलने के उपरान्त 2014 और 2019 में बीजेपी ने चुनाव-पूर्व गठबंधन का सम्मान करते हुए केंद्र में गठबंधन की सरकार बनाई, ये और बात है कि कुछ राजनीतिक दल क्षेत्रीय राजनीति के चलते गठजोड़ छोड़कर चले गए.
राजनीतिक दलों की कमजोरी और मजबूरी से उत्पन्न गठबंधन में स्थिरता अनिश्चित है. राष्ट्रीय स्तर पर या राज्य स्तर पर राजनीतिक मुद्दा पूर्णतः भिन्न होते हैं और यही कारण है कि गठबंधन की राजनीति अनिश्चित है. गठबंधन की अपनी एक राजनीति है और गठबंधन अपने आप में एक राजनीति है.
राजनीतिक मुद्दा और चुनावी मुद्दा
केंद्र में विपक्ष द्वारा गठबंधन के लिए जो सक्रियता देखी जा रही है उसका मुख्य कारण 2022 में गोवा, मणिपुर, पंजाब, उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और गुजरात में विधानसभा चुनाव तथा 2024 में लोकसभा चुनाव हैं. केंद्र में बीजेपी सरकार को घेरने के लिए विपक्ष के पास चार राजनीतिक मुद्दे हैं, वैक्सीन ओर टीकाकरण, पेगासस, नए कृषि कानून तथा मूल्य वृद्धि.
वैक्सीन और टीकाकरण का मुद्दा
संसद के वर्षाकालीन अधिवेशन के शुरुआती दौर में वैक्सीन और टीकाकरण को मुद्दा बनाकर विपक्ष संसद में सरकार को घेरने की कोशीश कर रहा था. राहुल गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस, दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के नेतृत्व में आम आदमी पार्टी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के नेतृत्व में तृणमूल कांग्रेस वैक्सीन और टीकाकरण को एक राष्ट्रीय मुद्दा बनाने का प्रयास कर रहे थे, जिसमें में उन्हें काफी सफलता भी मिली. लेकिन केंद्र सरकार द्वारा वैक्सीन और टीकाकरण प्रक्रिया में किए गए सुधार को देखते हुए लगता है शायद ही विपक्ष इसे चुनावी मुद्दा बना सके.
पेगासस का मुद्दा
इजरायली स्पाइवेयर पेगासस के जरिए जासूसी के मुद्दे को लेकर विपक्ष बहुत आक्रामक है. आखिर पेगासस में ऐसा क्या है जिससे विपक्ष इतना आक्रामक हो रहा है. विपक्ष सवाल उठा रहा है, आखिर क्यों संवैधानिक प्राधिकारियों, जजों और पत्रकारों को जासूसी के उम्मीदवार के तौर पर चुना जा रहा है?
जबकि, इजरायली एनएसओ समूह ने सार्वजनिक तौर पर और बार-बार यह कहा है कि वह सिर्फ प्रतिष्ठित सरकारों को ही पेगासस स्पाइवेयर बेचता है और उनसे इसका इस्तेमाल खासतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा और आपराधिक जांच के लिए ही किए जाने की उम्मीद करता है. 'एमनेस्टी इंटरनेशनल' ने 'द वायर' के सहयोग से 10 भारतीयों के फोन की फोरेंसिक जांच की, पता चला इन सभी फोनों पर या तो हैकिंग करने का प्रयास किया गया या उनसे समझौता किया गया.
विपक्ष के नजरों में पेगासस मुद्दा व्यक्ति स्वतंत्रता का मुद्दा है. लेकिन सुरक्षा से जुडें कुछ अधिकारियों का व्यक्तिगत राय है की ये राष्ट्रीय सुरक्षा से जुड़ा मुद्दा भी हो सकता है, जबकि पेगासस को लेकर सरकार ने अभी तक कोई बयान नहीं दिया. पेगासस मामले में सरकार मौन है और यह मामला अब अदालत तक जा पहुंचा. विश्व का हर देश, हर सरकार किसी न किसी रूप से राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर चुने हुए अपने तथा विदेश नागरिकों पर जासूसी करते रहते हैं. स्नूपिंग या हैकिंग उसी का एक हिस्सा है.
सरकार तथा राष्ट्रीय सुरक्षा से संबंधित विभागों की नज़र कुछ गिने चुने लेकिन खास व्यक्तियों पर केंद्रित होती है, केंद्र की तरह राज्य सरकारें भी समय-समय पर जासूसी करती रहती हैं. पेगासस मामला अदालत तक जा पहुंचा है. पेगासस से जुड़ें नामों की लिस्ट के साथ जो तथ्य मीडिया में छापा या दिखाया जा रहा है वह भी अधूरा है. पेगासस मामला से आम जनता प्रभावित नहीं है. पेगासस मुद्दा चुनाव के बहुत पहले उछाला गया मुद्दा है, जो चुनाव आते-आते दम तोड़ देगा. पेगासस मुद्दा सरकार के लिए सरदर्दी का कारण बन सकता है, विपक्ष इसे राष्ट्रीय मुद्दा बना सकती है, लेकिन पेगासस को चुनावी मुद्दा नहीं बनाया जा सकता.
नए कृषि कानून का मुद्दा
नए कृषि कानून के बहिष्कार को लेकर किसान संगठनों ने जो आंदोलन चलाया है, उसमें आम जनता का समर्थन बहुत सकारात्मक नहीं है. 26 जनवरी 2021, गणतंत्र दिवस के उपलक्ष्य में किसानों के एक समूह ने जिस प्रकार लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज का अपमान किया उससे देश की आम जनता आहत है, और वह इस आंदोलन मे रुचि नहीं रखती.
केन्द्र सरकार ने अभी तक 11 बार किसान संगठनों के साथ बैठकें की हैं. हर बैठक से पूर्व किसान नेताओं का ये कहना कि, विशेषकर किसान नेता राकेश टिकैत, 'सरकार पहले बिल वापस ले तभी आगे बातें होगी.' इस प्रकार की हठधर्मिता के कारण सरकार से बातचीत विफल हो रही है. ऐसा प्रतीत होता है कि किसान संगठनों के कुछ नेता नहीं चाहते कि किसी कानूनी मुद्दें पर सरकार के साथ कोई बातचीत हो.
नए कृषि कानून को लेकर जो भ्रम है उसे केन्द्र सरकार को स्पष्ट करना पड़ेगा. किसानों में फैले भविष्य को लेकर भय और भ्रम को दूर करने की जिम्मेदारी केन्द्र सरकार पर है. नए कृषि कानून को लेकर चल रहे कृषि आंदोलन सक्षम नेतृत्व के अभाव से दिशाहीन हो चुके हैं. चुनाव से पहले अगर केंद्र सरकार नए कृषि कानून से जुड़ें सही तथ्य आम किसानों तक पहुंचाने और उन्हें समझाने में सफल रही तो यह मुद्दा भी चुनावी मुद्दा नहीं रहेगा.
मुद्दा वही जो जनता मन भाए
अभी तक जितने भी मुददे को लेकर विपक्ष ने केंद्र सरकार को घेरने का प्रयास किया है, उनमें से मूल्यवृद्धि ही एक ऐसा मुद्दा है जो सरकार के लिए सिर दर्द का कारण बन सकता है. मूल्यवृद्धि से देश की जनता प्रत्यक्ष रूप से प्रभावित है. करोना काल में बढ़ती बेरोजगारी से जूझता साधारण जनमानस त्राहि त्राहि कर रहा है. केंद्र सरकार का बाजार में मूल्य पर नियंत्रण न होने के कारण, दिन प्रतिदिन मूल्य वृद्धि से आम जनता परेशान है. करोना काल में सरकार द्वारा दिए गए सब्सिडी कि घोषणा का सीधा लाभ व्यापारी वर्ग उठा रहा है और आम जनता को कोई राहत नहीं मिल रही है.
करोना काल और विपक्ष की कमजोरी के चलते मूल्यवृद्धि की मुद्दे को सही दिशा देने में अभी विपक्ष असमर्थ है. इस मुददे को लेकर अगर जनआंदोलन हुआ तो सरकार को इसका हर्जाना अवश्य ही भरना पड़ेगा. सरकार ने अगर समय रहते कदम नहीं उठाया तो यह मुद्दा सरकार के पतन का कारण भी हो सकता है. मूल्यवृद्धि जो आज एक राजनीतिक मुद्दा बन सकता है, कल आगे चलकर ये चुनावी मुद्दा भी बन सकता है.
महागठबंधन का नेतृत्व
महागठबंधन का नेतृत्व अपने आप में एक बड़ा सवाल है. केन्द्र मे सरकार गठन की परिपेक्ष में क्षेत्रीय दलों पर आस्था रखना कठिन है, क्योंकि क्षेत्रीय दलों की अपने क्षेत्र के प्रति एक अलग जिम्मेदारी है. हमेशा यह देखा गया है कि क्षुद्र क्षुद्र प्रांतीय मुद्दा, राजनेताओं की महात्वाकांक्षा और केन्द्र की सत्ता सुख महागठजोड़ का कारण बनते हैं. और यही कारण है कि गठजोड़ बनाना जितना आसान है उतना ही मुश्किल है गठजोड़ को पकड़ के रखना. राष्ट्रीय स्तर पर अगर देखा जाए तो बीजेपी के बाद एकमात्र राजनीतिक दल कांग्रेस ही एक ऐसा दल है जिसकी अपनी सर्वभारतीय पहचान है.
पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी केंद्र में बीजेपी मुक्त सरकार बनाने का जो प्रयास कर रही हैं वह केवल केंद्र को राज्य की राजनीति से दूर रखने का एक प्रयास है. विपक्ष द्वारा केंद्र में बीजेपी सरकार के विरुद्ध जो गठबंधन बनाने का प्रयास हो रहा है उसका नेतृत्व केवल कांग्रेस पार्टी द्वारा ही संभव है. हाल ही में राहुल गांधी के नेतृत्व में जिस प्रकार 15 विपक्षी दलों ने एकत्रित होकर संसद और संसद के बाहर सरकार को घेरने का प्रयास किया है इससे यह प्रतीत होता है कि अभी भी विपक्ष दलों की आस्था कांग्रेस के नेतृत्व में है. इस प्रकरण में राहुल गांधी के नेतृत्व की कुशलता में परिपक्वता दिखाई दे रही है. राजनीति में राष्ट्रीय मुद्दे और चुनावी मुद्दे के अंतर को समझना अति आवश्यक है. कुशल नेतृत्व के अभाव के कारण राष्ट्रीय मुद्दे को चुनावी मुद्दे में बदलने की क्षमता अभी विपक्षी दलों में नहीं है. संभव है आने वाले दिनों में देश को ऐसा नेतृत्व देखने को मिले.


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