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बीजेपी अब विनायक दामोदर सावरकर के लिए महात्मा गांधी का सर्टिफिकेट लेकर आई है
प्रियदर्शन बीजेपी अब विनायक दामोदर सावरकर के लिए महात्मा गांधी का सर्टिफिकेट लेकर आई है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह का कहना है कि सावरकर ने महात्मा गांधी के कहने पर माफ़ी की अर्ज़ियां दी थीं. यह बात इतनी तथ्यहीन है कि इसका खंडन करने तक की ज़रूरत महसूस नहीं होती. क्योंकि यह बात प्रमाणित है कि दक्षिण अफ्रीका से गांधी के लौटने से पहले ही सावरकर ने अर्ज़ियां देने का जो सिलसिला शुरू किया था, वह अगले कुछ सालों में छह अर्ज़ियों तक चला गया था.
वैसे इसमें शक नहीं कि महात्मा गांधी सावरकर की रिहाई के हक़ में थे. यही नहीं, अपनी रिहाई न होने से मायूस सावरकर जिन लोगों को चिट्ठियां लिख रहे थे या तार भेज रहे थे, उनमें महात्मा गांधी भी थे. महात्मा गांधी ने भी सावरकर की रिहाई को लेकर ब्रिटिश सरकार को चिट्ठी लिखी थी. यह जानना दिलचस्प है कि सावरकर की रिहाई के लिए गांधी ने क्या-क्या दलीलें दी थीं. महात्मा गांधी ने बेशक सावरकर के शौर्य की तारीफ़ की थी, लेकिन यह भी कहा था कि वे ब्रिटिश सरकार के वफ़ादार हैं. वे मानते हैं कि भारत के सर्वोत्तम हित ब्रिटिश सरकार के साथ ही रहने में हैं. ब्रिटिश सरकार को उनसे कोई ख़तरा नहीं है. बल्कि महात्मा गांधी ने ही नहीं, यह बात ख़ुद सावरकर ने कही और बार-बार कही. 14 नवंबर 1913 में अपना दूसरा माफ़ीनामा लिखते हुए सावरकर ने लिखा- मैं किसी भी हैसियत में सरकार की सेवा करने को तत्पर हूं...लाडला बेटा सरकार के अभिभावकीय द्वार पर नहीं तो और कहां जा सकता है?' यही नहीं, वे बार-बार दुहराते हैं कि वे ब्रिटिश सरकार के वफ़ादार की तरह उसके निर्देशों के मुताबिक काम करते रहेंगे.
इसमें संदेह नहीं कि सावरकर के प्रति गांधी कई बार अतिरिक्त उदार दिखते हैं. उन्हें सावरकर में कई गुण दिखाई पड़ते हैं. लेकिन वे यह देखना भूल जाते हैं कि सावरकर समझौते करने में वीर थे और ऐसे समझौतों के लिए किसी भी हद तक जा सकते थे. अंग्रेज सरकार ने कुछ देर से ही सही, उन्हें इसका इनाम भी दिया. उनकी पेंशन चलती रही. और सावरकर इस दौरान क्या करते रहे? राजनीतिक गतिविधियों से दूर रहने का जो वादा उन्होंने अंग्रेज़ सरकार से किया था, उसे निभाने के अलावा वे बीच-बीच में अपनी वफ़ादारी भी साबित करने की कोशिश में लगे रहे. 'फ्रंटलाइन' में एजी नूरानी के एक लंबे लेख में जनवरी, 2000 के ईपीडब्ल्यू में प्रकाशित मार्ज़िया कैसोलरी के एक आलेख 'तीस के दशक में हिंदुत्व का विदेशी टाई-अप' का हवाला दिया गया है. इस लेख में 9 अक्टूबर, 1939 को सावरकर और वायसराय लॉर्ड लिनलिथगो की बातचीत के मिनट का ज़िक्र है जिसके मुताबिक सावरकर ने कहा था, 'हमारे हित अब एक हैं और इसलिए हमें एक साथ (गांधी और कांग्रेस के ख़िलाफ़) मिल कर काम करना चाहिए.'
कुछ दूसरी किताबें बीच में सावरकर भाइयों की दूसरी तरह की गतिविधियों का ब्योरा देती हैं. हिंदी को विभाजन की त्रासदी पर 'झूठा सच' जैसा उपन्यास देने वाले प्रसिद्ध लेखक यशपाल ने अपनी आत्मकथा 'सिंहावलोकन' में बताया है कि किस तरह सावरकर के भाई ने उन्हें मोहम्मद अली जिन्ना को मारने की सुपारी देनी चाही थी और इस प्रस्ताव पर चंद्रशेखर आज़ाद तक भड़क गए थे.
बहरहाल, सावरकर के झूठे बयानों की कहानी लंबी है. एजी नूरानी ने उनके माफ़ीनामों की भी एक फ़ेहरिस्त सी तैयार कर दी है. इंतिहा यह है कि आज़ाद भारत में भी वे माफ़ीनामे देते रहे.
इंतिहा ये भी है कि शुरू से ही सावरकर के विचारों और इरादों से परिचित होने के बावजूद गांधी उन्हें ममत्व के साथ देखते रहे जबकि सावरकर अंततः उनकी हत्या के आरोपियों में शुमार हुए. बेशक, अदालत ने सावरकर को बरी कर दिया, लेकिन कई इतिहाससिद्ध तथ्य हैं जो बताते हैं कि किस तरह सावरकर के इशारे पर यह पूरी साज़िश हुई. नाथूराम गोडसे तो बस एक हाथ था जिसकी उंगलियों में एक पिस्तौल थमा दी गई थी. 1969 में आई जस्टिस बीके कपूर की रिपोर्ट इसके कई प्रमाण पेश करती है. रिपोर्ट सीधे कहती है- अगर सभी तथ्यों को एक साथ देखा जाए तो बस यही एक थ्योरी बची रह जाती है कि हत्या की साज़िश सावरकर और उसके समूह ने रची थी.' गांधी की हत्या से पहले नाथूराम गोडसे और उसका सहयोगी नारायण आप्टे सावरकर से मिलते हैं. वहीं से उन्हें प्रेरणा भी मिलती है और योजना भी और उस पर अमल के साधन भी. मुंबई पुलिस सावरकर को गिरफ़्तार कर पूछताछ करना चाहती है लेकिन उसे इसकी इजाज़त नहीं मिलती.
सच तो यह है कि गांधी और सावरकर का इतिहास इतना पुराना नहीं पड़ा है कि उसे भ्रांतियों से बदला जा सके. सावरकर के हिंदुत्व की नए सिरे से तारीफ़ हो रही है. बताया जा रहा है कि उसका वास्ता हिंदू-मुसलमान वाली सांप्रदायिक दृष्टि से नहीं, बल्कि एक राष्ट्रवादी दृष्टि से है. लेकिन इस तथाकथित राष्ट्रवादी दृष्टि का हासिल क्या रहा है? क्या सावरकर का तथाकथित हिंदुत्ववादी राष्ट्रवाद गांधी के बहुसांस्कृतिक और मानवीय राष्ट्रवाद के आगे कहीं भी टिकता है? और सावरकर जब अपनी ही प्रतिज्ञाओं का सम्मान नहीं कर पाए तो यह क्यों मान लिया जाए कि हिंदुत्व की उनकी अवधारणा बिल्कुल वैसी ही उदार थी जैसी बताई जा रही है या वे बताते रहे हैं?
हैरानी की बात यह भी है कि 1925 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बनता है लेकिन वह सावरकर से कुछ भी लेने को तैयार नहीं है- सावरकर का नाम तक नहीं. आज़ाद भारत में भी सावरकर 1966 तक जीते हैं, लेकिन किसी मोड़ पर सक्रिय नहीं दिखते हैं. इस दौरान देश कई झंझावातों से भी गुज़रता है. तब राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या जनसंघ ने उनसे नाता क्यों नहीं जोड़ा?
लेकिन राजनाथ सिंह के बयान पर लौटें. सावरकर को सही साबित करने के लिए उन्हें महात्मा गांधी को उद्धृत करने की ज़रूरत पड़ती है. क्या उनको या उनकी पार्टी को एहसास है कि वे गांधी के रास्ते से कितनी दूर खड़े हैं और कितनी विपरीत दिशा में जा रहे हैं? वे गांधी का किस-किस तरह से इस्तेमाल कर रहे हैं? जिस पार्टी में प्रज्ञा ठाकुर जैसी गोडसे प्रशंसक सांसद हो, वह क्या गांधी का नाम लेने की हक़दार है?
दरअसल कथनी-करनी की जो दूरी, झूठ की जो राजनीति, दुष्प्रचार की जो रणनीति सावरकर की तथाकथित वीरता का विडंबनापूर्ण हिस्सा दिखाई पड़ती है, वह बीजेपी और संघ परिवार की विरासत का हिस्सा बनी हुई है. यह भी एक वजह है कि हमारा इतिहास ही नहीं, वर्तमान और भविष्य भी ख़तरे में है. महात्मा गांधी को उद्धृत करके एक दिन कुछ लोग सावरकर ही नहीं, गोडसे का बचाव करते नज़र आएं तो हैरान न हों.
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