- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- न्याय व्यवस्था में...
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| नील राजपूत।हरबंश दीक्षित। भारत के मुख्य न्यायाधीश एनवी रमना ने फिर अदालती व्यवस्था में सुधार पर चर्चा शुरू की है। इस बार उन्होंने उसके भारतीयकरण पर बल दिया है। उन्होंने चिंता व्यक्त की है कि अदालती भाषा और प्रक्रिया आम आदमी के लिए इतनी दुरुह है कि वह उसे जानने के लिए दूसरों पर निर्भर रहता है। इतना ही नहीं इसका अंतहीन सिलसिला चलता रहता है। मुख्य न्यायाधीश ने यह भी कहा कि अपनी पांच हजार साल पुरानी पारदर्शी और उन्नत अदालती व्यवस्था होने के बावजूद हम अपने निर्णयों में विदेशी सिद्धांतों की मदद लेते हैं, जो आम आदमी की समझ में नहीं आते।
वैदिक काल में अदालतों को सभा कहा जाता था। वे स्थानीय स्तर पर एक गांव या आसपास के कुछ गांवों के विवादों का निपटारा अपने स्तर पर कर देती थीं। इस न्यायिक व्यवस्था पर लोगों का भरोसा इस कदर था कि बहुत कम मुकदमे ऐसे होते थे, जिन्हें राजधानी ले जाना पड़ता था, जहां दो तरह की अदालतें होती थीं। राजा की अदालत सबसे बड़ी होती थी, किंतु उसके नीचे भी एक न्यायालय होता था, जिसमें एक न्यायाधीश तथा आम नागरिकों के बीच से लिए गए कुछ लोग होते थे, जिन्हें आज की भाषा में ज्यूरी कहा जा सकता है। ज्यूरी विवेचक की भूमिका निभाते थे, जिन्हें कानून की कसौटी पर परखने के बाद न्यायाधीश निर्णय देता था। राजा की अदालत में बहुत कम मामले पहुंचते थे, क्योंकि अधिकतर लोग निचली अदालत के निर्णय से संतुष्ट हो जाते थे। राजा की सहायता के लिए परिषद होती थी, जिसमें न्यायमंत्री और निचली अदालत का प्रधान न्यायाधीश शामिल होता था। सुनवाई खुली अदालत में होती थी। उसमें राजा का उपस्थित होना जरूरी नहीं था, फिर भी उसे सदैव उपस्थित माना जाता था और सभी निर्णय उसके ही नाम से लिए जाते थे। इन न्यायालयों की सबसे बड़ी विशेषता यह थी कि वहां आम नागरिक की भाषा इस्तेमाल होती थी। नियम-कानून भी ऐसे होते थे, जिन्हें आम आदमी समझ सकता था। उसे समझने के लिए किसी विशेषज्ञ की जरूरत नहीं थी। पूरी प्रक्रिया मुकदमे के पक्षकारों के इर्द-गिर्द घूमती थी। इस समय सब कुछ ठीक उलटा है। इससे समूची प्रक्रिया पर सवाल उठते हैं।
आज कानून की भाषा और अदालती प्रक्रिया ऐसी है कि उसमें वादी कहीं दूर बेचारा सा खड़ा दिखाई देता है। न्यायाधीश, अधिवक्ता और जटिल कानून न्यायिक व्यवस्था के केंद्र में आ गए हैं। कानूनों को स्थानीय भाषा में उपलब्ध कराने के लिए राष्ट्रीय स्तर पर सुझाव भी आए, किंतु उनका क्रियान्वयन नहीं हो सका। मालिमथ कमेटी ने 2003 में अपनी रिपोर्ट में इस पर व्यापक अनुशंसा की थी। उसमें कहा गया था कि हर कानून में अनुसूची जोड़कर उसे स्थानीय भाषा में भी लिखकर शामिल किया जाए। उनका मत था कि इससे आम आदमी कानून की समझ विकसित कर सकेगा और उसका भरोसा बढ़ेगा। वैदिक अदालतों की दूसरी खासियत यह थी कि उनकी पहुंच सुदूर गांवों तक थी और अधिकतर मामलों का अंतिम निपटारा वहीं हो जाता था। अपनी सत्यनिष्ठा के लिए प्रतिबद्ध लोग वहां पंचों की भूमिका में होते थे। स्थानीय परिस्थितियों और परंपराओं से वे बखूबी वाकिफ होते थे।
आज की स्थिति यह है कि सरकार और अदालतों की तमाम कोशिशों के बावजूद लंबित मुकदमों की संख्या बढ़ती जा रही है। इस समय चार करोड़ से ज्यादा मामले लंबित चल रहे हैं। स्थिति इतनी भयावह है कि यदि एक भी नया मुकदमा दायर नहीं किया जाए तब भी मौजूदा व्यवस्था में उन्हें निपटाने में सौ वर्ष लग जाएंगे। इस समस्या से निपटने के लिए 2009 में संसद ने ग्राम न्यायालय अधिनियम के माध्यम से स्थानीय स्तर पर अदालतों की स्थापना के लिए कानून बनाया था, किंतु उसके अपेक्षित परिणाम नहीं आ पाए। इसमें कुल आठ हजार न्यायालयों का गठन होना था,परंतु अब तक केवल 395 न्यायालयों की अधिसूचना जारी हो पाई है और उनमें से भी अधिकतर या तो निष्क्रिय हैं या आधे-अधूरे ढंग से काम कर रहे हैं। यदि उन पर पर्याप्त ध्यान दिया जाए तो नए मामलों की संख्या अपने आप कम हो जाएगी। वैदिक कालीन अदालतों की एक विशेषता यह भी थी कि न्यायाधीश की सत्यनिष्ठा असंदिग्ध होती थी।
उसका जीवन समाज के सामने खुली किताब की तरह होता था। यहां तक कि व्यक्तिगत जीवन में भी किसी तरह की विधिक या नैतिक गलती अक्षम्य थी। ज्यूरी के आचरण के लिए कठोर नियम थे। यदि ज्यूरी का कोई सदस्य अपनी राय नहीं देता था या विधि विरुद्ध कार्य करता था तो उसे उसके पद से हटा दिया जाता था। मौजूदा व्यवस्था में न्यायिक निष्पक्षता को मजबूती देने के लिए कोलेजियम सिस्टम के माध्यम से न्यायपालिका ने काफी कुछ अपने हाथ में ले लिया है। अब नियुक्ति के मामले में सरकारी दखलंदाजी की संभावना नगण्य हो गई है, परंतु इसमें पारदर्शिता आवश्यक है।
वैदिक अदालतें न्याय करते समय केवल तकनीकी या कानूनों के आधार पर ही नहीं, अपितु संदर्भानुसार मध्यस्थता और समझौते का व्यापक प्रयोग करती थीं। ग्रामीण न्यायालयों के न्यायाधीशों को तो पंच के ही पदनाम से आज भी संबोधित किया जाता है। मध्यस्थता की सबसे बड़ी खासियत यह होती है कि इसमें मुकदमे के दोनों पक्षों में से कोई हारता नहीं, अपितु दोनों ही अपने को विजेता मानते हैं। दोनो संतुष्ट हो जाते हैं और अपील की जरूरत नहीं पड़ती। इसलिए ऊपर की अदालतों पर मुकदमों का बोझ नहीं बढ़ता। हमारे पास इस समय सैद्धांतिक तौर पर मध्यस्थता, सुलह तथा पंचनिर्णय के विकल्प मौजूद हैं, किंतु उनका समुचित उपयोग नहीं हो पा रहा है। मुहिम चलाकर उनका प्रचार-प्रसार करने तथा अदालतों द्वारा उन्हें प्रोत्साहित करने की जरूरत है।