- Home
- /
- अन्य खबरें
- /
- सम्पादकीय
- /
- उलटे पिरामिड को सीधा...
सम्पादकीय
उलटे पिरामिड को सीधा करने का समय : देश को चुनावी, न्यायिक, और प्रशासनिक स्तरों पर सुधार की सख्त जरूरत
Rounak Dey
14 Aug 2022 1:47 AM GMT

x
जो सुधार–केंद्रित एजेंडा (जैसे, चुनावी सुधार) को जनता के सामने लेकर आए।
कल 15 अगस्त को भारत को ब्रिटेन के चंगुल से आजाद हुए 75 वर्ष हो जाएंगे। पूरा देश इसे आजादी के अमृत महोत्सव के रूप में मना रहा है। ऐसे में अपने देश में लोकतंत्र की स्थिति का आकलन करना बहुत महत्वपूर्ण हो गया है। वर्तमान में जो दिशा हम अपने लोकतंत्र को देंगे, वही शतक की तरफ अग्रसर अगले 25 वर्षों के लिए मील का पत्थर साबित होगी।
भारत ने स्वतंत्र होने के बाद लोकतंत्र की संसदीय प्रणाली को अपनाया था और 21 वर्ष (1950 में सार्वभौमिक मताधिकार की उम्र 21 थी, लेकिन 1989 में यह घटकर 18 वर्ष हो गई) से अधिक उम्र के पुरुषों और महिलाओं को सार्वभौमिक मत का अधिकार दिया था। हालांकि देखा जाए, तो दूसरे देशों (मसलन अमेरिका) में महिलाओं को मताधिकार प्राप्त करने के लिए दशकों तक संघर्ष करना पड़ा था।
हमारा देश संविधान के अनुरूप चलता है। देश में तीन स्तर पर शासन व्यवस्था है, केंद्र, राज्य और ग्राम पंचायत। जिस समय हमारा संविधान बनाया जा रहा था, उस समय संविधान निर्माताओं ने स्थानीय स्तर पर तीसरे स्तर के शासन के लिए महात्मा गांधी के आह्वान को पूरी तरह से नजरंदाज करते हुए दो स्तरों, केंद्र और राज्य पर शासन स्थापित करते हुए, देश के एक संघीय ढांचे का निर्माण किया था। 1993 में 73वें और 74वें सांविधानिक संशोधन के तहत पंचायती राज व्यवस्था को शासन के तीसरे स्तर (स्थानिक शासन/तीसरी सरकार) के रूप में कानूनी दर्जा मिला था। गौरतलब है कि गांधी ने ग्राम गणतंत्र की वकालत बहुत पहले ही कर दी थी।
लोकतंत्र या पार्टीतंत्र ः भारतीय संविधान में राजनीतिक दलों का स्थान या उनकी भूमिका के बारे में हमें स्पष्ट रूप से देखने को नहीं मिलता है। ऐसे में यह आश्चर्यजनक ही है कि किस कदर पिछले सात दशकों में हमारा लोकतंत्र राजनीतिक दलों और पार्टियों का पर्याय बना चुका है। आज पार्टी सिस्टम (पार्टी तंत्र) ने लोकतंत्र पर कब्जा कर लिया है।
जितना अधिक ये राजनीतिक दल जनता का ध्रुवीकरण करने में सक्षम होते हैं, उतना ही ज्यादा ये फलते–फूलते जाते हैं। हाल ही के घटनाक्रमों पर निगाह डालिए। बंगाल के अब जेल में बंद शिक्षा मंत्री पार्थ चटर्जी की सहयोगी के घरों से नोटों की बरसात आपने टीवी पर देखी। प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) जब इन राजनेताओं को भ्रष्टाचार या वित्तीय धोखाधड़ी करने के जुल्म में गिरफ्तार करता है, तो इनके व इनके पार्टियों के बयान अनैतिकता की सीमाएं लांघ जाते हैं। महाराष्ट्र व बिहार में चुनी हुई सरकारें कैसे जनता के मत को धता बताते हुए धन, पावर गेम का खुले आम प्रदर्शन करते हुए अदला-बदली करती हैं।
यद्यपि दल आधारित संसदीय लोकतंत्र विश्व में व्यापक रूप से प्रचलित है। लोगों को खेमों में बांटना व वैमनस्य पैदा कर अपनी राजनीति चमकाना दलीय राजनीति का अभिन्न अंग है। और फिर सत्ता का केंद्रीकरण कर येन-केन प्रकारेण सत्ता से चिपके रहना भी दलीय प्रणाली में खूब देखने को मिलता है। सवाल यही उठता है कि क्या यही लोकतंत्र की असली अवधारणा है? क्या यही लोकतंत्र हम चाहते हैं? तो इसका उत्तर स्पष्ट है नहीं!
भारत के पास क्या विकल्प हैः अगर हम अपने पौराणिक व गौरवशाली इतिहास को देखें, तो वैदिक काल से ही हमारे गांवों में स्थानीय शासन निहित था और इसके ठोस रिकॉर्ड्स भी मौजूद हैं। भारत का लोकतांत्रिक मॉडल, यूनान और रोम के लोकतंत्र मॉडल से भी पहले का है। इस समय भारतीय लोकतंत्र के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है, 'सहभागी लोकतंत्र का एक परिष्कृत मॉडल।' एक ऐसा लोकतंत्र जो नीचे से ऊपर की ओर बहता हो, न कि जेपी के शब्दों में 'उलटे पिरामिड' की भांति खड़ा रहे।
आज की पृष्ठभूमि में दलविहीन लोकतंत्र की बात करना जनता को अचंभे में डाल देता है। लेकिन अगर इतिहास के पन्ने पलट कर देखा जाए तो पता चलता है कि एम.एन. रॉय, महात्मा गांधी और लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने दलविहीन लोकतंत्र की परिकल्पना को देश के सामने रखा था। एम.एन रॉय ने 1944 की शुरुआत में ही 'लोगों की समितियां' बनाने की अपील की थी। गांधी जी ने सुझाव दिया था कि कांग्रेस पार्टी को भंग कर दिया जाए और स्वतंत्र भारत में गणराज्यों (ग्राम सभाओं) के रूप में लोकतंत्र के बीज बोए जाएं। इसके बाद जयप्रकाश नारायण ने 1950 के दशक में पार्टी–आधारित राजनीति को त्याग दिया था।
आज देश को चुनावी, न्यायिक, और प्रशासनिक स्तरों पर सुधार की सख्त आवश्यकता है। और हमें यह भी समझना होगा कि इस समय पार्टी आधारित राजनीति सबसे बड़ी बाधा के रूप में हमारे सामने खड़ी है। हमारे लोकतंत्र को मजबूत करने और वर्तमान व्यवस्था को ठीक करने के लिए लोगों को एकजुट होना पड़ेगा, सोई हुई चेतना को जगाना पड़ेगा। एक नए और व्यापक स्तर पर जनांदोलन (आंदोलन) की आवश्यकता है, जो सुधार–केंद्रित एजेंडा (जैसे, चुनावी सुधार) को जनता के सामने लेकर आए।
सोर्स: अमर उजाला
Next Story