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- हड़ताल से निकली ध्वनि...

अरुण कुमार, अर्थशास्त्री: निजीकरण के खिलाफ और श्रम सुधारों को लेकर श्रमिक संगठनों की देशव्यापी हड़ताल का असर दिखा है। हाल के वर्षों में हम वक्त-वक्त पर ऐसी हड़तालें या बंद देखते रहे हैं। जाहिर है, श्रमिक संगठन ऐसा करके अपने हित के मुद्दे उठाते हैं, जो श्रम कानूनों, महंगाई, वेतन आदि से जुड़े होते हैं। इन मसलों के अनवरत बने रहने की एक बड़ी वजह हमारी नीतियों का 'डिमांड साइड इकोनॉमिक्स' के बजाय 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' पर आधारित होना है। 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' का मतलब है, कारोबारी हित में नीतियों का बनना, ताकि उत्पादों की आपूर्ति बढ़े। माना जाता है कि इससे कारोबारी ज्यादा निवेश के लिए उत्सुक होते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है और अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है। मगर देखा यह गया है कि जब मांग कम हो, तब यह नीति काम नहीं करती। साल 2019 में ही जब केंद्र सरकार ने 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' के तहत कॉरपोरेट टैक्स कम किया, तब बाजार में मांग कम होने के कारण निवेश में इजाफा नहीं हुआ। निजी क्षेत्र ने इस सरकारी छूट का लाभ अपनी 'बैलेंस शीट' को ठीक करने में किया। नतीजतन, हमारी आर्थिक विकास दर गिरती चली गई।सप्लाई साइड' की नीतियां कारोबार-समर्थक और श्रमिक वर्ग के खिलाफ होती हैं। मजदूर आज इसलिए आंदोलनरत हैं, क्योंकि आर्थिक सुधारों के बाद से पूंजीपतियों के हित में नीतियां बनने लगी हैं। रही-सही कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर दी है। इसमें विशेषकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति काफी खराब हो गई है। 1,500 कंपनियों का अध्ययन करके रिजर्व बैंक ने जो आंकड़ा जारी किया है, वह बताता है कि कोरोना महामारी के दौरान कॉरपोरेट सेक्टर का लाभ तो 24 फीसदी तक बढ़ा है, जबकि बेरोजगारी और महंगाई ने मजदूर वर्गों की कमर तोड़कर रख दी है। इसकी मार संगठित क्षेत्र पर भी पड़ी है। खासकर, निविदा पर काम कर रहे मजदूरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इस दौरान सूचना-प्रौद्योगिकी और तकनीक के क्षेत्रों ने तो बेशक अच्छा काम किया है, लेकिन पर्यटन, कपड़ा एवं चमड़ा उद्योग जैसे क्षेत्र कोरोना से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।
