सम्पादकीय

हड़ताल से निकली ध्वनि सुनने का समय

Deepa Sahu
29 March 2022 7:00 PM GMT
हड़ताल से निकली ध्वनि सुनने का समय
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निजीकरण के खिलाफ और श्रम सुधारों को लेकर श्रमिक संगठनों की देशव्यापी हड़ताल का असर दिखा है।

अरुण कुमार, अर्थशास्त्री: निजीकरण के खिलाफ और श्रम सुधारों को लेकर श्रमिक संगठनों की देशव्यापी हड़ताल का असर दिखा है। हाल के वर्षों में हम वक्त-वक्त पर ऐसी हड़तालें या बंद देखते रहे हैं। जाहिर है, श्रमिक संगठन ऐसा करके अपने हित के मुद्दे उठाते हैं, जो श्रम कानूनों, महंगाई, वेतन आदि से जुड़े होते हैं। इन मसलों के अनवरत बने रहने की एक बड़ी वजह हमारी नीतियों का 'डिमांड साइड इकोनॉमिक्स' के बजाय 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' पर आधारित होना है। 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' का मतलब है, कारोबारी हित में नीतियों का बनना, ताकि उत्पादों की आपूर्ति बढ़े। माना जाता है कि इससे कारोबारी ज्यादा निवेश के लिए उत्सुक होते हैं, जिससे उत्पादन में वृद्धि होती है और अर्थव्यवस्था आगे बढ़ती है। मगर देखा यह गया है कि जब मांग कम हो, तब यह नीति काम नहीं करती। साल 2019 में ही जब केंद्र सरकार ने 'सप्लाई साइड इकोनॉमिक्स' के तहत कॉरपोरेट टैक्स कम किया, तब बाजार में मांग कम होने के कारण निवेश में इजाफा नहीं हुआ। निजी क्षेत्र ने इस सरकारी छूट का लाभ अपनी 'बैलेंस शीट' को ठीक करने में किया। नतीजतन, हमारी आर्थिक विकास दर गिरती चली गई।सप्लाई साइड' की नीतियां कारोबार-समर्थक और श्रमिक वर्ग के खिलाफ होती हैं। मजदूर आज इसलिए आंदोलनरत हैं, क्योंकि आर्थिक सुधारों के बाद से पूंजीपतियों के हित में नीतियां बनने लगी हैं। रही-सही कसर कोरोना महामारी ने पूरी कर दी है। इसमें विशेषकर असंगठित क्षेत्र के मजदूरों की स्थिति काफी खराब हो गई है। 1,500 कंपनियों का अध्ययन करके रिजर्व बैंक ने जो आंकड़ा जारी किया है, वह बताता है कि कोरोना महामारी के दौरान कॉरपोरेट सेक्टर का लाभ तो 24 फीसदी तक बढ़ा है, जबकि बेरोजगारी और महंगाई ने मजदूर वर्गों की कमर तोड़कर रख दी है। इसकी मार संगठित क्षेत्र पर भी पड़ी है। खासकर, निविदा पर काम कर रहे मजदूरों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ा है। इस दौरान सूचना-प्रौद्योगिकी और तकनीक के क्षेत्रों ने तो बेशक अच्छा काम किया है, लेकिन पर्यटन, कपड़ा एवं चमड़ा उद्योग जैसे क्षेत्र कोरोना से बुरी तरह प्रभावित हुए हैं।

अर्थव्यवस्था का एक सिद्धांत बताता है कि जितनी मजदूरी बढ़ेगी, कंपनियों का मुनाफा उतना कम होगा, और कंपनियां जितना फायदा कमाएंगी, मजदूरों का वेतन उतना कम होगा। पूंजीवाद में कंपनियों का रवैया अधिकाधिक लाभ कमाना होता है। चूंकि वेतन-वृद्धि न होने या सामाजिक-आर्थिक सुरक्षा न मिलने की सूरत में मजदूर कई उपाय करते हैं, मगर कोई राहत न देख अंतत: वे हड़ताल-बंद पर उतर जाते हैं। हालांकि, मजदूरों का एक बड़ा तबका असंगठित है (कृषि कर्म में ही 45 फीसदी आबादी लगी है) और यह तबका आंदोलन नहीं कर पाता, इसलिए हालिया श्रमिक आंदोलन बहुत असरंदाज होते नहीं दिखे।
यहां एक समस्या और है। 'लेबर एरिस्टोक्रेसी' (मजदूर अभिजातवर्ग) श्रमिक आंदोलन का एक बड़ा रोड़ा है। दरअसल, अधिकारी वर्ग के कामगार श्रमिकों के साथ संघर्ष करने से हिचकिचाते हैं। इसका फायदा कारोबारी उठाते हैं। उनकी मंशा भी यही होती है कि मजदूर संगठनों में मतभेद बना रहे। यही वजह है कि हम एक ही कारखाने में कई-कई मजदूर संघों को सक्रिय देखते हैं। चूंकि, अभी कामगार वर्ग में काफी उथल-पुथल है, इसलिए सत्तारूढ़ दल के संगठनों को छोड़कर कमोबेश देश के सभी संगठन एकजुट होकर आंदोलनों में जुटे हैं।
सन 1991 के बाद जब से अपने यहां नई आर्थिक नीतियां आई हैं, तभी से यह सोच बन गई कि नए कायदे-कानून श्रमिकों के विरुद्ध और कारोबारियों के हित में होंगे। इसीलिए, करीब चार साल तक, यानी 1995 तक हर वर्ष कम से कम दो बार 'भारत बंद' जैसे आंदोलन जरूर हुआ करते। मगर उनका ज्यादा प्रभाव नहीं पड़ा और हालात दिन-ब-दिन कामगारों के खिलाफ होते गए। देखा जाए, तो अब हड़ताल या बंद जैसे आंदोलन श्रमिकों की निराशा की महज अभिव्यक्ति हैं। नए-नए अध्ययन इसी बात की तस्दीक करते हैं। जैसे, बजट के समय इसी फरवरी में आए प्राइस (पीआरआईसीई) सर्वे के आंकड़े बताते हैं कि 2015-16 की तुलना में 2020-21 में सबसे गरीब 20 फीसदी आबादी की आमदनी 50 फीसदी तक गिर गई, जबकि इसी दौरान देश के सबसे धनाढ्य 20 फीसदी आबादी की आमदनी में 30 फीसदी का इजाफा हुआ। साफ है, अमीरों और गरीबों के बीच की असमानता 1990-91 के बाद बहुत तेजी से बढ़ी है, जिससे कामगार तबके के लिए मुश्किलें बढ़ी हैं।
इसमें सरकारों की भी बड़ी भूमिका रही है। सन 1950 से 1990 के बीच श्रमिकों को जो अधिकार हासिल थे, वे बाद के वर्षों में धीरे-धीरे उनसे छीन लिए गए। आर्थिक नीतियां कारोबारियों के हित में बनाई जानी लगीं। इसने श्रमिकों की दुविधा बढ़ा दी है। विशेषकर संगठित क्षेत्र के कामगारों को यह डर सता रहा है कि यदि उनसे रोजगार छिन गया, तो वे भी असंगठित क्षेत्र का हिस्सा बन जाएंगे, जिसकी हालत बेहद खराब है।
कहने की जरूरत नहीं कि सरकारों को श्रमिकों के हित में सोचना चाहिए। अगर अपने देश में इतना बड़ा असंगठित क्षेत्र (इसे मैं 'रिजर्व आर्मी ऑफ लेबर' कहता हूं) न होता, तो श्रमिक कहीं ज्यादा मोल-भाव करने की हैसियत में होते। मगर ऐसा है नहीं। फिर, अत्याधुनिक तकनीक ने विशेषकर बैंकिंग जैसे क्षेत्र में श्रमिकों की जगह ले ली है। इसलिए, मजदूरों को निस्संदेह समर्थन दिया जाना चाहिए। आज के समय में रोजगार पैदा करना, महंगाई नियंत्रित करना, कामगारों को सामाजिक-आर्थिक सहयोग देना, पारदर्शिता बनाए रखना और मजदूर-हितैषी नीतियों को आगे बढ़ाना निहायत जरूरी है। हेनरी फोर्ड ने कभी कहा था कि जब तक मेरा वर्कर मेरी कार नहीं खरीद पाएगा, तब तक कार का 'मास प्रॉडक्शन' करके भला क्या होगा? उनका इशारा बाजार में मांग बढ़ाने की तरफ था। आज की सरकारों को इससे सबक लेना चाहिए। कामगारों को 'लिविंग वेज' मिलना ही चाहिए।
(ये लेखक के अपने विचार हैं)


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