सम्पादकीय

विदेशी चंदे से मुक्ति पाने का समय, एफसीआरए में संशोधन के आगे सरकार को होगा सोचना

Gulabi
13 Oct 2020 2:33 AM GMT
विदेशी चंदे से मुक्ति पाने का समय, एफसीआरए में संशोधन के आगे सरकार को होगा सोचना
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किसी स्वाभिमानी राजसत्ता में आर्थिक या राजनीतिक रूप से विदेशी हस्तक्षेप चिंता और नाराजगी का विषय होता है।
जनता से रिश्ता वेबडेस्क। किसी स्वाभिमानी राजसत्ता में आर्थिक या राजनीतिक रूप से विदेशी हस्तक्षेप चिंता और नाराजगी का विषय होता है। अमेरिका में गत चुनाव में रूसी दखलंदाजी के आरोपों पर सियासी सरगर्मी बनी रही। यह अलग बात है कि भारत में मित्रोखिन आर्काइव से लेकर राजीव गांधी फाउंडेशन को चीन से हुई फंडिंग तक के मामले में उदासीनता ही दिखी, परंतु समय-समय पर घटने वाले इन शर्मिंदगी भरे प्रकरणों से भी बड़ी समस्या गैर सरकारी संस्थाओं यानी एनजीओ को संस्थागत रूप से प्राप्त होने वाली विदेशी पूंजी है। यह सही है कि तमाम विदेशी मदद गैर राजनीतिक और सकारात्मक प्रकल्पों के माध्यम से व्यय होती है, मगर विदेशी चंदे का एक बड़ा हिस्सा देश में धर्मांतरण, सामाजिक विघटन, उपद्रव, न्यायिक दखल और सार्वजनिक विमर्श को प्रभावित करने में भी खर्च किया जाता है।

विदेशी चंदे को नियमित करने के लिए पहली बार विदेशी अंशदान विनियमन विधेयक यानी एफसीआरए 1976 में लाया गया था, पर इसका उद्देश्य उपरोक्त चुनौतियां न होकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के व्यक्तिगत भय थे। इंदिरा को डर था कि समाजवादी और खासकर जॉर्ज फर्नांडीज अपने प्रभावशाली अंतरराष्ट्रीय मित्रों की मदद से उन्हें पदच्युत कर सकते हैं। यही कारण था कि इस कानून की जद में सरकारी कर्मचारी, जज, जनप्रतिनिधि, पार्टियां, प्रत्याशियों के अलावा अखबार मालिक, संपादक, संवाददाता, स्तंभकार और यहां तक कि कार्टूनिस्ट तक शामिल किए गए। 2010 में एक संशोधन कर एफसीआरए में राजनीतिक गतिविधियों की परिभाषा को व्यापक किया गया। धरने- प्रदर्शन करने वाली गैर राजनीतिक संस्थाओं को भी इसके दायरे में लाया गया। साथ ही अंशदान लेने के लिए लाइसेंस की मियाद पांच वर्ष तक सीमित करके प्राप्तियों की सूची को प्रतिवर्ष उपलब्ध कराना अनिवार्य किया गया। इन संशोधनों के बावजूद विदेशी चंदे द्वारा समाज और राजनीति में हस्तक्षेप की समस्या बनी रही।

ईसाई एनजीओ के पास जाता है आवक का लगभग 70 फीसद हिस्सा

जहां 1995 में एफसीआरए के माध्यम से प्राप्त कुल राशि 2,000 करोड़ रुपये थी, वहीं 2019 में यह राशि 20,000 करोड़ रुपये हो गई। एफसीआरए फंडिंग पर एक पड़ताल से पता चला है कि इस आवक का लगभग 70 फीसद हिस्सा ईसाई एनजीओ के पास आता है। एफसीआरए के तहत प्राप्त राशि का धर्मांतरण के लिए उपयोग सर्वथा वर्जित है, परंतु गत माह ही गृह मंत्रालय द्वारा धर्मांतरण में लिप्त होने के कारण करीब एक दर्जन संगठनों के लाइसेंस रद किए गए। इन गैर सरकारी संगठनों की ताकत का अंदाजा इसी से चलता है कि ओबामा और ट्रंप सरकारों ने ईसाई संगठन कंपैशन इंडिया के अंशदान पर लगी रोक को हटाने के लिए भारत पर भरपूर, किंतु असफल दबाव बनाया था। कंपैशन इंडिया अन्य गैर लाइसेंसी संगठनों को धर्मांतरण के लिए पैसा मुहैया करा रही थी।

आइबी की रिपोर्ट में ग्रीनपीस इंडिया का भी किया गया जिक्र

धर्मांतरण के अलावा विकास परियोजनाओं को रोकने के लिए सुनियोजित आंदोलनों के पीछे भी एफसीआरए संबद्ध संगठनों की भूमिका सामने आती रही है। 2015 में आइबी की एक रिपोर्ट के अनुसार ऐसे कई आंदोलनों द्वारा भारत की जीडीपी को दो से तीन प्रतिशत तक का नुकसान हो रहा था। इस रिपोर्ट में विशेष रूप से ग्रीनपीस इंडिया का जिक्र किया गया था। तमिलनाडु में कुडनकुलम परमाणु ऊर्जा परियोजना और ओडिशा के नियमगिरि में पॉस्को परियोजना के विरोध के बाद तत्कालीन यूपीए सरकार ने भी कई संगठनों पर कार्रवाई की थी। इसी तरह स्टरलाइट की तूतीकोरिन स्थित कॉपर परियोजना के बंद होने के गंभीर परिणाम भी देश के उद्योगों को भुगतने पड़ रहे हैं। राष्ट्रीय सुरक्षा को लेकर भी एफसीआरए लाइसेंसी संगठन सवालों के घेरे में आते रहे हैं। भीमाकोरेगांव कांड की जांच कर रही एजेंसियों को मिशनरी संगठनों द्वारा प्राप्त हुए धन के नक्सलवादियों तक पहुंचने के सुबूत मिले हैं। साथ ही जाकिर नाइक के इस्लामिक रिसर्च फाउंडेशन को भी मुस्लिम युवाओं में कट्टरवाद फैलाते हुए पाया गया।

संगठन के पैसों को व्यक्तिगत विलास पर किया गया खर्च

एक अन्य गंभीर बात यह भी देखने को मिली कि हिंदू रीति-रिवाजों एवं धार्मिक, सांस्कृतिक आयोजनों के खिलाफ चुनिंदा संगठन विशेष वकीलों द्वारा जनहित याचिकाएं दायर कराते हैं। ऐसी लामबंदी के संज्ञान में सीबीआइ ने वकील इंदिरा जयसिंह के पति आनंद ग्रोवर और उनके एनजीओ लॉयर्स कलेक्टिव पर कार्रवाई की थी। सबरंग ट्रस्ट की तीस्ता सीतलवाड़ की तरह आनंद ग्रोवर ने भी संगठन के पैसों को व्यक्तिगत विलास पर खर्च किया था। सबरंग, कंपैशन इंडिया और लॉयर्स कलेक्टिव जैसे संगठनों की पैंतरेबाजी से सबक लेते हुए ही सरकार एफसीआरए संशोधन विधेयक, 2020 लाई। संसद द्वारा पारित इस कानून में एफसीआरए लाइसेंसधारी संगठनों द्वारा गैर लाइसेंसी संगठनों को पूंजी हस्तांतरित करने पर रोक लगाई गई है और लोकसेवकों को प्रतिबंधित व्यक्तियों की श्रेणी में लाया गया है। इसके साथ ही संगठन के सभी सदस्यों के आधार कार्ड अनिवार्य रूप से जमा करने होंगे। इस प्रावधान के विरोध का जवाब देते हुए गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने सही कहा कि यदि कोई संगठन कुल राशि का 50 प्रतिशत अपने ऊपर ही खर्च कर ले रहा है तो वह किस प्रकार की समाज सेवा कर रहा है?

निहित स्वार्थों के तहत ही भेजी जाती है विदेशी मदद

मोदी सरकार ने पिछले छह वर्षों में बहुत सारे संगठनों पर कार्रवाई की है। करीब 20,000 संगठनों के एफसीआरए लाइसेंस रद किए गए हैं और कई अन्य पर कानूनी कार्रवाई की गई है। जाहिर है यह कार्रवाई ऐसी ताकतों को नागवार गुजरी है, जिन्होंने विकास परियोजनाओं के विरोध, धर्मांतरण, अनुचित हस्तक्षेप को अपना धंधा बना लिया था। संशोधित एफसीआरए ऐसे अन्य संगठनों की गतिविधियों पर नजर रखने में सहायक सिद्ध होगा, इसका पता संदिग्ध आचरण वाले एमनेस्टी इंटरनेशनल द्वारा देश से अपना काम समेटने से चलता है, परंतु इन संशोधनों के आगे सरकार को यह भी सोचना होगा कि इतनी बड़ी अर्थव्यवस्था होने के बाद भी क्या हमें किसी प्रकार के विदेशी अंशदान की दरकार है? विदेशी मदद निहित स्वार्थों के तहत ही भेजी जाती है। हमारा कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी यानी सीएसआर फंड करीब 5000 करोड़ रुपये सालाना हो चुका है। ऐसे में देश के भीतर और केवल विदेशों में भारतीय मूल के लोगों से ही पर्याप्त धन इकट्ठा किया जा सकता है। इस लिहाज से सरकार का अंतिम ध्येय विदेशी चंदे से पूरी तरह मुक्ति ही होना चाहिए।

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