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वोट के लिए धर्म के इस्तेमाल पर रोक लगा दिया जाए
आने वाले महीनों में पांच राज्यों के चुनावों (5 State Assembly Elections) में हिस्सा लेने वाले उम्मीदवार असमंजस में हैं. वे एक उद्देश्य के साथ यात्रा पर तो निकल चुके हैं, लेकिन मंजिल की जानकारी नहीं है. उन्हें उम्मीद है कि अपने-अपने राजनीतिक घोषणा पत्र के माध्यम से वे इस रास्ते चलकर सत्ता की कुर्सी पा लेंगे. क्योंकि यही मेनिफेस्टो उनके सियासी मुद्दों और आम जनता से किए गए वादों का दस्तावेज होता था. ये दस्तावेज उनके और मतदाताओं के बीच संचार का एक बुनियादी पुल होता था जिसके जरिए वे यह जान सकते थे कि कौन सा नेता उनकी सेवा के योग्य है.
ये घोषणापत्र (Manifesto) अब जर्जर अवस्था में है. धूल धूसरित हो मौत के कगार पर पहुंच चुका है. वोट बैंक कहे जाने वाले नए सियासी दिशासूचक ने इसे पूरी तरह अप्रासंगिक और हाशिए पर धकेल दिया है. हमारे राजनेताओं की बुनियादी मूल्यों के प्रति कोई वफादारी नहीं रही. वो अपने जमीर या आत्मा को सबसे अधिक बोली लगाने वालों के हाथों बेच सकते हैं. लेकिन जब वे नीलामी में जाते हैं तब वे सभी एक समान विशेषता साझा करते हैं. नेता और दब्बू मीडिया ने मिलकर मतदाताओं को नगण्य घटक बना दिया है. ये मतदाता कतार में खड़े उन घरों की तरह हैं जो सस्ते सामानों से बने होते हैं और सभी एक जैसे दिखने और सोचने वाले होते हैं. उन्होंने आम जनता को उनके व्यक्तिगत विचारों और मंशा से अलग कर दिया है. अब वो सिर्फ मजहब और मान्यताओं के दिशा-निर्देश पर काम करते हैं.
इसलिए अब हमारे पास क्षत्रिय, ब्राह्मण, जाट, मुस्लिम (सुन्नी, शिया और बोरिस) ईसाई (कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट, रूढ़िवादी और पुनर्जन्म) सिख, जैन और दलितों (अपने-अपने संप्रदायों में विभाजित) या फिर कोई भी दूसरा समूह जिसके बारे में आप सोच सकते हैं की लॉबी हैं. इसमें किसानों, भूमिहीन मजदूरों, युवाओं, महिलाओं की लाबियों को अगर जोड़ दें तो आपके पास उस मतदाता के लिए कोई जगह नहीं बची होगी जो यह जानना चाहता है कि इसमें सीधे उसके लिए क्या मौजूद है.
मैं आपके लिए क्यों वोट करता हूं?
अब जब राजनेताओं ने मतदाताओं को भावनात्मक रूप से ब्लैकमेल किया है और उन्हें ये विश्वास दिलाया है कि उनका भगवान चाहता है कि वे एक खास तौर-तरीके से मतदान करें, तो वे आसानी से इसके कसूरवार बन जाते हैं. जैसे भेड़ आंख मूंदकर एक-दूसरे का अनुसरण करते हैं, वैसे ही वोट बैंक को भी एकल संस्था के रूप में देखा जाता है, जिसमें अगर एक भी व्यक्ति अलग तरीके से सोचता है तो उसे तुरंत विश्वासघाती के रूप में चिह्नित कर दिया जाता है. जब धर्मपरायणता और राष्ट्रवाद या "धरती-पुत्र" जैसे संकीर्ण नारे, अहम स्थान ले लेते हैं तो औसत मतदाता इसे संगठित कारक मानते हुए बहक जाता है. एक विचार वाले सारे लोग एक जगह झुंड में इकट्ठा हो जाते हैं. इससे भी महत्वपूर्ण बात यह है कि ये झुंड बाकी सभी को अपना दुश्मन मानता है. लिहाजा, अगर आप इस तरह के हैं तो आप इसी तरह से वोट देंगे.
इस प्रक्रिया के इतने मजबूती से खुद ही लागू हो जाने के पीछे एक बड़ा कारण यह है कि औसत भारतीय मतदाता को अपने उम्मीदवार के बारे में बहुत कम जानकारी होती है. यही कारण है कि आपराधिक रिकॉर्ड वाले भी कई लोग चुन लिए जाते हैं. जो बात आखिरकार सामने आती है वो ये है कि इस पार्टी के उम्मीदवार को आपका समर्थन प्राप्त करने के लिए आपके ईश्वर की इजाजत हासिल है. यह एक अचेतन दबाव है लेकिन फिर भी बहुत ताकतवर है. अक्सर मतदाता अपनी धार्मिक स्थिति को अपनी पहचान के एकमात्र जरिए के रूप में देखता है. और शायद यही वजह है कि वो खुद ही और अपने जैसे अन्य लोगों के साथ एक चेहरा-विहीन जनसमूह में फंसा जाता है.
एक आदर्श विश्व में धर्म को राजनीतिक चुनाव प्रचार में घसीटने पर बिल्कुल ही प्रतिबंध लगा दिया जाना चाहिए. सच कहूं तो सत्ता की इस रक्त पिपासु दुनिया में इसका कोई स्थान नहीं है. लेकिन डर, संदेह और अनिश्चितता की बौछार के बीच लोगों पर तत्काल दबाव के माध्यम से उन्हें ये विश्वास दिलाया जाता है कि ये एक दिव्य हुक्म है जो उन्हें कतार में खड़े होने का आदेश देता है.
हमें सवाल पूछना होगा
परिणामस्वरूप चुनाव से भगवान परशुराम को जोड़ने के लिए कोई धन्यवाद नहीं कहेगा. एक ब्राह्मण होने के नाते मैं आपकी पूजा के प्रदर्शन से प्रसन्न तो हूं लेकिन मैं आपको वोट नहीं देने जा रहा हूं. क्योंकि आप और मेरे भगवान बिलकुल अलग-अलग हैं. उसी तरह एक कट्टर हिंदुत्व समर्थक के पास ये विकल्प है कि वो मध्य प्रदेश के मंत्री नरोत्तम मिश्रा को यह कह सके कि वह आस्था के रक्षक नहीं हैं और न ही सनी लियोनी धर्म में हमारे विश्वास की गहराई और ताकत मापने का पैमाना हो सकती हैं. यह धर्म इतना कमजोर नहीं है कि कोई गीत इसे खरोंच लगा सके.
उसी तरह से प्रियंका गांधी को बताएं कि वे पिछले 50 वर्षों से एक महिला रही हैं और महिलाओं की भलाई के लिए अचानक स्नेह की जो लहर उमड़ आई है, उसमें थोड़ी देर हो चुकी है. इसलिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद, दरवाजा सामने है, मुझे नौकरी का भरोसा न दें, पहले मेरे समाज के पुरुषों को ही नौकरी दे दो, वे हमारा ख्याल रख लेंगे. तो क्या गोवा में एक कैथोलिक को माइकल लोबो से ये नहीं कहना चाहिए कि धमकी देकर पूरे परिवार के लिए टिकट पाने की आपकी ये कोशिश हमारे विचार से साथ मेल नहीं खाती, इसलिए आपको और आपकी पत्नी डेलिला को मेरा वोट नहीं मिलेगा. चलिए चर्च में मिलते हैं. और ऐसा ही जेनिफर मोनसेरेट, उनके पति अतानासियो मोनसेरेट और इन जैसे करीब आधा दर्जन दूसरे नेताओं से भी कहा जाना चाहिए जो अपने रिश्तेदारों के लिए सीटों की मांग करते हुए एक पार्टी से दूसरी पार्टी में छलांग लगाते रहते हैं.
धर्म का मतदान के लिए इस्तेमाल नहीं होना चाहिए
सवाल ये है कि एक मुसलमान को किसी विश्वासघाती की तरह क्यों देखा जाना चाहिए, यदि वो एक साथी मुसलमान को वोट नहीं देना चाहता? इसी तरह एक दलित अगर किसी दलित नेता को न वोट करे और एक जैन वोटर अगर किसी जैन उम्मीदवार को मत न दें तो उसे विश्वासघाती क्यों समझा जाए? हम कहां और कब इस साजिश के हाथों हार गए और क्यों? ये लोग कोई भगवान के चुने हुए लोग नहीं हैं. ये राजनेता हैं: अच्छे, बुरे और भद्दे. बिकाऊ, लालची, दयालु, डरावने और ज्यादातर स्वार्थी. उनका किसी भी देवता पर कोई अधिकार नहीं है. सर्वशक्तिमान को किसी भी नाम से पुकारते हुए धर्म को मतदान के लिए बतौर एक हथियार इस्तेमाल करने पर कानून द्वारा प्रतिबंध लगाने का उपयुक्त समय आ गया है.
अगर हम लगातार ही नीचे गिरते जा रहे हैं तो ऐसा इसलिए है क्योंकि एक व्यक्ति के रूप में हमने सियासत और मजहब दोनों के मिश्रण को अब एक जहरीली औषधि बनने की इजाजत दे दी है. ये हमारे दिमाग को सुन्न कर देता है और हमें आकाशीय सुझावों का गुलाम बना देता है. अब तो उन्होंने खेल को भी वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है.
(डिस्क्लेमर: लेखक एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. आर्टिकल में व्यक्त विचार लेखक के निजी हैं.)
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