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खेल संस्कृति के संकल्प का समय: सभी लोगों को करनी चाहिए खेल में भागीदारी तभी खेल संस्कृति होगी विकसित
जनता से रिश्ता वेबडेस्क| भूपेंद्र सिंह| टोक्यो ओलंपिक भारत के लिए हौसला बढ़ाने वाला रहा। इस खेल महाकुंभ में हमारी अभी तक की सबसे शानदार पदक तालिका ने रोमांचित करने के साथ ही भविष्य में बेहतर प्रदर्शन की उम्मीदें भी जगाईं। इस पर उत्साहजनक प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। वहीं इस दौरान कुछ लोगों का क्रिकेट को अकारण निशाना बनाना अखरने वाला रहा। अपने सबसे लोकप्रिय खेल को दूसरे खेलों के लिए संसाधन और रुचि घटाने की वजह बताना अनुचित होने के साथ ही खेल भावना के विपरीत भी है। क्रिकेट हमारे राष्ट्रीय उत्साह का पर्याय रहा है। हालांकि हमेशा से ऐसा नहीं था। स्वतंत्रता के पहले और उसके काफी बाद तक हाकी भारतीय दिलोदिमाग पर छाई रही। ऐसे में यह समझना दिलचस्प होगा कि आखिर हमारे सबसे लोकप्रिय खेल की पदवी से हाकी को हटाकर क्रिकेट उस पर कैसे काबिज हुआ।
दरअसल सजीव प्रसारण किसी भी खेल के आकर्षण में चार चांद लगा देता है। दुर्भाग्यवश हाकी में हमारी स्वर्णिम सफलता के दौर का टेलीविजन पर प्रसारण नहीं हो सका। भारतीय खेलप्रेमियों को जिन बातों का सबसे अधिक मलाल होगा उनमें से एक संभवत: यही हो कि तकनीकी अभाव के कारण हम उन स्वर्णिम क्षणों के बारे में सिर्फ पढ़-सुन ही पाते हैं, लेकिन कभी उन्हें देख नहीं सकते। इस मामले में क्रिकेट भाग्यशाली रहा कि हमारी टीम ने टेलीविजन के दौर में सफलताएं प्राप्त कीं, जिसका उसे फायदा मिला। किसी भी खेल में समय के साथ आकर्षण और व्यवस्थित ढंग से बढ़ता जाता है। हालांकि उसमें कुछ युगांतकारी पल भी होते हैं जो समूचे परिवेश को परिवर्तित कर देते हैं।
एक निश्चित आयु वर्ग के लोगों के जेहन में 1982 की स्मृतियां अवश्य होंगी। उस वर्ष देश में एशियाई खेल आयोजित हुए थे, जिसके साथ रंगीन टीवी प्रसारण भी शुरू हुआ था। हमें बड़ी उम्मीदें थीं कि उसमें हाकी स्वर्ण पदक हम ही जीतेंगे। फाइनल दिल्ली के नए-नवेले नेशनल स्टेडियम में चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के खिलाफ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और अमिताभ बच्चन जैसे दिग्गज दर्शकों में मौजूद थे। यह उन पहले आयोजनों में से एक था जब दूरदर्शन किसी बड़े मुकाबले का रंगीन सीधा प्रसारण दिखा रहा था। दुर्भाग्यवश उस मैच का परिणाम दु:स्वप्न साबित हुआ। हमारी टीम 7-1 से हार गई थी। यकीनन खेलों में खराब अनुभव होते हैं, मगर जिस मौके पर ऐसा हुआ उसे पचाना मुश्किल था। खेल इतिहासकारों के अनुसार उस हार की प्रेतबाधा हाकी प्रशंसकों की एक पीढ़ी का पीछा करती रही। 'चक दे इंडिया' की कहानी उसी मैच से प्रेरित बताई जाती है।
इसके अगले वर्ष 1983 में हमारी क्रिकेट टीम ने इंग्लैंड में विश्व कप जीता। भारत में रंगीन टेलीविजन की सबसे शुरुआती और शाश्वत स्मृतियों में से एक वही रही जिसमें कपिल देव प्रूडेंशियल कप उठाए हुए नजर आए। यह संभवत: खेल में बदलाव या यूं कहें कि जीवन परिवर्तित करने वाली उपलब्धि साबित हुई। इसने खेलों के प्रति हमारी सामान्य धारणा ही बदल दी। कालांतर में क्रिकेट में मिली सफलताओं से इसे और बल मिला। एक ऐसे समय में जब विभिन्न मानकों पर हम विश्वस्तरीय प्रतिमानों से बहुत पीछे थे, जिस दौर में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकार्यता दुर्लभ थी तब क्रिकेट में हमारी उपलब्धियां उत्कृष्टता के जीवंत प्रतीक के रूप में प्रतिष्ठित हुईं।
देश में सीमित ओवर क्रिकेट निरंतर आगे बढ़ता रहा। वर्ष 1983-85 के बीच हमने चार बड़े टूर्नामेंट जीते। इस बीच हाकी का दुर्भाग्य रहा कि उसी अवधि में हमारी टीम का पराभव होता गया। वर्ष 1980 के मास्को र्ओंलपिक में स्वर्ण की इकलौती सफलता को छोड़ दिया जाए तो उस दौर में हम बड़े स्तर पर अपनी आभा गंवाते गए। जहां अतीत की जो चमत्कारिक सफलताएं टीवी पर नहीं दिखाई जा सकीं, वहीं बाद में लगातार ऐसे लचर प्रदर्शन का टीवी पर सीधा प्रसारण होता रहा। यह पृष्ठभूमि शायद उन दिलचस्प परिस्थितियों के संदर्भों को समझाने में सहायक हो जिनमें क्रिकेट ने हाकी को पीछे छोड़ दिया। नि:संदेह पिछले कुछ वर्षों में भारतीय हाकी का पुनरोत्थान हुआ है और र्ओंलपिक के प्रदर्शन ने खेलप्रेमियों को और उत्साहित किया है। प्रशंसकों को यह स्मरण और भी अधिक संतोष की अनुभूति कराता है कि ओलिंपिक से कुछ साल पहले 2017 की चैंपियंस ट्राफी में हमने पाकिस्तान को पटखनी दी थी। संयोग से जीत का अंतर 7-1 ही था। दरअसल खेलों की दुनिया में हिसाब चुकाने का अपना अलग ही स्वाद होता है।
यह सच है कि हाकी या कोई अन्य खेल सरकारी प्रोत्साहन एवं कारोबारी प्रायोजन के अतिरिक्त जनता की दिलचस्पी और मीडिया कवरेज से ही लाभान्वित होगा। क्रिकेट से ईष्र्या कर कोई लाभ नहीं होने वाला। यह नहीं विस्मृत किया जाना चाहिए कि सफलता का कोई अन्य विकल्प नहीं और प्रत्येक क्षेत्र में उत्कृष्टता को ही प्रतिष्ठा प्राप्त होती है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हमारे एथलीटों और खिलाड़ियों के लिए खेल विज्ञान एवं पोषण से लेकर बुनियादी ढांचे और प्रशिक्षण में बेहतर सुविधाएं आवश्यक हैं। मैं दो मूलभूर्त ंबदुओं की ओर विशेष ध्यान आकृष्ट कराना चाहूंगा। एक बुनियादी ढांचा और दूसरा प्रशिक्षण। खासतौर से छोटे शहरों में इनका विस्तार किया जाए। अमूमन इन्हीं क्षेत्रों से हमें चैंपियन भी मिले हैं। साथ ही एक समाज के रूप में हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि खेलों में सफलता की दर न्यून होती है। यदि कोई एथलीट शीर्ष पर पहुंचता है तो वहीं पर्याप्त प्रयासों के बावजूद अनेक खिलाड़ी उस मुकाम को पाने में असफल रहते हैं। प्रतिस्पर्धी खेलों की यही प्रकृति और नियति है। ऐसे में असफल खिलाड़ियों को फिर से मुख्यधारा में जोड़ने के प्रविधान अवश्य किए जाएं। इसमें उपलब्ध आदर्श और अनुभवजन्य प्रमाणों में अंतर दिखता है।
किसी मानसिक या शारीरिक प्रतिस्पर्धा में उत्कृष्टता प्राप्त करने के लिए लोगों के फिटनेस स्तर में सुधार जरूरी है। सबसे महत्वपूर्ण यही है कि खेल संस्कृति के विचार को बेहतर तरीके से समझा जाए। यह खेलों को हमारे जीवन का अभिन्न अंग बनाती है। हम कोई खेल उसमें करियर बनाने से अधिक विशुद्ध आनंद के लिए ही खेलते हैं। जो उपयोगितावादी दृष्टिकोण के बजाय नैसर्गिक झुकाव के चलते खेलों में सहभागिता करते हैं वे ज्यादा स्वस्थ एवं प्रसन्नचित्त रहेंगे। इससे उच्च स्तर पर प्राप्त उपलब्धियां भी स्वाभाविक परिणति होंगी।
एक कहावत है कि यदि केवल सुरीली चिड़िया ही चहचहाएंगी तो जंगल खामोश हो जाएगा। इसका मर्म यही है कि जिसके पास जो प्रतिभा है वह उसका उपयोग करे। यानी खेलों के संदर्भ में सभी सक्षम लोगों को एक सक्रिय खेल में भागीदारी अवश्य करनी चाहिए। किसी समाज में खेल संस्कृति को इसी प्रकार पोषण मिलता है। हमें ऐसी संस्कृति को पोषित करने का संकल्प लेना होगा। यह विश्व के सर्वकालिक महान हाकी खिलाड़ी ध्यानचंद के लिए सबसे बड़ी श्रद्धांजलि होगी, जिनके जन्मदिन (29 अगस्त) के उपलक्ष्य में राष्ट्रीय खेल दिवस मनाया जाता है।