सम्पादकीय

खेती के तौर-तरीकों में बदलाव का वक्त, सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति करेगी प्राकृतिक कृषि

Gulabi
16 Dec 2021 6:23 AM GMT
खेती के तौर-तरीकों में बदलाव का वक्त, सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति करेगी प्राकृतिक कृषि
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सतत विकास लक्ष्यों की पूर्ति करेगी प्राकृतिक कृषि
राजीव कुमार, नीलम पटेल। पिछले पांच दशकों में खाद्य सुरक्षा के लक्ष्य को सफलतापूर्वक हासिल करने के बाद अब समय आ गया है कि भारत अपनी कृषि को पर्यावरण अनुकूल बनाने के साथ-साथ किसानों की आय में निरंतर वृद्धि सुनिश्चित करने के लिए खेती के तौर-तरीकों में बदलाव करे। हरित क्रांति से देश को नि:संदेह खाद्य सुरक्षा प्राप्त हुई है, लेकिन इससे रासायनिक उर्वरकों, कीटनाशकों और खरपतवारनाशकों के अत्यधिक उपयोग पर निर्भरता बढ़ी है। परिणामस्वरूप पिछले कुछ वर्षो में मृदा जैविक कार्बन (एसओसी) की मात्र में भारी कमी दर्ज की गई है। मृदा विज्ञान संस्थान, भोपाल के अनुसार मृदा में एसओसी की मात्र 1947 में 2.5 प्रतिशत तक मौजूद थी। अब यह देश भर में औसतन 0.4 प्रतिशत के चिंताजनक स्तर पर आ गई है, जो भूमि की उर्वरता बनाए रखने के लिए आवश्यक 1.0-1.5 प्रतिशत की स्वीकार्य सीमा से काफी कम है। इसके लिए उर्वरक के अत्यधिक उपयोग को जिम्मेदार ठहराया जा सकता है, जो 1969 में 12.4 किग्रा प्रति हेक्टेयर से बढ़कर 2018 में 175 किग्रा प्रति हेक्टेयर हो गया है। इसके अलावा औसत खेत का आकार 1970-71 में 2.28 हेक्टेयर से कम होकर 2015-16 में 1.08 हेक्टेयर हो गया है। छोटे आकार के खेत मशीनीकरण के अनुकूल नहीं होते और इसलिए बड़े आकार की तुलना में कम उत्पादकता प्रदर्शित करते हैं। दो महत्वपूर्ण कारणों-मिट्टी की उर्वरता में गिरावट और छोटे एवं सीमांत खेतों की प्रधानता की वजह से कृषि के औद्योगिक माडल को भारत में क्रियान्वित नहीं किया जा सकता है, जैसा विकसित अर्थव्यवस्थाओं में लागू है।
आज भारतीय कृषि में 89 प्रतिशत भूजल का उपयोग होता है। भारत की पहचान पानी की कमी वाले देश के रूप में की जाती है। देश में प्रति व्यक्ति जल-उपलब्धता 1951 में 5,178 घन मीटर थी, जो 2011 में 1,544 घन मीटर रह गई है। 2050 तक प्रति व्यक्ति जल-उपलब्धता कम होकर 1,140 घन मीटर रहने का अनुमान है। बड़ी संख्या में देश के विकास प्रखंड अब भूजल के अत्यधिक दोहन के कारण डार्क जोन बन गए हैं। इसलिए आर्थिक सर्वेक्षण, 2019 में सुझाव दिया गया था कि भूमि उत्पादकता के स्थान पर जल संरक्षण उपायों के माध्यम से सिंचाई जल उत्पादकता पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए।
कृषि को एक ऐसे नए दृष्टिकोण की जरूरत है, जो पोषण सुरक्षा, पर्यावरण संबंधी स्थिरता और भूमि की उत्पादकता के उद्देश्यों के बीच संतुलन स्थापित करे। प्राकृतिक खेती एक संभावित व्यावहारिक तरीके के रूप में उभरी है। प्राकृतिक खेती सभी बाहरी तत्वों के उपयोग को नकारती है और पूरी तरह से मिट्टी की सूक्ष्मजीव आधारित जैव विविधता के संवर्धन एवं फसल प्रणाली से संबंधित प्रबंधन पर निर्भर करती है। खेती का यह तरीका जैव विविधता का संरक्षण करता है और पर्यावरण को रासायनिक उर्वरकों एवं कीटनाशकों के प्रतिकूल प्रभावों से बचाता है। इसने मृदा जैविक कार्बन से संबंधित अवयवों में सुधार करने की दिशा में उल्लेखनीय परिणाम दिए हैं। प्राकृतिक खेती दुनिया का सबसे बड़ा कार्बन पृथक्करण कार्यक्रम बनने की क्षमता रखती है। विशेष रूप से हरित आवरण के साथ मृदा जैविक कार्बन में बढ़ोतरी के जरिये प्राकृतिक खेती सिंचाई में होने वाले पानी के उपयोग को 30 प्रतिशत से लेकर 60 प्रतिशत तक कम कर देती है। उत्पादक सामग्रियों की काफी कम लागत के साथ-साथ शून्य रासायनिक इनपुट और उनके उच्च गुणवत्ता वाले उत्पादों के लिए लगातार मिलने वाली बेहतर कीमतों के कारण शुरुआती चरण में भी किसानों की शुद्ध आय में बढ़ोतरी होती है। देश के 11 राज्यों में खेती के इस तरीके को पहले ही अपना चुके लगभग 30 लाख किसानों का ऐसा ही अनुभव रहा है। 11 राज्यों में 6.5 लाख हेक्टेयर भूमि पर प्राकृतिक खेती सफलतापूर्वक की जा रही है।
वर्तमान में आंध्र प्रदेश और हिमाचल प्रदेश प्राकृतिक खेती को बढ़ावा देने वाले अग्रणी राज्य हैं। आंध्र ने 2024 तक प्राकृतिक खेती को 60 लाख से अधिक किसानों तक पहुंचाने का लक्ष्य रखा है। यहां प्राकृतिक खेती के तहत पांच फसलों (धान, मूंगफली, काला चना, मक्का और मिर्च) की पैदावार में आठ प्रतिशत से लेकर 32 प्रतिशत तक की बढ़ोतरी हुई है। सेंटर फार स्टडी आफ साइंस, टेक्नोलाजी एंड पालिसी द्वारा आंध्र में किए गए अध्ययन में पाया गया कि पारंपरिक खेती को छोड़कर प्राकृतिक खेती को अपनाने पर सिंचित फसल की स्थिति में प्रति एकड़ 1,400-3,500 किलोलीटर पानी एवं 12-50 गीगाजोल ऊर्जा की बचत और कार्बन डाईआक्साइड के उत्सर्जन में 1.4 मीटिक टन से लेकर 6.6 मीटिक टन की कमी हुई है। हिमाचल में हुए इसी तरह के एक अध्ययन में पाया गया कि खेती की लागत में 56 प्रतिशत की कमी के साथ-साथ फसल की पैदावार में 27 प्रतिशत की वृद्धि हुई है।
किसानों की शुद्ध आय बढ़ाने तथा पर्यावरण की रक्षा करने के अलावा प्राकृतिक कृषि पद्धतियां रासायनिक पदार्थो से मुक्त कृषि उत्पादों की बेहतर पैदावार के माध्यम से पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करेंगी। प्राकृतिक खेती भारत को निर्धारित अवधि के भीतर अपने सतत विकास लक्ष्यों को प्राप्त करने में मदद करेगी, जिससे वैश्विक एजेंडा 2030 को पूरा करने में योगदान मिलेगा। कुल मिलाकर प्राकृतिक खेती किसानों की आजीविका, नागरिकों के स्वास्थ्य, पृथ्वी की दशा और सरकारों के वित्त के लिए भी अच्छी है।
(राजीव कुमार नीति आयोग के उपाध्यक्ष और नीलम पटेल नीति आयोग की वरिष्ठ सलाहकार हैं)
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