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- वक्त का फैसला
प्रधानमंत्री और शिक्षामंत्री व शिक्षा अधिकारियों की महत्वपूर्ण बैठक के बाद केंद्रीय माध्यमिक शिक्षा परिषद की चार मई से होने वाली दसवीं की परीक्षा रद्द करने और बारहवीं की परीक्षा स्थगित करने का फैसला निस्संदेह वक्त की मांग थी। ऐसे में जब देश में आधिकारिक रूप से कोरोना संक्रमण के मामले प्रतिदिन 1.8 लाख तक पहुंचने लगे हैं तो स्थिति की गंभीरता का अंदाजा लगाया जा सकता है। देश में छात्र-छात्राएं कुछ समय से परीक्षाएं स्थगित करने की मुहिम सोशल मीडिया के माध्यम से चला रहे थे। पूरे देश में लाखों छात्रों ने हस्ताक्षर अभियान चलाया और अदालत जाने की बात भी कर रहे थे। इसी बीच कुछ राजनेताओं ने भी मुद्दे को लपक कर बयानबाजी शुरू कर दी थी। कहा जा रहा था कि देश में लाखों विद्यार्थियों व शिक्षकों तथा शिक्षणोत्तर कर्मियों के एक साथ आने से देश कोरोना का हॉट स्पॉट बन जायेगा। निस्संदेह, परीक्षा रद्द होना या स्थगित होना सही मायनों में छात्रों में शैक्षिक गुणवत्ता विकास के हिसाब से उचित नहीं है, लेकिन वक्त की जरूरत के हिसाब से यही फैसला बनता था। परीक्षाएं किसी भी छात्र के जीवन में उसकी साल भर की मेहनत और ज्ञान का मूल्यांकन तो करती हैं, कई मानवीय गुणों का विकास भी करती हैं। यह भी तय है कि निकट भविष्य में बिना परीक्षा उत्तीर्ण किये गये छात्र-छात्राओं को जीवनपर्यंत कहा जा सकता है कि बिना परीक्षा के ऊपरी कक्षा में पहुंचे। फिर उन विद्यार्थियों को भी निराशा हुई होगी जो सौ में सौ अंक लाने के लिये जीतोड़ मेहनत कर रहे होंगे। बहरहाल, शिक्षा मंत्रालय ने ऐसे छात्रों को विकल्प देने का निर्णय किया है जो छात्र उत्तीर्ण होने के इन मानकों से संतुष्ट नहीं होंगे उन्हें स्थिति सामान्य होने पर परीक्षा देने का अवसर दिया जायेगा ताकि वे अपनी मेहनत को अंकों में बदल सकें। निस्संदेह, केंद्र सरकार के इस फैसले के बाद देश के लाखों छात्रों व उनके अभिभावकों तथा शिक्षकों ने संकट की इस घड़ी में राहत की सांस ली होगी। इन खबरों के बीच कि कोरोना का नया वैरिएंट छोटी उम्र के बच्चों को भी तेजी से अपनी गिरफ्त में ले रहा है।
लेखक द्वारा लिखा गया है