सम्पादकीय

काल सबको मथता है

Subhi
13 March 2022 4:21 AM GMT
काल सबको मथता है
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हर तरह की सत्ता आती और जाती रहती है, पर जो सत्ता हमेशा कायम रहती है, वह है काल की सत्ता। हम समय की बात अक्सर करते रहते हैं, बातचीत में उसका उल्लेख स्वाभाविक रूप से आ जाता है।

अश्विनी भटनागर: हर तरह की सत्ता आती और जाती रहती है, पर जो सत्ता हमेशा कायम रहती है, वह है काल की सत्ता। हम समय की बात अक्सर करते रहते हैं, बातचीत में उसका उल्लेख स्वाभाविक रूप से आ जाता है। अमूमन समय, वक्त, टाइम या काल के बारे में हम गणनात्मक या गुणात्मक दृष्टि से बात करते हैं- जैसे बुरा समय चल रहा है या फिर बीते या आने वाला कल, ऋतु परिवर्तन, सुबह-शाम आदि। एक तरह से हमें समय का हमेशा आभास रहता है और हम उससे प्रभावित रहते हैं।

भारतीय संस्कृति, अन्य संस्कृतियों की अपेक्षा, काल चिंतन की ओर बेहद संजीदा रही है। उसकी परिकल्पना और संरचना को लेकर आदि काल से ही विद्वानों ने गहन चिंतन किया है और परिणामस्वरूप काल निर्धारण, काल गणना का सारगर्भित ज्ञान हमको शुरू से ही उपलब्ध रहा है।

काल शब्द के कई अर्थ हैं- जैसे गिनना, गणना करना, नाम देना, खंड खंड करना, जोड़ना, ग्रसना आदि। काल का संबंध कर या करने और चर यानी चलने से भी है। इन सभी शब्दों का समाहार काल शब्द में है। जो काल खंड के रूप में है यह कलनात्मक, गणनात्मक, क्रियात्मक है और जो निरवधि काल के रूप में है, वह सबको समेटने वाला है। इसलिए इस रूप को महाकाल भी कहा जाता है। शिव को संहारकर्ता मानते हुए महाकाल कहा जाता है।

काल का एक रूप है उसका अनंत होना- शेष होना। यह शेष (शेष नाग) स्थिति के अधिष्ठाता विष्णु की शय्या है। अनंत के ऊपर अनंतात्मा विराजमान है, जिसकी नाभि से कमल फूटता है और उसमें से ब्रह्मा जन्म लेते हैं और साकार सगुण सृष्टि रचते हैं। शेष रूप में काल सहस्र फण वाला है और गुंजलक के हजारों पटल हैं।

काल का लघु रूप शंख है, जो दक्षिणावर्त है। उसकी ऊपर की वर्तना रेखाएं दाहिनी ओर गोलाकार मुड़ती हैं, पर कहीं बंद नहीं होती हैं। शंख विष्णु धारण करते हैं। शिव का डमरू और लहरदार बेल भी काल के रूप हैं। इनके अलावा मृत्यु के देवता के रूप में यम है, जो सूर्य पुत्र है। इनका एक और नाम धर्म है।

वैदिक वर्णन में सृष्टि से संबद्ध सूत्रों में निरवधि काल का वर्णन रूपक की भाषा में तमस के रूप में या फिर तम वाली रात्रि के रूप में हुआ है। यह तमस और कुछ नहीं, बल्कि एक तीव्र आकांक्षा है फैलने की, कुछ और नया होने की, कुछ रचने की। इस आकांक्षा ने अनंत देश, निरवधि काल के तट की तलाश की और वहां सांत सावधि देशकाल में नई सृष्टि के बीज डाले।

अथर्ववेद में काल तत्त्व की व्याख्या इस प्रकार की है- काल रूपी घोड़ा, सात लगामों (सात ऋतुओं) से नियंत्रित दौड़ा चला जा रहा है। उसकी हजार आंखें हैं, वह सब कुछ देखता रहता है, वह कभी थकता नहीं है, कभी बूढ़ा नहीं होता और उसका बल वीर्य कभी कम नहीं होता है। उसके ऊपर पीछे न देखने वाले मनीषी रचनाकार ही सवारी कर सकते हैं।

समस्त भुवन और उसके समस्त प्राणी काल रूपी अश्व से खींचे रथ के पहिये हैं, वे भी काल की गति के कारण घूमते रहते हैं। काल के सात पहिए हैं, सात नाभियां हैं और अमृतत्व उसकी धुरी है। काल ही समस्त भुवनों को, नए उभरने वाले ब्रह्मांड के अंगों को प्रकाश में लाता है, क्योंकि काल क्रिया है। क्रिया में ही अमृत तत्त्वों का कुछ रूप समझ में आने लगता है। इसी रूप में काल प्रथम दिव्य शक्ति के रूप में आवाहित होता है।

सांख्य दर्शन काल को अलग तत्त्व नहीं मानता है। उसके अनुसार काल क्रिया से भिन्न नहीं है और क्रिया इंद्रियों की वृत्ति या चेष्टा मात्र है। काल इंद्रियों में समाविष्ट है और इंद्रियां प्रकृति तत्त्व में।

अथर्ववेद के अनुसार काल में पूर्ण कुंभ रखा हुआ है। दूसरे शब्दों में अमृत कलश नश्वर काल के ऊपर अधिदिष्ट है। अमरता नश्वरता में आधृत है। हम उस काल को यहां, वहां, सब कहीं एक साथ देखते हैं। समस्त सत्ताओं और भावों को सामने उपस्थित करने वाला काल सबसे ऊंचे सिंहासन पर विराजमान है- वह सबको जांच-परख रहा है। काल सभी के भीतर से गुजरता है।

वह पिता है और पुत्र भी है। पिता इसीलिए कि काल ही रचता है, पुत्र इसलिए कि घटना रचना का संप्रेषण भी काल ही है, उससे ज्यादा तेजस्वी कोई नहीं है।

वेद के इस सूत्र में काल की व्यापकता, गतिशीलता और सब व्यापारों की प्रेरकता का निदर्शन तो कराया ही गया है, पर साथ में काल का अतिक्रमण करने वाले रचनाकार से एक अपेक्षा की गई है कि वह पीछे न देखे, वह अगर तेजी से गुजरते समय को अपने वश के रख कर अपनी दिशा में ले जाना चाहता है तो आगे देखे।

जो पीछे था वह काल में समाया हुआ है। महाभारत में ऐसी दृष्टि की अपेक्षा राज्य-व्यवस्था चलाने वाले से की गई है- राजा कालस्य कारणम्- राजा काल का कारण होता है।

भीष्म पितामह युधिष्ठिर से कहते हैं- काल राजा का कारण होता है या राजा काल का कारण होता है। इस विषय में तुम्हें कोई संदेह नहीं रखना चाहिए। काल राजा की दंड नीति से प्रभावित होता है। राजा दंड नीति का पूरा-पूरा या ठीक प्रयोग करता है, तो काल पृथ्वी पर सतयुग की सृष्टि कर देता है।

जब राजा तीन चैथाई अंशों में दंड नीति का अनुसरण करता है, तब त्रेता युग आरंभ होता है। आधे भाग पर द्वापर युग आ जाता है और जब वह संपूर्ण दंड नीति का परित्याग कर देता है और प्रजा को कष्ट देता है तब काल कलियुग ला देता है।

इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय चिंतन अतीत में भटकने वाला, अतीत का अतिक्रमण करने वाला चिंतन है। वेदों के अनुसार सभी अनुष्ठान, घटनाक्रम, समस्त देवता काल में अवस्थित हैं। सबका समय निश्चित है। काल लोक को संचालित करता है और लोक का अतिक्रमण भी करता है।

दूसरे शब्दों में, सावधि काल में घटनाएं घटती हैं और सभी घटनाएं निरवधि काल में समा जाती हैं- कुछ नई होने के लिए। काल केवल क्रिया है, जिसका अंत आरंभ होते ही तय हो जाता है।


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