सम्पादकीय

संकट में बाघ, संरक्षण की जरूरत

Subhi
29 July 2022 4:43 AM GMT
संकट में बाघ, संरक्षण की जरूरत
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जीवाश्म आधारित शोध बताते हैं कि बाघ इस धरती पर कम से कम उन्नीस लाख साल से निवास कर रहे हैं। बाघों की कुल नौ में से तीन प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं

उद्भव शांडिल्य: जीवाश्म आधारित शोध बताते हैं कि बाघ इस धरती पर कम से कम उन्नीस लाख साल से निवास कर रहे हैं। बाघों की कुल नौ में से तीन प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं तथा शेष छह प्रजातियां लुप्तप्राय हैं। अगर हम उनके संरक्षण को लेकर ऐसे ही शिथिल रहे, तो बची हुई ये भी छह प्रजातियां भी लुप्त हो जाएंगी। बाघों की संरक्षण पद्धति को हमें अभी और भी परिष्कृत बनाने की आवश्यकता है।

बाघों का प्रकृति की भोजन-शृंखला में अपना महत्त्वपूर्ण स्थान है। इसके अलावा भारतीय उपमहाद्वीप में बाघों का अपना एक मिथकीय आधार भी है। इसलिए भी हमारे यहां बाघों की बढ़ती जनसंख्या हर्ष का विषय है। अखिल भारतीय बाघ अनुमान के चौथे चक्र के आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2006 में बाघों की संख्या 1,411 और 2014 में 2,226 थी जो 2018 में बढ़कर 2,967 हो गई। यानी 2014 से 2018 के बीच भारत में बाघों की जनसंख्या तैंतीस फीसद बढ़ी है। 2010 के सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा में बाघों की संख्या को 2022 तक दोगुना करने के लक्ष्य को भारत ने तय समय से पूर्व ही सफलतापूर्वक प्राप्त कर लिया है।

भारतीय राज्यों के संदर्भ में मध्यप्रदेश 526 बाघों के साथ शीर्ष स्थान पर है, तो दूसरी तरफ कर्नाटक तथा उत्तराखंड 524 तथा 442 बाघों की संख्या के साथ क्रमश: दूसरे तथा तीसरे स्थान पर हैं। अंतरराष्ट्रीय परिदृश्य में देखें तो पूरे विश्व में बाघों की कुल जनसंख्या के अकेले सत्तर फीसद बाघ भारत में हैं। बाघों की संख्या में यह वृद्धि वस्तुत: भारत की दूरदर्शी संरक्षण पद्धति, प्रोजेक्ट टाइगर की सफलता और जीपीएस सहित अन्य तकनीकी उपायों का वन्यजीव संरक्षण में विशेष उपलब्धि की ओर इंगित करता है। जीपीएस तथा अन्य तकनीकी उपकरणों के प्रयोग ने न सिर्फ बाघों की गणना में अपना योगदान दिया है, बल्कि वन्यजीवों के व्यवहार के कई गुप्त रहस्यों को भी उद्घाटित किया है। जीपीएस तकनीक ने बाघों के शिकार पर भी नकेल लगाई है।

भारत में बाघों के संरक्षण की सर्वप्रथम शुरुआत 1972 के वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम के कार्यान्वयन के बाद 1 अप्रैल, 1973 को उत्तराखंड के जिम कार्बेट नेशनल पार्क में 'प्रोजेक्ट टाइगर' से की गई थी। आंकड़े बताते हैं कि औपनिवेशिक काल में अंग्रेज अधिकारियों तथा भारतीय राजाओं द्वारा बाघों के अंधाधुंध शिकार के कारण उनकी संख्या में भारी गिरावट आई।

बीसवीं सदीं के पूर्वाद्ध तक भारत में लगभग चालीस से पैंतालीस हजार बाघ थे, जो 1960 तथा 1970 के दशक तक पहुंचते-पहुंचते दो हजार के आसपास ही बचे थे। बाघों के प्राकृतिक आवास के ह्रास के मुख्य कारणों का पता लगाकर उन्हें नियंत्रित करना तथा वैज्ञानिक, पारिस्थितिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए बाघों की एक जीवक्षम जनसंख्या को सुनिश्चित करना प्रोजेक्ट टाइगर के मुख्य लक्ष्यों में शामिल था। इस प्रोजेक्ट के प्रारंभिक दिनों में भारत में मात्र नौ बाघ अभ्यारण्य थे, किंतु आज इनकी संख्या तिरपन हैं, जो बाघ संरक्षण की हमारी प्राथमिकता को दर्शाता है।

इस परियोजना की प्रशासनिक इकाई 'राष्ट्रीय व्याघ्र संरक्षण प्राधिकरण' है, जिसे व्याघ्र कार्यदल की अनुशंसा पर 2005 में गठित किया गया था। इस संरक्षण प्राधिकरण को 2006 में वन्यजीव (संरक्षण) अधिनियम, 1972 के संशोधन के बाद स्थापित किया गया था। इस इकाई के अंतर्गत आठ संरक्षण इकाइयां हैं, जिनमें सुंदरवन, काजीरंगा, सरिस्का, मध्य-भारत संरक्षण इकाई, उत्तर-पूर्व संरक्षण इकाई आदि प्रमुख हैं। इन संरक्षित क्षेत्रों का निर्माण और उनकी कार्यशैली 'कोर/बफर' कार्यनीति पर आधारित होता है, जिसमें कोर इलाके को राष्ट्रीय उद्यान या अभ्यारण्य की कानूनी प्रतिष्ठा भी मिली होती है, जबकि बफर क्षेत्र परिधि के क्षेत्रों को इंगित करता है, जिसमें जंगल तथा जंगल के बाहर के कुछ इलाके भी शामिल होते हैं।

हाल के दिनों में भारत में मानव तथा बाघों के टकराव की दर में वृद्धि हुई है, जिसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है। इसका सबसे बड़ा कारण जंगलों की अंधाधुंध कटाई और बाघों के प्राकृतिक आवास का ह्रास होना है। हांलाकि बाघों का एक जंगल से दूसरे जंगल की तरफ कूच के दौरान मानव बस्तियों तक पहुंचना भी प्राकृतिक है, जिसके कारण संघर्ष सामने आ रहा है। आंकड़े बताते हैं कि भारत के कुल क्षेत्रफल का महज पांच फीसद क्षेत्र संरक्षित है, जो वन्यजीव खासकर बाघों के लिए उपयुक्त नहीं है।

बाघों को अपने आवास में सही तरीके से रहने तथा वृद्धि के लिए कम से कम पचास से सौ वर्ग किमी क्षेत्र की जरूरत है, जो ज्यादातर जगहों पर उपलब्ध नहीं है। वन्यजीव विशेषज्ञों के एक आंकड़े के मुताबिक भारत में बाघों की कुल जनसंख्या के लगभग उनतीस फीसद बाघ संरक्षित क्षेत्र से बाहर हैं, जिसके चलते मानव-बाघ संघर्ष और प्रबल हो गया है। इसके अलावा जंगल के संसाधनों का अंधाधुंध दोहन, जंगल में सिंचाई, राजमार्ग तथा रेल परियोजनाओं का विकास बाघों तथा अन्य जंगली जीवों के लिए खतरा बनता जा रहा है।

हालांकि भारत में बाघों की जनसंख्या में वृद्धि तो दर्ज की गई है, किंतु साथ ही कुछेक सालों में उनकी अप्रत्याशित मृत्यु ने चिंता भी बढ़ा दी है। आंकडेÞ के मुताबिक बाघों ने अपने आवास का सत्तानबे फीसद हिस्सा खो दिया है। बाघों का शिकार भी उनकी मृत्यु का एक महत्त्वपूर्ण कारक बनता जा रहा है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर दक्षिण कोरिया, ताइवान, ग्रेट ब्रिटेन, जापान एवं चीन जैसे देशों में बाघों की चमड़ी और उनके अंगों का बहुत बड़ा कालाबाजार है। जलवायु परिवर्तन की समस्या भी बाघों के लिए घातक साबित हो सकती है।

बढ़ते तापमान के कारण हिमनद पिघल रहे हैं, जिसके फलस्वरूप समुद्र तल उठ रहा है। अगर ऐसे ही चलता रहा तो भारत तथा बंग्लादेश के गंगा डेल्टा क्षेत्र में निवास करने वाली तथा यहां की 'रायल बंगाल टाइगर' की पूरी प्रजाति समाप्त हो जाएगी। बाघ मुख्यत: जंगली जीव हैं, जो कृत्रिम वातावरण में रह ही नहीं सकते। एसोसिएशन आफ इंडियन 'जू एंड वाइल्डलाइफ वेटेरिनरियन्स' के आंकड़े बताते हैं कि भारत में प्रतिवर्ष चिड़ियाघरों की कैद में कम से कम बीस बाघ मरते हैं।

इन्हीं के आंकड़ों के मुताबिक वर्ष 2015-16 तक भारत के चिड़ियाघरों में 245 बाघ, जबकि निन्यानबे सफेद बाघ यानी कुल 344 बाघ कैद थे। इसकी तुलना यदि भारत में आज के बाघों के आंकड़ों से की जाए तो भारत की कुल बाघ जनसंख्या के 11.59 फीसद बाघ अकेले चिड़ियाघरों में कैद हैं। इसके साथ ही बाघों को बीमारियों से भी बहुत खतरा है। कुत्तों द्वारा फैलने वाले 'कैनाइन डिस्टेम्पर वायरस' से समूल बिल्ली प्रजाति को खतरा है। आंकड़े बताते हैं कि गुजरात के गिर राष्ट्रीय उद्यान में 2018 में कुल तेईस शेरों की मृत्यु हुई थी, जिसका कारण यह कैनाइन डिसटेम्पर वायरस ही था। यह वायरस इसलिए भी खतरनाक है, क्योंकि इसका अभी कोई टीका नहीं बनाया जा सका है। अत: इस बीमारी का कोई इलाज नहीं है।

इस अंतरराष्ट्रीय बाघ दिवस पर, जो 2010 में आयोजित सेंट पीटर्सबर्ग घोषणा के बाद प्रतिवर्ष मनाया जाता है, कुछ संकल्प लेने की जरूरत है। जीवाश्म आधारित शोध बताते हैं कि बाघ इस धरती पर कम से कम उन्नीस लाख साल से निवास कर रहे हैं। बाघों की कुल नौ में से तीन प्रजातियां लुप्त हो चुकी हैं तथा शेष छह प्रजातियां लुप्तप्राय हैं। अगर हम उनके संरक्षण को लेकर ऐसे ही शिथिल रहे, तो बची हुई ये भी छह प्रजातियां भी लुप्त हो जाएंगी। बाघों की संरक्षण पद्धति को हमें अभी और भी परिष्कृत बनाने की आवश्यकता है।

हमें उनके शिकार को रोकने के लिए कठोर कानून बनाने की जरूरत है तथा हमें उनके संरक्षण हेतु तकनीक का भी समुचित उपयोग करना होगा, तब जाकर सही मायने में हम अपनी विरासत तथा प्रकृति को बचा पाएंगे। उल्लेखनीय है कि भारत टाइगर रेंज के उन तेरह देशों में शामिल है, जहां बाघ पाए जाते हैं। ऐसे में बाघ ही नहीं, बल्कि किसी भी जीव-जंतु के अस्तित्व के पर मंडराता खतरा पारिस्थितिकी तंत्र तथा इसके चक्रों के लिए घातक साबित हो सकता है। बहरहाल, बाघों के संरक्षण के लिए हमें नियतिवाद के तत्वों को आत्मसात करने की आवश्यकता है।

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