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सम्पादकीय
थियानमेन चौक नरसंहार : चीनी इतिहास का वो काला अध्याय, जिससे चीन आज भी मुंह छिपाता फिरता है
Tara Tandi
4 Jun 2021 9:12 AM GMT
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आज 4 जून है. थियानमेन चौक नरसंहार की 32वीं बरसी. ये दिन चीन की कम्युनिस्ट सरकार के इतिहास में एक ऐसा काला धब्बा है,
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | मनीषा पांडेय आज 4 जून है. थियानमेन चौक नरसंहार की 32वीं बरसी. ये दिन चीन की कम्युनिस्ट सरकार के इतिहास में एक ऐसा काला धब्बा है, जिसे धोने और जिस पर शर्मिंदा होने और माफी मांगने की भी चीनी सरकार ने कभी कोशिश नहीं की. पिछले 32 सालों में थियानमेन चौक नरसंहार के हर जिक्र पर चीन ने चुप्पी साधे रखी. लेकिन 2019 में जब इस हत्याकांड के 30 बरस पूरे हुए तो पहली बार चीन ने मुंह खोला और ऐसा खोला कि पूरी दुनिया का मुंह खुला ही रह गया.
दरअसल चीन उस हत्याकांड पर माफी मांगने और शर्मिंदा होने की बजाय उसका बचाव कर रहा था. अपने फैसले को सही ठहरा रहा था. चीन के रक्षामंत्री वी फ़ेंघी ने एक स्थानीय सभा में इस बारे में बोलते हुए कहा, "उस समय बढ़ते हुए उपद्रव को रोकने के लिए यह तरीका अपनाना ही सही कदम था." यानी सरकार की क्रूर तानाशाही के खिलाफ और लोकतंत्र के समर्थन में विरोध कर रहे छात्रों और कामगारों पर गोली चलाना और 200 लोगों को मौत के घाट उतार देना सही था.
आज सुबह ही चीन की सरकार ने एक्टिविस्ट चॉ हांग तुंग को गिरफ्तार कर लिया क्योंकि अपने साथी एक्टिविस्टों के साथ मिलकर वो आज थियानमेन चौक नरसंहार की याद में उस जगह एक प्रोटेस्ट करने वाली थीं. इतना ही नहीं, चीनी सरकार ने हजारों की संख्या में पुलिसकर्मी तैनात कर दिए हैं ताकि परिंदा भी थियानमेन चौक पर न फटकाए.
4 जून, 1989को क्या हुआ था?
लगभग साढ़े पांच हजार एकड़ क्षेत्र में फैला थियानमेन चौक चीन की राजधानी बीजिंग शहर के सिटी सेंटर के बीचोंबीच स्थित एक बड़ा सा मैदान है. 4 जून, 1989 से पहले ये मैदान चीनी इतिहास के कुछ यादगार दिनों का गवाह रहा है. 1 अक्तूबर, 1949 को चीनी क्रांति के मुखिया माओत्से तुंग ने इसी थियानमेन चौक से पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चायना की नींव डाली थी. चीनी क्रांति के दौरान अनेकों बार इस मैदान में अपनी जनता को संबोधित किया और उनसे एक बेहतर, न्यायप्रिय और बराबरी के समाज का वादा किया.
थियानमेन चौक (फोटो क्रेडिट : विकीपीडिया)
लेकिन उस ऐतिहासिक दिन के ठीक 40 साल बाद एक दिन हजारों की संख्या में देश भर से लोगों ने बीजिंग की तरफ कूच कर दिया. वे सब उसी ऐतिहासिक थियानमेन चौक पर चीन की कम्युनिस्ट सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने के लिए इकट्ठा हुए थे. स्वप्न उन्हें समाजवाद और बराबरी के समाज का दिखाया गया था, लेकिन बदले में मिली थी तानाशाही. नौकरियों का अकाल था, महंगाई बढ़ती जा रही थी, अभिव्यक्ति की आजादी नहीं थी. मीडिया पूरी तरह स्टेट के नियंत्रण में था. आप लिखकर, बोलकर या किसी भी रचनात्मक माध्यम से अपनी असहमति नहीं जाहिर कर सकते थे. लेखक, कलाकार, बुद्धिजीवी देश छोड़कर जा रहे थे. ऐसे में एक दिन हजारों की संख्या में देश भर से लोग थियानमेन चौक पर इकट्ठा हुए और सरकार के खिलाफ विरोध प्रदर्शन किया.
ये कोई एक दिन का प्रदर्शन नहीं था. दो महीने से लोग उस चौक पर डटे हुए थे. धीरे-धीरे आवाज पूरे देश में फैल रही थी. और लोग जुड़ते जा रहे थे. छोटे-छोटे कामगार समूहों, विश्वविद्यालयों, छात्रों तक आवाज पहुंच रही थी. बीजिंग पहुंचने वाली बसों और ट्रेनों में रोज सैकड़ों की संख्या में ऐसे लोग सवार होते, जो स्टेशन पर उतरकर थियानमेन चौक का पता पूछते. वो विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लेने आए थे. चीनी मीडिया पर जबर्दस्त नियंत्रण के बावजूद इंटरनेशनल मीडिया इस घटना को लगातार कवर कर रहा था. विरोध बढ़ता जा रहा था. चीन की सरकार को लगा कि स्थिति नियंत्रण से बाहर भी जा सकती है.
3 जून की वो काली रात
3 जून की रात वो काली अंधेरी रात थी, जब थियानमेन चौक पर सरकारी टैंक जमा होने शुरू हुए. ये सारे टैंक और वर्दीधारी लोग पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के थे. लोगों को आजादी दिलाने के लिए बनी आर्मी आज उसी आजादी के अधिकार और मांग को कुचलने के लिए वहां जमा हुई थी.
उस रात जब लोग आधी नींद में थे तो सरकार ने थियानमेन चौक को चारों ओर से पुलिस, बंदूकों और टैंकों से घेर लिया. बचकर जाने की कोई जगह नहीं थी. 4 जून की सुबह पुलिस ने टैंकों और बंदूकों से विरोध प्रदर्शन कर रही भीड़ पर अंधाधुंध फायरिंग शुरू कर दी. लोग गाजर-मूलियों की तरह कटकर जमीन पर धराशायी होने लगे. थियानमेन चौक लाशों से पट गया. 200 लोगों की वहीं मौत हो गई. 7000 से ज्यादा घायल हो गए.
चीन के मिलिट्री म्यूजियम में यह टाइप 59 बैटल टैंक रखा है, चीनी क्रांति की याद में. लेकिन उस टैंक पर लिखे नोट में ये नहीं लिखा कि यही टैंक 3 जून, 1989 को थियानमेन चौक पर भी तैनात किया गया था, जिसने 200 लोगों को एक झटके में मौत के घाट उतार दिया. (फोटो क्रेडिट : विकीपीडिया)
थियानमेन चौक पर आया कोई व्यक्ति अपने साथ बंदूक लेकर नहीं आया था. वो सब नि:शस्त्र, निहत्थे नागरिक थे, जो शांतिपूर्वक अपना विरोध जाहिर कर रहे थे. सरकार इतनी डरपोक थी कि निहत्थे नागरिकों का मुकाबला करने के लिए उसने अपनी पूरी आर्मी तैनात कर दी. वैचारिक विरोध का जवाब सरकार ने बंदूकों और गोलियों से दिया.
इंटरनेशनल मीडिया में उस घटना को रिपोर्ट करने वाले पत्रकारों ने लिखा है कि जब थियानमेन चौक लाशों से पट गया था, तब भी लोग पीछे हटने को तैयार नहीं थे. वो गोलियों से डर नहीं रहे थे. दूसरी ओर से जितनी तेज फायरिंग हो रही थी, भीड़ का जोश और आवाज उतनी ही तेज होती जा रही थी. वो ऐसा दिल दहला देने वाला मंजर था. गुस्सा और नाराजगी, सरकार के खिलाफ आक्रोश इतना गहरा था कि उसके सामने मौत का डर भी खत्म हो गया था.
लेकिन एक बार मौत आ जाए तो उसके बाद कहानी खत्म हो जाती है. दो दिन तक चले इस नरसंहार के बाद सरकार उस विरोध को कुचलने में पूरी तरह कामयाब रही.
चीनी सरकार की सेंसरशिप
विरोध को कुचलने के बाद चीनी सरकार का अगला कदम था इस खबर को फैलने से रोकना. पूरी सरकारी मशीनरी और तंत्र सक्रिय हो गया कि इस संबंध में कोई खबर, कोई रिपोर्ट बाहर न जाने पाए. खुद चीनी मीडिया में इस विषय पर कुछ भी लिखने, बोलने पर पूरी तरह पाबंदी लगा दी गई. सरकार ने साम, दाम, दंड, भेद सबका इस्तेमाल किया. कोई कसर नहीं उठा रखी. मीडिया पर पूरी तरह लगाम कसी गई, लोगों को टॉर्चर किया गया और उन पर मुकदमे चलाए गए, जिसने भी इस बारे में अपना मुंह खोलने की कोशिश की.
लेकिन यह हत्याकांड इतना बड़ा था कि आज भी इतनी सेंसरशिप और कंट्रोल के बावजूद अगर आप गूगल पर थियानमेन चौक नरसंहार टाइप करिए और आपको सैकड़ों की संख्या में ऐसी कहानियां मिलेंगी, जो उस दिन की तकलीफदेह दास्तान बयां कर रही होंगी. हालांकि चीनी में कभी उस घटना का कोई जिक्र नहीं होता.
हर साल 4 जून से पहले पूरी सरकारी मशीनरी इंटरनेट पर थियानमेन चौक नरसंहार से जुड़ी किसी भी पोस्ट, फोटो और कहानी को सेंसर करने के लिए तैनात हो जाती है. चीनीसरकार बिलकुल नहीं चाहती कि इतिहास का वो काला अध्याय दोहराया जाए. लोग उसे याद करें, उस पर बात करें और इस बात को सुनिश्चित करने के लिए सरकार हर साल अपनी पूरी ताकत झोंक देती है.
वैसे लगता तो हर तानाशाह को है कि अपनी ताकत के दम पर वो सच को दबा देगा. लेकिन सच इतना कमजोर नहीं होता. 4 जून, 1989 चीनी सरकार की लाख कोशिशों के बावजूद इतिहास में दर्ज हो चुका है. टैंकों ने इंसानों को तो खत्म कर दिया, लेकिन सच को नहीं कर पाया. सच कोई नहीं मिटा सकता.
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