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सुधीर कुमार: लिहाजा जैव विविधता पर मंडराता खतरा मानव अस्तित्व के लिए भी जोखिम बढ़ा रहा है। हाल में चीन की अध्यक्षता और कनाडा की मेजबानी में मांट्रियल शहर में आयोजित पंद्रहवां संयुक्त राष्ट्र जैव विविधता सम्मेलन 'कुनमिंग-मांट्रियल वैश्विक जैव विविधता रूपरेखा' नामक ऐतिहासिक समझौते के साथ समाप्त हो गया।
इसके तहत 2030 तक विश्व में तीस फीसद भूमि, तटीय इलाकों और जल क्षेत्रों का संरक्षण सुनिश्चित करने और जैव विविधता संरक्षण के लिए तेईस लक्ष्य निर्धारित किए गए। इस सम्मेलन में भी पिछले दिनों मिस्र में आयोजित काप-27 की तरह ही सतत विकास लक्ष्यों को पूरा करने और वैश्विक तापमान को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित करने के लिए पारिस्थितिकी तंत्र को बचाने पर बल दिया गया।
इस समझौते में इस दशक के अंत तक समृद्ध जैव विविधता वाले क्षेत्रों के नुकसान को शून्य के करीब ले जाने, जैव विविधता के करीब रह रहे स्थानीय समुदायों के अधिकारों का सम्मान और संरक्षण, मानव-वन्यजीव संघर्ष को कम करने, पौधों और जीवों के अवैध व्यापार पर रोक लगाने, प्रदूषण को न्यूनतम करने, वैश्विक खाद्य अपशिष्ट को आधा करने और ऐसी आर्थिक सहायता को चरणबद्ध तरीके से समाप्त करने जैसे मुद्दे शामिल हैं जो प्रत्यक्ष-परोक्ष रूप से जैव विविधता के विनाश का कारण बन रहे हैं।
जैव विविधता के संरक्षण पर वैश्विक समुदाय को सचेत होना इसलिए जरूरी है, क्योंकि पर्यावरण क्षरण और जैव विविधता के ह्रास के कारण जलवायविक दशाएं कठोर होती जा रही हैं। दुनियाभर में जिस तेजी से जैव विविधता और पर्यावरण मूल्यों की हानि हो रही है, वह गंभीर चिंता का विषय है। संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम के मुताबिक दुनिया की अनुमानित अस्सी लाख वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों में से दस लाख विलुप्त होने के कगार पर हैं।
यह चिंता का विषय इसलिए भी है क्योंकि प्राणवायु, भोजन, स्वास्थ्य, आजीविका और समृद्धि के विभिन्न साधनों के लिए हम किसी न किसी रूप से जैव विविधता पर आश्रित हैं। प्रकृति मानवता की पोषक है, लेकिन पारिस्थितिकी तंत्र में गिरावट वैश्विक आबादी के चालीस फीसद तबके के कल्याण को प्रभावित कर रही है।
धरती पर पारिस्थितिकी तंत्र को संतुलित रखने और जीवन की निरंतरता को बनाए रखने में जैव विविधता की भूमिका काफी महत्त्वपूर्ण है। जैव-विविधता से तात्पर्य धरती पर मौजूद जीवों और वनस्पतियों की विभिन्न प्रजातियों से है। जैव-विविधता के बिना धरती पर जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। जीवों की विविधता ही धरती पर जीवन के लिए अनुकूल परिवेश का निर्माण करती हैं।
इसकी संपन्नता जहां मानव जीवन को सुदीर्घ और सेहतमंद बनाती है, वहीं विलुप्त होती जैव विविधता धरती को विनाश की ओर ले जाती है। हालांकि बढ़ती जनसंख्या, मृदा का घटना, जंगलों की कटाई, बिगड़ता पर्यावरण, जलवायु परिवर्तन और बढ़ती औद्योगिक गतिविधियों से जैव-विविधता का तेजी से क्षरण हो रहा है। लिहाजा जैव विविधता पर मंडराता खतरा मानव अस्तित्व के लिए भी जोखिम बढ़ा रहा है।
ऐसे में जैव विविधता के नुकसान का मानव स्वास्थ्य और जीवन पर बुरा असर पड़ रहा है। इससे मानव का सामाजिक, आर्थिक, शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक विकास प्रभावित हो रहा है। ऐसे में जरूरी है कि जैव विविधता के रूप में मानव जीवन के आधार को संरक्षित करने पर विशेष बल दिया जाए।
गौरतलब है कि दुनिया की सत्तर फीसद जैव विविधता केवल सत्रह देशों में पाई जाती है। इनमें भारत भी शामिल है। भारत का क्षेत्रफल दुनिया के कुल क्षेत्रफल का महज 2.4 फीसद है, लेकिन यहां वन्यजीवों की लगभग इक्यानबे हजार और वनस्पतियों की पैंतालीस हजार प्रजातियां पाई जाती हैं। जैव-विविधता का यह विशाल स्वरूप पारिस्थितिक-तंत्र को संतुलित रखने और मानव जीवन को अनुकूल बनाने में काफी मददगार साबित हुआ है। विभिन्न प्रकार के पौधों और जीवों की विस्तृत शृंखला स्वस्थ पारिस्थितिकी प्रणाली के निर्माण में सहायक है।
मसलन, पेड़-पौधे प्राणवायु का संचार करते हैं और वायुमंडल से कार्बन डाइआक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों का अवशोषण कर धरती को अतिरिक्त ताप के खतरे से बचाते हैं। वहीं प्रवाल भित्तियां और मैंग्रोव वन चक्रवात और सुनामी से सुरक्षा प्रदान करते हैं। एक तरफ राइजोबियम, एजोटोबैक्टर जैसे जीवाणु और केंचुए जैसे अकशेरुकी जीव मृदा को उर्वर बनाने में सहायक हैं, तो दूसरी ओर गिद्ध सहित हजारों जीव मृत जीवों के अवशेषों का भक्षण कर वातावरण को प्रदूषित होने से बचाते हैं।
इस तरह सब के सहयोग से एक स्वस्थ पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण होता है। लेकिन अनुचित मानवीय गतिविधियों के दखल से पौधों और जीवों की कई प्रजातियां विलुप्त हो चुकी हैं और कइयों का अस्तित्व खतरे में है। मानव समाज के लिए यह एक बड़ी चेतावनी है। अगर समय रहते इन प्रजातियों के संरक्षण के लिए त्वरित और ठोस प्रयास नहीं किए गए, तो इन्हें भी किस्से-कहानियों का हिस्सा बनने में अधिक समय नहीं लगेगा! ऐसी अवस्था में मनुष्य भी अपना अस्तित्व खो देगा।
संयुक्त राष्ट्र ने 2011-2020 अवधि को 'जैव विविधता दशक' घोषित किया था। इसका उद्देश्य जैव विविधता के लिए उत्पन्न खतरों के बारे में जागरूकता बढ़ाना था। जैव विविधता के संरक्षण के लिए सबसे बड़ी आवश्यकता उन मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाने की है जो जैव विविधता के लिए घातक सिद्ध हो रही हैं। जैव विविधता के संरक्षण के लिए मुख्य रूप से दो रणनीतियां अपनाई जाती हैं।
पहली, स्व-स्थानिक (इन-सीटू) संरक्षण विधि, जिसमें राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभ्यारण्य और संरक्षित जैव वन शामिल हैं। दूसरी, बाह्य-स्थानिक (एक्स-सीटू) संरक्षण विधि है, जिसमें वनस्पति उद्यान, चिड़ियाघर, बीज बैंक, जीन बैंक आदि शामिल होते हैं। जैव विविधता संरक्षण की इन दोनों विधियों में बुनियादी फर्क यह है कि स्व-स्थानिक संरक्षण में लुप्तप्राय: प्रजातियों को बनाए रखने और उसकी पुनर्प्राप्ति के लिए उनके प्राकृतिक आवासों को संरक्षित किया जाता है, जबकि बाह्य-स्थानिक संरक्षण विधि में संकटग्रस्त प्रजातियों का संरक्षण प्राकृतिक आवासों की तर्ज पर विकसित मानव निर्मित आवासों में किया जाता है।
हालांकि जैव विविधता के संरक्षण की ये दोनों ही विधियां लुप्तप्राय: जानवरों और पौधों की प्रजातियों की रक्षा, रखरखाव और पुनर्प्राप्ति में सहायक हैं। स्व-स्थानिक संरक्षण विधि के तहत देश में अब तक सैकड़ों राष्ट्रीय उद्यान, वन्यजीव अभ्यारण्य और संरक्षित वन विकसित किए गए हैं। जबकि दूसरी ओर बाह्य-स्थानिक संरक्षण के अंतर्गत देश में बड़ी संख्या में चिड़ियाघर, मछलीघर और वनस्पति उद्यानों की स्थापना हुई है। इनसे जीव-जंतुओं और पेड़-पौधों की अनगिनत प्रजातियों को संरक्षित करने में मदद मिली है।
जैव विविधता अधिनियम (2002) को लागू करने के लिए 2003 में केंद्र सरकार ने पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय के अंतर्गत एक स्वायत्त और वैधानिक निकाय के रूप में 'राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण' की स्थापना की थी। इसी अधिनियम के तहत राज्यों में जैव विविधता प्राधिकरण और जैव-विविधता प्रबंधन समिति का गठन भी किया गया था।
राष्ट्रीय जैव विविधता प्राधिकरण का काम जैव-विविधता के संरक्षण, इसके घटकों के सतत उपयोग और जैविक संसाधनों व ज्ञान के उपयोग से उत्पन्न होने वाले लाभों के उचित और समान बंटवारे से संबंधित किसी भी मामले पर केंद्र सरकार को सलाह देना, राज्य जैव विविधता बोर्डों को तकनीकी सहायता और मार्गदर्शन प्रदान करना और अनुसंधान को बढ़ावा देना है।
असम, बिहार, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक सहित कुल अठारह राज्यों और दो केंद्र शासित प्रदेशों- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह और दादर एवं नगर हवेली-दमन एवं दीव में वनस्पतियों और जीवों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का खतरा सबसे ज्यादा मंडरा रहा है। बहरहाल, मानवीय गतिविधियों पर लगाम लगाने के साथ जैव विविधता के संरक्षण हेतु समाज में भी जागरूकता पैदा करनी होगी, तभी हम जलवायु परिवर्तन के खतरे का सामना कर पाएंगे।