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आग को नियंत्रित करने वाले ही आज भी दुनिया में श्रेष्ठ हैं
जनता से रिश्ता वेबडेस्क | शंभूनाथ शुक्ल|दो साल पहले जब कोरोना (Corona) नहीं आया था, मैं गुजरात (Gujarat)के कच्छ में सिंधु सभ्यता के अवशेष देखने धोलावीर गया था. वहां सब कुछ देखने के बाद ऊपरी महलों के खंडहरों से उतर कर नीचे आते हुए लगा, कि सब कुछ तो यहाँ मिला है, पर यह नहीं पता चल सका कि यहाँ के लोग अपने मृत लोगों के शरीर का क्या करते थे? अंतिम संस्कार की विधि क्या थी? वे उन्हें जलाते थे, गाड़ते थे या लावारिस हालत में छोड़ देते थे, कुछ नहीं पता! जबकि जीवन के लास्य-हास्य और माधुर्य की हर चीज़ मिली है. टेराकोटा के भांड से लेकर सजने-सवंरने की चीज़ें भी. ऐसा शायद इसलिए कि यहाँ कोई अलौकिक सत्ता के प्रतीकों की कोई कल्पना भी नहीं दिखती. जो कुछ है, भौतिक है. वर्तमान में रहना सभ्यता के उन्नतीकरण का द्योतक है. यहां पानी के संरक्षण से लेकर नालियों द्वारा उसे एक स्थान से दूसरे स्थान को ले जाने के लिए भूमिगत नालियां हैं, कुएं हैं सामूहिक स्नान-गृह हैं. जीवन में व्यवहृत होने वाले भांड हैं, लिपि है पर आगे कुछ नहीं. जब भांड हैं तो आग भी होगी और वे लोग इतने कुशल भी होंगे कि कच्ची मिट्टी के बर्तनों को गढ़ कर उन्हें आग में भूनना जानते होंगे.
ईश्वर एक कल्पना है, एक ऐसी कल्पना जिसमें हास्य और लास्य दोनों है. लेकिन सामंतवाद शुरू होने के पहले आदिम समाज में यह कल्पना कैसी रही होगी? ठीक वैसी ही जैसी पशुओं में होती होगी. यानी सदैव वर्तमान में रहना. जब राजा आया और जब संग्रह तब भविष्य का डर पैदा हुआ होगा और इसके साथ ही राजा का भय पैदा करने के लिए ईश्वर. उस समय मृत शरीर को लोग फ़ेक देते रहे होंगे. मुझे अक्सर लगता है कि आदमी को जब आग मिली और उसका प्रसार हुआ तो सबसे पहले कुम्हारी कला विकसित हुई. पत्थर को हथियार बनाते-बनाते लोहारी कला, फिर भोज्य पदार्थों को भून कर खाने और उन्हें स्वादिष्ट बनाने के लिए पाक कला का विकास हुआ. समाज का नियमन आदि तब की बातें हैं, जब कुछ लोगों ने बहुत-सा भोजन संग्रह कर लिया होगा फिर सौदागरी की कला आई होगी और उसके बाद अन्य कलाएं.
आर्यों ने 'आग' को ही 'ब्रह्म' कहा
भारत भूभाग में चूंकि आर्यों ने 'आग' को ही 'ब्रह्म' कहा, इसलिए आग को हविष् देने वाले ब्राह्मण बने, आग को दूसरी सभ्यता और कबीलों, समुदायों द्वारा छीने जाने से बचाने वाले क्षत्रिय. आग की ज्वाला के अनुरूप अन्न एकत्र करने वाले वैश्य और और आग न बुझने पाए, उसके लिए जतन करने वाले शूद्र. तब ये भेद जाति नहीं, धर्म नहीं सिर्फ़ कर्म विभाजन था, जो पैतृक नहीं था. स्त्री को भी वही हक़ थे, जो पुरुष के थे. पर सबसे ऊपर आग थी, और वही सत था. धोलावीरा सभ्यता तक लिपि आ गई थी, पर उसे पढ़ा आज तक नहीं जा सका.
इतिहास के पीछे के इतिहास में जाना बहुत कठिन होता है, क्योंकि वहां तारीखें नहीं हैं. वहां किसी ऐसे नायक की चर्चा नहीं है, जिसके बारे हम सुन या पढ़ चुके होते हैं. वहां हमारा अनुमान काम नहीं करता और हम अंधेरी खोह में भटक रहे होते हैं. आम आदमी को उसमें रुचि कम ही होती है. और नृतत्व-शास्त्री तथा पुरातत्त्व-विद जैसी अकादमिक व्याख्या इसकी करते हैं, वह इतनी बोरिंग होती है कि उसमें किसी की दिलचस्पी हो भी नहीं पाती. हालांकि इस अंधेरी खोह में मेरी पैठ भी सीमित ही है. मैं भी सिर्फ़ वही लिखूँगा, जो मैंने विद्वानों की संगत में सुना है और घूम-घूम कर देखा है.
मनुष्य ने आग की खोज पाषाण काल के दौरान ही कर ली थी
यह वह अंधेरा काल है, जब वानरों की ही कोई जाति विकास करते-करते उसकी एक प्रजाति मनुष्य बन तो गई, लेकिन उसका जीवन पत्थरों पर ही निर्भर था. क्योंकि उसके पास अब पैने और नुकीले दांत नहीं थे. उसके नाखून छोटे हो गए थे. इसकी वज़ह थी, वह अब चौपाया से दो-पाया हो गया था. कोई भी विकसित होती हुई प्रजाति सिर्फ कंद-मूल, फल खाकर इस निष्ठुर प्रकृति में जिंदा नहीं रह सकती और न ही अपने को बचाए रख सकती थी, इसलिए उसने पत्थरों को अपने शिकार के वास्ते हथियार बनाए. वह इन पत्थरों से अपने से ज्यादा बड़े, भारी और हिंसक जीव-जंतुओं से भिड़ सकता था. इनके जरिये वह अपना शिकार कर सकता था, और इनकी मदद से वह अपने झोपड़े बना सकता था. पत्थरों को धारदार और नुकीला बनाना उसने सीखा. यह सीखने का काल वैज्ञानिक 25 लाख साल से दस हज़ार साल पहले का मानते हैं. अर्थात जो पौराणिक कथाएँ आप सुनते हैं, उन सबका विकास 10 हज़ार वर्ष के बाद का है. मैं इसके काल-खंड में नहीं जाऊंगा जो पुरा पाषाण काल, मध्य पाषाण काल और उत्तर पाषाण काल तक फैला हुआ है. इसके बाद आता है, धातु युग. यह तो तय है कि मनुष्य ने आग की खोज पाषाण काल के दौरान ही कर ली थी.
मनुष्य की प्रगति उत्तरोतर हुई
लेकिन फिर मैं यहीं आ कर रुकता हूँ कि आग को बचा कर रखना और उसकी सुरक्षा करना मनुष्य के लिए सबसे अहम था. पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा करना इतना आसान भी नहीं था. यह एक कला थी, जो कुशल लोगों तक ही सीमित थी. हो सकता है कि जब कभी मृत पशुओं की हड्डियों का फास्फोरस हवा के संपर्क में आया हो और आग भड़क उठी हो तथा घास-फूस के संपर्क में आकर वह आग फैली भी हो, लेकिन यह यदा-कदा ही हुआ होगा. क्योंकि जब प्रदूषण नहीं होता, तब जंगल नम रहते थे इसलिए मॉयश्चर आग को फैलने नहीं देता रहा होगा। इसलिए आग की विभीषिका से तो वह परिचित हो गया होगा। किंतु आग से तब वह डरता रहा होगा, उससे दोस्ती करने में उसे कम से कम 22-23 लाख साल गुजर गए होंगे. यह भी संभव है, कि दो पत्थरों की रगड़ से अचानक आग पैदा हुई होगी, लेकिन यह भी अनायास ही रहा होगा. जिस दिन मनुष्य ने खेल-खेल में ही सही पत्थरों को आपस में रगड़ कर आग बना ली, वही उसकी आज़ादी का, उसकी श्रेष्ठता का पहला दिन था
इसके साथ ही शुरू हुआ होगा, आग पैदा करने का कौशल और आग को बचा कर रखने का भी. यहीं से आरंभ हुआ होगा श्रेष्ठतावाद. पत्थर से रगड़ कर आग बन सकती है, किंतु कोई अनगढ़ आदमी पूरी ताकत लगा कर भी आग को पैदा नहीं कर सकता. वरना क्या बात है, कि आज भी गाँव के गरीब घरों में औरतें आग को बुझने नहीं देतीं. रात चूल्हे की आग किसी लोटे में अगियारी बना कर रख लेती हैं, ताकि अगले रोज़ काम आए. शहरों में गैस लाइटर का निर्माण भी ऐसी ही कुशलता है. आग के लिए पेट्रो-उत्पाद उपयुक्त हैं, और अरब देशों में ज़मीन के नीचे पेट्रोल बिखरा पड़ा है. लेकिन उसे निकालने का कौशल उनके पास नहीं है. और जिनके पास इसका कौशल है, वही दुनिया पर राज करते हैं, क्योंकि आग ही ऊर्जा है. इसलिए इसी कौशल ने मनुष्य को अकुशल मनुष्यों से श्रेष्ठ बनाया.
इसलिए आग को पैदा करना मनुष्य जाति कि सबसे बड़ी काबलियत थी. जिन क़बीलों को इसका इल्हाम था, वे कबीले जल्दी तरक्की करते गए. इसीलिए मैं कहता हूँ कि संभवतः आर्यों का कबीला आग के मामले में बाज़ी मार ले गया. क्योंकि उसके पास पत्थरों को रगड़ कर आग पैदा करने वाले सबसे कुशल लोग थे. और उसका संरक्षण करने का तरीका भी उसे ज्ञात था. यही नहीं आग को बचाने के लिए उसने अपने क़बीले का सामाजिक बंटवारा बुद्धि-सम्मत तरीक़े से किया. इसीलिए वह बचा. आग को पैदा करने, उसे संरक्षित करने और आग की उपयोगिता समझने के कारण ही ये लोग तरक्की करते चले गए. अर्थात मनुष्य की प्रगति उत्तरोतर हुई. पहले पत्थरों का इस्तेमाल और अब वह आग का इस्तेमाल भी सीख गया.