सम्पादकीय

गोल टोपी की पैरवी करने वालों को अब करनी पड़ रही आरती, सपनों में भी आ रहे भगवान

Gulabi
6 Jan 2022 4:45 AM GMT
गोल टोपी की पैरवी करने वालों को अब करनी पड़ रही आरती, सपनों में भी आ रहे भगवान
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सात साल, सिर्फ सात साल में विमर्श ही नहीं पहनावा और भाषा भी बदल गई
प्रदीप सिंह। सात साल, सिर्फ सात साल में विमर्श ही नहीं पहनावा और भाषा भी बदल गई। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तो हिंदू राष्ट्र की बात भी नहीं की, मगर गोल टोपी को तमगे की तरह पहनने वालों के सपने में भगवान श्रीकृष्ण आने लगे। रोजा इफ्तार की दावत भूलकर जनेऊ पहनकर मंदिर जाने लगे। देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताने वाली पार्टी के नेता हिंदू और हिंदुत्व की बात करने लगे। जिस मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड की बात कभी सरकारों के लिए हुक्मनामा हुआ करता थी, अब नक्कारखाने में तूती की आवाज बनकर रह गई है। ये सब तब हुआ है जब कोरोना ने बहुत सारे काम रोक दिए हैं।
पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव की घोषणा किसी भी दिन हो सकती है। सारे योद्धा मैदान में हैं, मगर ऐसा लगता है कि सब एक ही पक्ष की ओर से खेल रहे हैं। भारतीय जनता पार्टी की भाषा और मुद्दों को हाशिए पर धकेलने की कोशिश करने वालों ने खुद ही उसे मुख्यधारा में शामिल कर लिया है। भाजपा जो कहती थी वह अब 'न्यू नार्मल' है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने पार्टी की बंद कमरे की बैठक में नहीं, सार्वजनिक सभा में कहा-अयोध्या और काशी हो गया तो मथुरा और वृंदावन कैसे छूट जाएगा।
जरा सोचिए यह बात उन्होंने यदि आज से सात साल पहले कही होती तो अब तक देश के कई अखबारों के संपादकों ने संपादकीय लिखकर कलम तोड़ दी होती। न्यूज चैनलों पर सुबह से रात तक बहस हो रही होती। विदेशी अखबारों में लेख लिखे जाते। योगी आदित्यनाथ के इस बयान को अपराध की श्रेणी में रखकर उन्हें दोषी ठहराने के साथ ही सजा भी सुना दी जाती। आज सब कुछ सामान्य ढंग से चल रहा है।
अयोध्या में कारसेवकों पर गोली चलवाने वालों के सपने में अचानक भगवान कृष्ण आने लगे। इससे पहले क्या वे सपना नहीं देखते थे या भगवान नहीं आते थे। कुछ तो हुआ है। मंदिर तो अयोध्या में बन रहा है सपने में मथुरा दिख रही है। कुछ दैवीय संकेत है क्या। भाजपाइयों के सपने में राम, कृष्ण और महादेव आएं, यह तो सामान्य बात है। सपाइयों के सपने में भी आने लगें, ये तो हद है। समस्या यही है। सपने में भगवान राम आते तो बात अलग होती, क्योंकि राम तो मर्यादा पुरुषोत्तम हैं, मगर कृष्ण तो खेल करते हैं।
अश्वत्थामा मरो, नरो वा कुंजरो वाले हैं। पिछले एक महीने की यात्रा देखिए, जिन्ना से भगवान कृष्ण तक पहुंच गए। चुनाव आयोग जल्दी से चुनाव करा दे नहीं तो हिमालय की ओर प्रस्थान न कर दें। मनुष्य को कपड़े बदलने में भी समय लगता है। यहां पाला बदलने में इतनी तेजी। एक साल में भगवान श्रीराम का मंदिर बनवा रहे थे और सपने में कृष्ण भगवान आने लगे। नास्तिक व्यक्ति यदि मंदिर पहुंच जाए तो समझ लीजिए कि संकट भारी है।
कृष्ण कष्ट से मिलते हैं और सत्ता संघर्ष से। सपने में मिलने वाली सत्ता उसी समय तक रहती है जब तक नींद रहती है। आंख खुलते ही सब गायब। इसीलिए ज्यादातर सपने सोकर उठने के बाद याद नहीं रहते। जो याद रह जाते हैं वे बहुत कष्ट देते हैं। जैसे मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को ही देख लीजिए। कभी इनके कहने से सुप्रीम कोर्ट के फैसले पलट दिए जाते थे। बेचारे तीन तलाक पर माडल निकाहनामा लेकर दर-दर भटकते रहे। कोई देखने को तैयार नहीं हुआ। नागरिकता संशोधन कानून के विरोध में लोगों को सड़क पर उतरवा दिया। तोड़फोड़ करवाई। नतीजा यह हुआ कि तोड़फोड़ करने वालों को माफी भी मांगनी पड़ी और जुर्माना भी भरना पड़ा। संसद के बजट सत्र में उनके न चाहने पर भी महिलाओं के लिए विवाह की न्यूनतम आयु इक्कीस साल करने का विधेयक पास हो जाएगा। वह भी मुस्लिम पर्सनल ला यानी शरिया में संशोधन के साथ। बोर्ड के सदस्यों से कोई पूछेगा भी नहीं।
सो अब नया मोर्चा खोलने की कोशिश है। कह रहे हैं कि सूर्य नमस्कार से इस्लाम खतरे में पड़ जाएगा। बात ये नहीं है कि नए हुक्मरान नहीं सुन रहे। दर्द ये है कि आम मुसलमान भी नहीं सुन रहे। सूर्य नमस्कार के बहिष्कार की पर्सनल ला बोर्ड की अपील को जिस तरह से मुस्लिम समाज ने अनसुना किया है, वह बोर्ड के कारकूनों को लिए बड़ा झटका है। आजादी के बाद से चला आ रहा नेहरूवादी सेक्युलरवाद का विमर्श देश ने छोड़ दिया है। सरदार वल्लभ भाई पटेल, डा. राजेंद्र प्रसाद, चक्रवर्ती राजगोपालाचारी, केएम मुंशी, मदन मोहन मालवीय और डा. राममनोहर लोहिया जैसे तमाम नेता देश को सनातन संस्कृति के रास्ते पर ले जाना चाहते थे।
नेहरू के पाश्चात्य प्रेम और सनातन संस्कृति के प्रति अरुचि ने ऐसा होने नहीं दिया। नेहरू प्रधानमंत्री थे और बाकी नेता ज्यादा समय तक जीवित नहीं रहे या कांग्रेस से अलग हो गए। खासतौर से सरदार पटेल के निधन के बाद नेहरू पर अंकुश नहीं रह गया। नेहरू की आर्थिक विचारधारा को कांग्रेस पार्टी ने ही 1991 में दफन कर दिया। इमरजेंसी में संविधान की प्रस्तावना में समाजवाद शब्द भले ही जोड़ दिया गया हो, परंतु राजीव गांधी से आज के दौर की कांग्रेस का समाजवाद से कोई लेना-देना नहीं है। संविधान की प्रस्तावना में दूसरा शब्द जोड़ा गया पंथनिरपेक्षता। उसकी व्यावहारिक परिभाषा बन गई हिंदू विरोध। हिंदू विरोध से भगवा आतंकवाद तक की यात्रा, कांग्रेस के पतन की कथा सुनती है।
जो क्षेत्रीय दल पिछले कुछ दशकों में कांग्रेस से मुस्लिम वोट लेकर गए अब दुविधा में हैं। मुस्लिम समुदाय को छोड़ दें तो सत्ता भूल जाएं और साथ रखें तो हिंदू वोट कैसे भूलें। दरअसल इनकी दुविधा यह है कि ये टोपी और तिलक दोनों लगाना चाहते हैं। उसमें कोई हर्ज नहीं है, मगर चाहते हैं कि टोपी वाले तिलक न देख पाएं और तिलक वालों को टोपी न दिखे। दो नावों की इसी सवारी में कांग्रेस की नैया बीच नदी में डूब गई।
वास्तविकता यह है कि अब कोई राजनीतिक दल हिंदू विरोधी एजेंडे पर चलने की सोच भी नहीं सकता, लेकिन हिंदू धर्म के पक्ष में कैसे बोलें। इसीलिए हिंदू और हिंदुत्व की बात हो रही है। पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के नतीजे देश की राजनीति में बड़े बदलाव का प्रस्थान बिंदु बनेंगे। इसका यह मतलब नहीं कि मोदी और भाजपा विरोध की राजनीति बंद हो जाएगी। हां, उस खेमे में निराशा और हताशा का स्तर और बढ़ जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार एवं राजनीतिक विश्लेषक हैं)
Gulabi

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